अलार्म बज बज कर,
सुबह को बुलाने का प्रयत्न कर रहा है,
बाहर बर्फ बरस रही है,
दो मार्ग हैं,
या तो मुँह ढक कर सो जाएँ,
या फिर उठें,
गूँजें और 'निनाद' हो जाएँ।
भाई गौतम राजरिशी जी नें ये सूचना दी की 'निनाद गाथा' पर प्रेषित एक कविता की चर्चा रवीश कुमार जी नें ब्लॉग वार्ता में करी है. उन्होंनें ही समाचार पत्र का यह भाग स्कैन कर के भेजा. अतः उनको धन्यवाद् देते हुए यह पोस्ट कर रहा हूँ.
अपना नाम समाचार पत्र में पढ़ना किसे अच्छा नहीं लगता है. मुझे याद है जब पहली बार बरेली के किसी पत्र में नाम छपा था तो कई दिनों तक हास्टल में भौकाल बना रहा था. बात ये थी की सुविधाओं की कमी के चलते छात्र हड़ताल पर थे और हमनें इसी पर एक कविता लिखी थी जिसको हमारे एक मित्र नें अपने सुंदर हस्तलेख में लिख कर उसकी बड़े साइज़ में फोटोकापी निकाली. फिर वह कविता पूरे विश्विद्यालय परिसर में चिपकाई गई थी. उस कविता की कुछ पंक्तियों का बैनर भी बना था. उस समय हमारा कवि मार सिहाया सिहाया घूम रहा था. सुरक्षा कारणों से कहीं भी कवि का नाम नहीं छापा गया था. पर न जाने समाचार पत्र वाले कहाँ से पता लगा लेते हैं. अखबार में छपा की, 'युवा छात्र नेता एवं कवि अभिनव शुक्ल की निम्न पंक्तियों का बैनर लिए हुए इंजीनिरिंग कालेज के छात्र हड़ताल कर रहे हैं.' अखबार देख कर हम अभी खुश होना शुरू ही हुए थे की थोडी ही देर में सारी खुशी हवा हो गई. डाइरेक्टर महोदय का बुलावा आ गया और कालेज से निकाले जाने की बात होने लगी. वो दिन और आज का दिन हमारी किसी और कविता का बैनर हड़ताल हेतु नहीं बनाया गया. इस घटना के चलते अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् एवं एन एस यु आई के लोग अलग अलग आकर हमसे मिले और छात्रों पर होने वाले अत्याचारों का बदला लेने हेतु हमें उनके झंडे तले आने को कहा. पर भाई वो तो घर की बात थी अतः बाहर के बड़े लोगों से दूर रहने में ही भलाई समझी गई. वो कविता पूरी याद नहीं है पर कुछ पंक्तियाँ ध्यान में आ रही हैं;
ज़िन्दगी के साथ ये दरियादिली काफ़ी हुयी, अब तमाशों में तमाशा बन के रहना छोड़ दो, जंग का ऐलान करने का समय है दोस्तों, इस तरह हर ज़ुल्म को चुपचाप सहना छोड़ दो.
खैर, रवीशजी तो बढीया लिखते ही हैं और उन्होंनें हमारी इस कविता को ब्लॉग वार्ता में स्थान दिया ये देख कर हर्ष हुआ. आशा है की आगे भी इसी प्रकार हमारी कविताओं को उनके कालम में, चिटठा चर्चा में और भी जहाँ जहाँ कुछ लिखा जा रहा है वहां वहां जगह मिलती रहेगी. इसी शुभ भावना के साथ फिर मिलेंगे, नमस्कार. ;-)
राकेश जी नें कविता की निम्न पंक्ति को रेखांकित करते हुए अपने विचार व्यक्त किए हैं; 'अभी मेरे पास तुम्हारे सवालों का जवाब नहीं है'
आज तुम्हारे पास प्रश्न का उत्तर नहीं ? कहो कल था क्या, आज नाम जो देते मुझको, क्या ये सब कल कहा नहीं था, कहते हो तुम जानते सभी कुछ, तो क्यों महज भुलावा देते, और आज यह पक्ष बताना, कल भी कहो नहीं था यह क्या,
भ्रांति तुम्हें है तुम सशक्त हो, भीरु मगर हो अंन्तर्मन में, केवल बातें कर सकते हो, कब तलवार उठी है कर में, बातों के तुम रहे सूरमा, चलो और कुछ भाषण दे लो, लहरें नहीं उठा करती हैं, सूखे हुए कुंड के जल में.
भारतभूषण नें अपने क्लासिक अंदाज़ में टांग खींचने का प्रयास किया है;
सुनो अभिनव तुम मेरे दोस्त हो हमने काफी समय साथ गुज़ारा है और कुछ मतभेदों के बावजूद मैं तुम्हारी काव्य-प्रतिभा का कायल हूँ अरुंधती के बारे में हमने कई बार बहस की है उसके निष्कर्षों से सहमत न होना नितांत स्वाभाविक है मेनस्ट्रीम के कहकहों में हाशिये का रोना भी क्या रोना डैम और बम के विरोध का क्लासिफिकेशन=सेडिशन आई एस आई की एजेन्सी या डीलरशिप मिले बिना मुंबई,गुजरात और कश्मीर का त्रिकोण भला कौन खींचेगा और पिट्ठू द्वारा पश्चिम के गढ़ में स्तुति-सुमनों का वर्षाव भी क्या खूब! बुकर पुरस्कार, लानन फाउंडेशन पुरस्कार और पुस्तकों की रायल्टी से अर्जित लगभग दो करोड़ रुपयों की राशि को संगठनों, संस्थाओं, आन्दोलनों, व्यक्तिओं,नाट्य समूहों यानी दीगर देशद्रोहियों , पश्चिम के पिट्ठूओं और एजेंटों में बाँट देना लालच की पराकाष्ठा है! 'आर्म-चेयर' साहित्य सृजन के दौर में एक्टिविस्ट-लेखक होना सचमुच वल्गर है और हाँ, अरुंधती की भाषा, उसकी शैली इन्सिडेन्टल है जिसके प्रभाव से मुक्त होने में तुम्हें ज्यादा देर नहीं लगेगी.
और भी अनेक टिप्पणियां प्राप्त हुयी हैं कुछ में गुस्सा है तो कुछ में समर्थन. सभी का धन्यवाद् देते हुए मैं बस इतना कहना चाहूँगा की;
लिखा वही है जो कुछ मेरे इस मन नें महसूस किया है, सीधी सरल बात बोली है कोई लाग लपेट नहीं है, अपनी कमियों का अंदाजा है इस 'आर्म-चेयर' कवि को, पर भावों के ऊपर रखा कोई पेपर वेट नहीं है.
सुनो अरुंधती, तुम मुझे बुरी नहीं लगती हो, बल्कि, एक समय तो मैं तुम्हारा फैन भी रहा हूँ, तुम्हारी भाषा, तुम्हारी शैली, तुम्हारे निबंध, उन निबंधों में प्रस्तुत तथ्य, उन तथ्यों में छिपा हुआ सत्य, उन सत्यों का विवेचन, निष्कर्षों तक पहुँचने का तुम्हारा तरीका, सब मुझे भाता है, पर क्या करुँ, मेरा मन तुम्हारे निष्कर्षों से मेल नहीं खाता है, मेरा विश्वास है, की आज नहीं तो कल, मैं नहीं तो कोई और, तुम्हारी ही भाषा में, तुम्हारी ही शैली में, उन्हीं तथ्यों, सत्यों और विवेचनों के साथ, तुम्हे उत्तर देगा, और तुम वो लिखने लगोगी, जो और अधिक सत्य हो, पर,
अभी मेरे पास तुम्हारे सवालों का जवाब नहीं है, अतः, मैं तुमको देशद्रोही, पश्चिम का पिट्ठू, लालची, आई एस आई की एजेंट, और भी बहुत कुछ कह कर, अपनी भड़ास निकाल रहा हूँ, आशा है तुम स्वस्थ्य एवं प्रसन्न होगी, अपने सभी मित्रों से मेरा नमस्कार कहना, सुनो अरुंधती, तुम मुझे बुरी नहीं लगती हो.
एक इराकी पत्रकार नें बुश पर जूता चला कर भले ही अचानक संसार का ध्यान अपनी और आकर्षित कर लिया हो परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि जूता चलाने कि कला पर इराक वालों का पेटंट हो गया हो. हम भी जूता चलाना जानते हैं. अभी कुछ दिनों पहले ही हमने जूते मार मार कर तसलीमा नसरीन को देश से बाहर कर दिया था. ये अलग बात है की हम जूते के साथ कुर्सी मेज़ और गुलदान भी फ़ेंक रहे थे, क्योंकि तसलीमा का अपराध बुश से अधिक जघन्य था.
कोई बड़ी बात नहीं है की बुश के समर्थन में भी भारत में कोई बैठक हो जिसमें उनके जूते से बचने की फुर्ती का श्रेय जेम्स बांड की फिल्मों को दिया जाए. एक मिनट को सोचिये की यदि यह जूता बुश की बजाय अपने किसी बड़े नेता पर चला होता तो कैसा दृश्य होता. जूता हमारे मान्य मंत्री महोदय को मिस न कर पाता, शरीर के किसी न किसी भाग को तो छू ही जाता. हमारी पुरातन संस्कृति के विस्तार की ही भांति हमारे शरीरों का विस्तार भी दूर दूर तक है.. जूता खाने के बाद या तो मंत्री बेहोश हो जाता या फिर ऐसा आचरण करता की मानो कुछ हुआ ही न हो. यह मंत्री महोदय का पहला जूता न होता अतः उनके पास जूते से निपटने का प्लान पहले से तैयार होता. यदि चुनाव पास होते तो जूता मारने वाले को मंच पर बुला कर उसका स्वागत भी किया जा सकता था. अगले दिन समाचार पत्र में जूता मारने वाले के साथ गले में बाहें डाले मंत्री जी का चित्र छपता. आवश्यकता पड़ने पर जूता खाने के बाद एक जूता समिति का गठन होता जिसकी जांच लंबे समय तक चलती.
खैर, बुश के जूता खाने से सभी खुश हैं. जिन्होंने मारा वो इसलिए खुश हैं की देखो मारा, और बाकी इसलिए खुश हैं की देखो बच गए, लगा ही नहीं.
जब जूते की चर्चा चल ही रही है तो गुरु मन तो हमारा भी है कि चित्रकार एम् ऍफ़ हुसैन को दो जूते सम्मानपूर्वक धर दिए जाएँ. सुना है वो नंगे पैर रहते हैं, इस बहाने उनको जूते मिल भी जायेंगे और हमको भी तसल्ली हो जायेगी की हमने भी दिल की भड़ास निकाल ली. वैसे जूते से न तो बुश सुधरेंगे और न ही हुसैन.
अच्छी कोशिश थी, मगर चलो कोई बात नहीं, गैंडे की खाल पे, जूतों का असर क्या होगा.
सुबह उठे, सन्डे का दिन था, पत्नी बोली अपना कमरा साफ़ करो तुम, ऐसा लगता है मानो ये, किसी कबाडी का कमरा हो, या फिर मानो ग्रीन रूम हो, किसी पुराने से थिएटर का, मेरी चाचीजी कल घर आने वाली हैं, उनके आगे कह देती हूँ, सुन लो ये सब नहीं चलेगा, गृह मंत्री का उद्बोधन सुन, अलसाते से उठे, किताबें ज़रा समेटीं, कागज़ पत्तर हिला दुला कर, इस कोने से उन्हें उठा कर, उस कोने पर रखा और फिर, उन पर एक सुंदर सा डिब्बा, डिब्बे पर सुंदर सी चादर, चादर पर गुलदान सुनहरा, जिसमें नारंगी काग़ज़ के, सुंदर सुंदर फूल लगाये, ये कोना तो ठीक हो गया.
लेकिन अब ये अलमारी है, अलमारी क्या पूरी दुनिया बसी हुयी है, तरह तरह की इसमें चीज़ें ठुंसी हुयी हैं, चलूँ ज़रा इनको भी देखूं, अभी, पाँच बरस पहले ही तो इस अलमारी को साफ़ किया था,
अरे ये क्या! ये तो बहुत पुराना फ़ोन है मेरा, आन करुँ और देखूं इसको, मैंने दोनों फ़ोन उठाये, एक हाथ में नया फ़ोन, और एक हाथ में फ़ोन पुराना, एक एक कर मैंने दोनों फोनों के सब नंबर देखे, नए फ़ोन में जो नंबर हैं उनका मुझको अंदाजा है, कुछ नंबर हैं उनके जिनसे काम पड़ा था, कुछ नंबर हैं उनके जिनसे काम पड़ेगा, कुछ नंबर तो बड़े ही नामी और गिरामी लोगों के हैं, जिनका नंबर होने भर से फ़ोन की इज्ज़त बढ़ जाती है, कुछ उन कवियों के नंबर हैं, जिनको लगता है की मैं कोई आयोजक हूँ, और हैं कुछ उन कवियों के, जो मुझको आयोजक लगते हैं.
नंबर नंबर देख लिया है, नंबर के इस सागर में केवल, तीन चार नंबर ऐसे हैं, जो दोनों ही फोनों में हैं, एक मेरी पत्नी का नंबर, एक है माता और पिता का, एक मेरे छोटे भाई का, फ़ोन न हो तो ये नंबर भी दूर ही रहते, क्योंकि मुझको इनके नंबर याद नहीं हैं, मुझको ऐसा लगता है की, अब उनको भी, मेरा नंबर याद नहीं है.
मेरे पुराने फ़ोन के भीतर, बहुत दोस्तों के नंबर थे, दोस्त तो मेरे अपनों से ज़्यादा अपने थे, दोस्त वो जिनके साथ कभी देखे सपने थे, उनमें से तो एक भी नंबर, नए फ़ोन के पास नहीं है, शायद धीरे धीरे करके सबके नंबर बदल गए हों, कुछ कुछ मैं भी बदल गया हूँ, कुछ कुछ वो भी बदल गए हों.
मेरा पुराना फ़ोन नोकिया का था, सबसे सस्ता माडल, मेरे पास अब आई फ़ोन है,
चलूँ एक दो नंबर डायल कर के देखूं, शायद कोई फ़ोन उधर से उठ ही जाए, शायद कोई पहचाने और मुझे बताये, उसके नए फ़ोन में मेरा नंबर है क्या, उसने फ़ोन पुराना कभी टटोला है क्या, उसने भी क्या रिश्तों को रीचार्ज किया है, या उसने भी जीवन मेरी तरह जिया है.
भला लिखूं बुरा लिखूं, ये न सोचूं कि क्या लिखूं, उजालों को लिखूं दहशत, अंधेरों को ख़ुदा लिखूं,
बस इतनी सी तमन्ना है ज़रा सा काम हो जाए, बड़े कवियों की टोली में मेरा भी नाम हो जाए, लगें कविताएँ मेरी सारी कोरस की किताबों में, बहुत से पत्र आयें मेरी रचना के जवाबों में, मुझे कविता सुनानी है बड़े से मंच पे चढ़ कर, गले का हार लेना है ज़रा रुक कर ज़रा बढ़ कर, रहूं शामिल प्रपंचों और शब्दों की कुटाई में, मेरी तो जान अटकी है लिफाफे की मुटाई में, यदि मुझको मिले दौलत तो मैं ये काम भी कर दूं, करूं तेज़ाब शबनम को, ज़हर को ही दवा लिखूं, उजालों को लिखूं दहशत, अंधेरों को ख़ुदा लिखूं,
पढूं दिनकर को बच्चन को ज़रूरत क्या भला मुझको, शरद, परसाई का कूड़ा क्या देगा हौसला मुझको, अमां कोहली को पढ़ कर क्या मुझे श्री राम बनना है, पढूंगा सिर्फ़ वो जिससे की मेरा काम बनना है, अगर ग़लती हो छंदों में तो चलती है नया युग है, बहर टूटी भी गज़लों में मचलती है नया युग है, मेरे गीतों को फिल्मों में जगह मिल जाए जल्दी से, पुरुस्कारों की देवी भी इधर मुस्काय जल्दी से, इशारा तो करें सम्मान कोई मुझको देने का, लिखूं चालीसा नेताजी की, थु थू को वाह वा लिखूं, भला लिखूं बुरा लिखूं, ये न सोचूं कि क्या लिखूं, उजालों को लिखूं दहशत, अंधेरों को ख़ुदा लिखूं.
चाहे छुप कर करो धमाके, या गोली बरसा जाओ, हम हैं भेड़ बकरियों जैसे, जब जी चाहे खा जाओ,
किसको बुरा कहें हम आख़िर किसको भला कहेंगे, जितनी भी पीड़ा दोगे तुम सब चुपचाप सहेंगे, डर जायेंगे दो दिन को बस दो दिन घबरायेंगे, अपना केवल यही ठिकाना हम तो यहीं रहेंगे, तुम कश्मीर चाहते हो तो ले लो मेरे भाई, नाम राम का तुम्हें अवध में देगा नहीं दिखाई, शरियत का कानून चलाओ पूरी भारत भू पर, ले लो भरा खजाना अपना लूटो सभी कमाई, जय जिहाद कर भोले मासूमों का खून बहा जाओ, हम हैं भेड़ बकरियों जैसे, जब जी चाहे खा जाओ,
वंदे मातरम् जो बोले वो जीभ काट ली जाए, भारत को मां कहने वाले को फांसी हो जाए, बोली में जो संस्कृत के शब्द किसी के आयें, ज़ब्त कर संपत्ति उसकी तुरत बाँट ली जाए, जो जनेऊ को पहने वो हर महीने जुर्माना दे, तिलक लगाने वाला सबसे ज़्यादा हर्जाना दे, जो भी होटल शाकाहारी भोजन रखना चाहे, वो हर महीने थाने में जा कर के नजराना दे, मन भर के फरमान सुनाओ जीवन पर छा जाओ, हम हैं भेड़ बकरियों जैसे, जब जी चाहे खा जाओ,
यदि तुम्हें ये लगता हो हम पलट के वार करेंगे, लड़ने की खातिर तलवारों पर धार करेंगे, जो बेबात मरे हैं उनके खून का बदला लेंगे, अपने मन के संयम की अब सीमा पार करेंगे, मुआफ़ करो हमको भाई तुम ऐसा कुछ मत सोचो, तुम ही हो इस युग के नायक चाहे जिसे दबोचो, जब चाहो बम रखो नगरी नगरी आग लगाओ, असहाय सी गाय सा देश है इसको मारो नोचो, हिंदू सिख इसाई मुस्लिम दंगे भी भड़का जाओ, हम हैं भेड़ बकरियों जैसे, जब जी चाहे खा जाओ.
ज़रा हट कर है, 'इंडियन लाफ्टर' देखिये, आपसे क्या मतलब, आप बम फेंकिये, मुंबई को बना दीजिये बमबई, अरे, ये बगल से किसकी गोली गई, किसने चलाई, क्यों चलाई, किस पर चलाई, अमां छोडिये ये लीजिये दूध में एक्स्ट्रा मलाई, सुनिए, लता क्या सुंदर गाती है, ये किसके रोने की आवाज़ आती है, हम लगातार पाँच मैच जीते हैं, जो अपाहिज हुए हैं उनके दिन कैसे बीते हैं, लगता है होटल में आग लग गई है, बहुत सर्दी हो रही है हाथ सेंकिए, 'इंडियन लाफ्टर' देखिये.
आओ आकर जग को अपनी खुशबू से महकाओ तुम, मानवता के बाग़ में खिलते हुए पुष्प बन जाओ तुम, चित्र बनाओ बदल पर जीवन की सुन्दरताई के, रंग भरो कोमलता के, दृढ़ता के औ' सच्चाई के, सदा प्रतिष्ठा जनित तुम्हारी कीर्ति जगत में व्याप्त रहे, जो देवों को भी दुर्लभ स्थान वो तुमको प्राप्त रहे, हंसो और मुस्काओ खिलकर, खुलकर सबका मान करो, कभी घृणा न करो किसी से प्रेम, पुण्य, तप दान करो, देखो पलक बिछाए बैठी दुनिया तुमसे बोल रही, अथर्व तुम्हारा स्वागत है,
न तो मन मन में पीड़ा थी न तन तन में तबाही थी, ये दुनिया वैसी तो न है जैसी हमनें चाही थी, अभी बहुत से पोखर ताल शिकारे सूखे बैठे हैं, अभी बहुत से सूरज चाँद सितारे भूखे बैठे हैं, अभी बहुत सी नदियों में ज़हरीली नफरत बहती है, रहती है खामोश मगर ये धरा बहुत कुछ कहती है, देखो तुम भी देखो कट्टरता की शाखा बढ़ी हुयी, और तुम्हारे पिता की पीढी हाथ झाड़ कर खड़ी हुयी, शब्दों की थाली से तुमको तिलक लगाने को आतुर, अथर्व तुम्हारा स्वागत है,
रहो कहीं भी किसी देश में कोई भी भाषा बोलो तुम, किसी धर्म को चुनो किसी जीवन साथी के हो लो तुम, कोई भी व्यवसाय तुम्हारा हो कोई भी भोजन हो, किंतु हृदय में पावनता हो शुभ संकल्प प्रयोजन हो, देश तुम्हारा भेदभाव न करे न्याय का दाता हो, भाषा जिसमें झूम झूम कर जीवन गीत सुनाता हो, धर्म हो ऐसा जो सब धर्मों का समुचित सम्मान करे, जीवन साथी जीवन भर जीवन में सुख संचार करे, व्यवसाय हो सबके हित में भोजन सरल सरस सादा, अथर्व तुम्हारा स्वागत है.
ज़ाइद हमीद नमक ये पाकिस्तानी सज्जन खूब बक बक कर रहे हैं. भारत कैसे टूटेगा और हमारे देश की क्या बड़ी समस्यायें हैं ये हमसे अधिक इनको पता हैं. आप भी सुनिए और मज़ा लीजिये.
हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती स्वयंप्रभा समुज्ज्वाला स्वतंत्रता पुकारती 'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ- प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!'
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी ! अराति सैन्य सिंधु में ,सुबाड़वाग्नि से चलो, प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो !
कोई फर्क नहीं पड़ता है, मेरे कुछ लिखने से, या तुम्हारे कुछ पढ़ने से, बातें बनाने से, या गाने गाने से, दोस्ती की कसमें खाने से, या दुशमनी का ढोल बजाने से, फर्क पड़ता है, केवल कुछ कर दिखाने से, सकल पदार्थ हैं जग मांही, करमहीन नर पावत नाही. जै महाराष्ट्र, जै शिवाजी, जै भी कितना खतरनाक शब्द है.
प्रवीण शुक्ल जी से पहली बार मिलने का सुअवसर मुझे १९९९ में बरेली के संजय गाँधी सभागार में हुए कवि सम्मलेन में प्राप्त हुआ था. पहली बार ही उनकी रचनायें सुनकर बहुत अच्छा लगा. इतनी सरल भाषा में सीधी सीधी बात जो सीधे दिल में उतर जाए. अगली मुलाक़ात हैदराबाद में दो वर्ष बाद हुयी तो उनको सुनने का आनंद दुगना आया. सामान्यतः कवि अपनी वही कविताएँ हर मंच से पढता है, पर प्रवीण जी की हर कविता नई थी. फिर दो वर्ष बाद उनसे बंगलोर में भेंट हुयी तो एक बार फिर सब नई कविताएँ सुनने को मिलीं. एक के बाद एक उनकी लेखनी अच्छी कविताएँ लिख रही है और सबको सुना रही है.
उनकी गांधीगिरी पर लिखी हुयी पुस्तक भी इधर काफ़ी लोकप्रिय हुयी है. अभिव्यक्ति पर इसपर लिखा हुआ लेख आप यहाँ क्लिक कर के पढ़ सकते हैं.
आइये सुनें इस बहुआयामी प्रतिभासंपन्न व्यंगकार की एक कविता;
आज शिव सागर शर्मा जी की पानी और मुहावरों वाले छंद सुने. शिव सागर जी से मिलने का सुयोग अभी नहीं मिला है पर उनके छंद सुनकर कुछ अलग सा अनुभव हुआ.
मुहावरा: रस्सी जल गई पर बल नहीं गए
गागर है भारी, पानी खींचने से हारी, तू अकेली पनिहारी, बोल कौन ग्राम जायेगी, मैंने कहा, थक कर चूर है तू ला मैं, रसरी की करूं धरी कुछ विराम तो तू पाएगी, बोली जब खींच चुकी सोलह घट जीवन के, आठ हाथ रसरी पे कैसे थक जायेगी, मैंने कहा रसरी की सोहबत में पड़ चुकी तू, जल चाहे जायेगी ते ऐंठ नहीं जायेगी.
मुहावरा: अधजल गगरी छलकत जाए
घाम के सताए हुए, दूर से हैं आए हुए, घाट के बटोही को तू धीर तो बंधाएगी, चातक सी प्यास लिए, जीवन की आस लिए, आशा है तू एक लोटा पानी तो पिलाएगी, बोली ऋतू पावस में स्वाति बूँद पीना, ये पसीने की कमाई है, न यूँ लुटाई जायेगी, मैंने कहा पानी वाली होती तो पिला ही देती अधजल गागरी है छलकत जाएगी.
मुहावरा: चुल्लू भर पानी मैं डूब मरना
हारे थके राहगीर नें कहा नहाने के लिए, क्या तेरे पास होगा एक डोल पानी है, मार्ग की थकान से हुए हैं चूर चूर हमें, दूर से बता दे कहाँ कहाँ मिले पानी है, बोली घट में है पानी घूंघट में पानी, भीगी लट में है पानी जहाँ देखो वहां पानी है, पानी तो है लेकिन नहाने के लिए नहीं है डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी है.
न तो लंका जली, न तो रावण मरा, न ही अंगद नें पाँव, धरा पर धरा, न भलाई डटी, न बुराई हटी, पा गई दिव्यता, एक नई तलहटी, क्या पता, कब कहाँ, क्या फटे, क्या कटे, कर के सबको, बहुत भयभीत गया, लेओ....., एक और दशहरा बीत गया.
भाषा के जादूगर, गीतों के राजकुमार, कविवर श्री राकेश खंडेलवाल जी का काव्य संग्रह "अँधेरी रात का सूरज" छप कर आ गया है. ११ अक्तूबर को सीहोर तथा वॉशिंगटन में उसका विमोचन होना निर्धारित हुआ है. इस संग्रह की एक कमाल की बात तो यह है की राकेशजी को भी नहीं पता है की इसमें कौन कौन सी कविताएं हैं. पंकज सुबीर जी नें चुन चुन कर गीत समेटे हैं और शिवना प्रकाशन द्वारा संकलन छप कर तैयार हुआ है.
ऐसे दौर में जब कवि अपनी पाण्डुलिपि के साथ रुपए के बण्डल लिए प्रकाशकों के द्वार द्वार भटकता है, की भाई मेरी किताब छाप दो, यह संकलन इस बात को पुनर्स्थापित करता है की अच्छे लेखकों और कवियों का सम्मान करना अभी हमारी भाषा और संस्कृति भूली नहीं है. पंकजजी इसके लिए बधाई के पात्र हैं. राकेश जी गीतों के एक ऐसे महासागर हैं जो सदा एक से बढ़ कर एक मोती काव्य संसार को देते रहे हैं.
कभी कभी लगता है मानो इस संकलन नाम कितना सार्थक है, "अँधेरी रात का सूरज". ठंडी पड़ती संवेदनाओं की अँधेरी रात में राकेश जी अपनी रचनाओं से प्रकाश और गर्माहट दोनों का एहसास लेकर आते हैं तथा एक सूरज की भांति अंधेरे की आँखें चौंधिया कर उसे दूर भगा देते हैं.
आज आपको राकेशजी के काव्य पाठ के कुछ अंश दिखाते हैं. ये गीत २००६ में नियाग्रा फाल के निकट हुए कवि सम्मलेन का अंश है.
मेरे भेजे हुए संदेसे
तुमने कहा न तुम तक पहुँचे मेरे भेजे हुए संदेसे इसीलिये अबकी भेजा है मैंने पंजीकरण करा कर बरखा की बूँदों में अक्षर पिरो पिरो कर पत्र लिखा है कहा जलद से तुम्हें सुनाये द्वार तुम्हारे जाकर गा कर
अनजाने हरकारों से ही भेजे थे सन्देसे अब तक सोचा तुम तक पहुँचायेंगे द्वार तुम्हारे देकर दस्तक तुम्हें न मिले न ही वापिस लौटा कर वे मुझ तक लाये और तुम्हारे सिवा नैन की भाषा कोई पढ़ न पाये
अम्बर के कागज़ पर तारे ले लेकरके शब्द रचे हैं और निशा से कहा चितेरे पलक तुम्हारी स्वप्न सजाकर
मेघदूत की परिपाटी को मैने फिर जीवंत किया है सावन की हर इक बदली से इक नूतन अनुबन्ध किया है सन्देशों के समीकरण का पूरा है अनुपात बनाया जाँच तोल कर माप नाप कर फिर सन्देसा तुम्हें पठाया
ॠतुगन्धी समीर के अधरों से चुम्बन ले छाप लगाई ताकि न लाये आवारा सी कोई हवा उसको लौटाकर
गौरेय्या के पंख डायरी में जो तुमने संजो रखे हैं उन पर मैने लिख कर भेजा था संदेसा नाम तुम्हारे चंदन कलम डुबो गंधों में लिखीं शहद सी जो मनुहारें उनको मलयज दुहराती है अँगनाई में साँझ सकारे
मेरे संदेशों को रूपसि, नित्य भोर की प्रथम रश्मि के साथ सुनायेगा तुमको, यह आश्वासन दे गया दिवाकर
देवल आशीष की प्रशंसा शायद पहली बार मैंने डा उर्मिलेश से सुनी थी. लखनऊ में एक बार उनको सुनने का सौभाग्य भी मिला है, इधर यू ट्यूब पर उनको सुनने को मिला तो बड़ा अच्छा लगा. आप भी सुनिए.
विश्व को मोहमयी महिमा के असंख्य स्वरुप दिखा गया कान्हा, सारथी तो कभी प्रेमी बना तो कभी गुरु धर्म निभा गया कान्हा, रूप विराट धरा तो धरा तो धरा हर लोक पे छा गया कान्हा, रूप किया लघु तो इतना के यशोदा की गोद में आ गया कान्हा,
चोरी छुपे चढ़ बैठा अटारी पे चोरी से माखन खा गया कान्हा, गोपियों के कभी चीर चुराए कभी मटकी चटका गया कान्हा, घाघ था घोर बड़ा चितचोर था चोरी में नाम कमा गया कान्हा, मीरा के नैन की रैन की नींद और राधा का चैन चुरा गया कान्हा,
राधा नें त्याग का पंथ बुहारा तो पंथ पे फूल बिछा गया कान्हा, राधा नें प्रेम की आन निभाई तो आन का मान बढ़ा गया कान्हा, कान्हा के तेज को भा गई राधा के रूप को भा गया कान्हा, कान्हा को कान्हा बना गई राधा तो राधा को राधा बना गया कान्हा,
गोपियाँ गोकुल में थी अनेक परन्तु गोपाल को भा गई राधा, बाँध के पाश में नाग नथैया को काम विजेता बना गई राधा, काम विजेता को प्रेम प्रणेता को प्रेम पियूष पिला गई राधा, विश्व को नाच नाचता है जो उस श्याम को नाच नचा गई राधा,
त्यागियों में अनुरागियों में बडभागी थी नाम लिखा गई राधा, रंग में कान्हा के ऐसी रंगी रंग कान्हा के रंग नहा गई राधा, प्रेम है भक्ति से भी बढ़ के यह बात सभी को सिखा गई राधा, संत महंत तो ध्याया किए माखन चोर को पा गई राधा,
ब्याही न श्याम के संग न द्वारिका मथुरा मिथिला गई राधा, पायी न रुक्मिणी सा धन वैभव सम्पदा को ठुकरा गई राधा, किंतु उपाधि औ मान गोपाल की रानियों से बढ़ पा गई राधा, ज्ञानी बड़ी अभिमानी पटरानी को पानी पिला गई राधा,
हार के श्याम को जीत गई अनुराग का अर्थ बता गई राधा, पीर पे पीर सही पर प्रेम को शाश्वत कीर्ति दिला गई राधा, कान्हा को पा सकती थी प्रिया पर प्रीत की रीत निभा गई राधा, कृष्ण नें लाख कहा पर संग में न गई तो फिर न गई राधा.
हम कथा सुनाते राम सकल गुणधाम की, हम कथा सुनाते राम सकल गुणधाम की, ये रामायण है पुण्य कथा श्री राम की,
जम्बुद्वीपे, भरत खंडे. आर्यावर्ते, भारतवर्षे, इक नगरी है विख्यात अयोध्या नाम की, यही जन्म भूमि है परम पूज्य श्री राम की, हम कथा सुनाते राम सकल गुणधाम की, ये रामायण है पुण्य कथा श्री राम की, ये रामायण है पुण्य कथा श्री राम की,
रघुकुल के राजा धर्मात्मा, चक्रवर्ती दशरथ पुण्यात्मा, संतति हेतु यज्ञ करवाया, धर्म यज्ञ का शुभ फल पाया, नृप घर जन्मे चार कुमारा, रघुकुल दीप जगत आधारा, चारों भ्रातों के शुभ नामा, भरत, शत्रुघ्न, लक्ष्मण रामा,
गुरु वशिष्ठ के गुरुकुल जाके, अल्प काल विद्या सब पाके, पूरण हुयी शिक्षा, रघुवर पूरण काम की, हम कथा सुनाते राम सकल गुणधाम की, ये रामायण है पुण्य कथा श्री राम की,
मृदु स्वर, कोमल भावना, रोचक प्रस्तुति ढंग, इक इक कर वर्णन करें, लव कुश राम प्रसंग, विश्वामित्र महामुनि राई, तिनके संग चले दोउ भाई, कैसे राम ताड़का मारी, कैसे नाथ अहिल्या तारी,
मुनिवर विश्वामित्र तब, संग ले लक्ष्मण राम, सिया स्वयंवर देखने, पहुंचे मिथिला धाम,
जनकपुर उत्सव है भारी, जनकपुर उत्सव है भारी, अपने वर का चयन करेगी सीता सुकुमारी, जनकपुर उत्सव है भारी,
जनक राज का कठिन प्रण, सुनो सुनो सब कोई, जो तोडे शिव धनुष को, सो सीता पति होई,
को तोरी शिव धनुष कठोर, सबकी दृष्टि राम की ओर, राम विनय गुण के अवतार, गुरुवार की आज्ञा शिरधार, सहज भाव से शिव धनु तोड़ा, जनकसुता संग नाता जोड़ा, रघुवर जैसा और न कोई, सीता की समता नही होई, दोउ करें पराजित कांति कोटि रति काम की, हम कथा सुनाते राम सकल गुणधाम की, ये रामायण है पुण्य कथा सिया राम की,
सब पर शब्द मोहिनी डारी, मन्त्र मुग्ध भये सब नर नारी, यूँ दिन रैन जात हैं बीते, लव कुश नें सबके मन जीते,
सविस्तार सब कथा सुनाई, राजा राम भये रघुराई, राम राज आयो सुख दाई, सुख समृद्धि श्री घर घर आई,
काल चक्र नें घटना क्रम में ऐसा चक्र चलाया, राम सिया के जीवन में फिर घोर अँधेरा छाया,
अवध में ऐसा, ऐसा इक दिन आया, निष्कलंक सीता पे प्रजा नें मिथ्या दोष लगाया, अवध में ऐसा, ऐसा इक दिन आया,
चल दी सिया जब तोड़ कर सब नेह नाते मोह के, पाषण हृदयों में न अंगारे जगे विद्रोह के,
ममतामयी माँओं के आँचल भी सिमट कर रह गए, गुरुदेव ज्ञान और नीति के सागर भी घट कर रह गए,
न रघुकुल न रघुकुलनायक, कोई न सिय का हुआ सहायक,
मानवता को खो बैठे जब, सभ्य नगर के वासी, तब सीता को हुआ सहायक, वन का इक सन्यासी,
उन ऋषि परम उदार का वाल्मीकि शुभ नाम, सीता को आश्रय दिया ले आए निज धाम,
रघुकुल में कुलदीप जलाए, राम के दो सुत सिय नें जाए,
श्रोतागण, जो एक राजा की पुत्री है, एक राजा की पुत्रवधू है, और एक चक्रवर्ती राजा की पत्नी है, वही महारानी सीता वनवास के दुखों में अपने दिन कैसे काटती है. अपने कुल के गौरव और स्वाभिमान के रक्षा करते हुए, किसी से सहायता मांगे बिना कैसे अपना काम वो स्वयं करती है, स्वयं वन से लकड़ी काटती है, स्वयं अपना धान कूटती है, स्वयं अपनी चक्की पीसती है, और अपनी संतान को स्वावलंबी बनने की शिक्षा कैसे देती है अब उसकी एक करुण झांकी देखिये;
जनक दुलारी कुलवधू दशरथजी की, राजरानी होके दिन वन में बिताती है, रहते थे घेरे जिसे दास दासी आठों याम, दासी बनी अपनी उदासी को छिपती है, धरम प्रवीना सती, परम कुलीना, सब विधि दोष हीना जीना दुःख में सिखाती है, जगमाता हरिप्रिया लक्ष्मी स्वरूपा सिया, कूटती है धान, भोज स्वयं बनती है, कठिन कुल्हाडी लेके लकडियाँ काटती है, करम लिखे को पर काट नही पाती है, फूल भी उठाना भारी जिस सुकुमारी को था, दुःख भरे जीवन का बोझ वो उठाती है, अर्धांगिनी रघुवीर की वो धर धीर, भरती है नीर, नीर नैन में न लाती है, जिसकी प्रजा के अपवादों के कुचक्र में वो, पीसती है चाकी स्वाभिमान को बचाती है, पालती है बच्चों को वो कर्म योगिनी की भाँती, स्वाभिमानी, स्वावलंबी, सबल बनाती है, ऐसी सीता माता की परीक्षा लेते दुःख देते, निठुर नियति को दया भी नही आती है,
उस दुखिया के राज दुलारे, हम ही सुत श्री राम तिहारे, सीता मां की आँख के तारे, लव कुश हैं पितु नाम हमारे, हे पितु, भाग्य हमारे जागे, राम कथा कही राम के आगे.
------------------------------------------------------------------------------------पुनि पुनि कितनी हो कही सुनाई, हिय की प्यास बुझत न बुझाई, सीता राम चरित अतिपावन, मधुर सरस अरु अति मनभावन.
इधर हमको भगवान् श्री कृष्ण की नगरी वृन्दावन जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, बांके बिहारी जी के मन्दिर के बाहर कुछ भजन पुस्तिकाएं प्राप्त हुयीं. उनमें मेरे प्रिय गीत 'सावन का महीना' की तर्ज पर एक भजन भी मिला. वैसे तो फिल्मी गीतों की तर्ज़ पर भजनों में भक्ति भाव का आभाव और प्रदर्शन का आधिक्य होता है, पर ये अच्छा लगा.
'ये कविराज न जाने अपने आप को क्या समझता है, कविता एक भी नही है, बस लाफ्फज़ी कर लो, ऊट पटांग घिसे पिटे चुटकुले, *&%^^ *&^&* ^%$%^$%^ &^%&^%'
'ठीक कहते हैं और ये *&^*&$* राधेश्याम भी उसके जाल में फँस गया है, सुनते हैं की इस होली पर पूरा टूर बना रहे हैं, बस इनके लोग ही जायेंगे.'
'इनके लोग सब फ्राड हैं, &^%&^%&(%^, मेरा तो खून खौल उठता है, तुमने देखा कैसे साजिश कर के मुझे नीचा दिखाते हुए बुलाया, बस जो अपनी जी हुज़ूरी करे उसको जमाओ बाकी को उखाड़ दो, मैं देखता हूँ की अब मेरे कार्यक्रमों में ये कैसे आता है,'
'वैसे एक और बात बताएं, इन लोगों का जाल इधर बाहर भी फ़ैल रहा है, कम्पूटर पर भी बड़ी मार्केटिंग हो रही है, चोर कहीं के, ख़ुद से एक कविता तो लिखी नहीं जाती और हरकतें, मुर्गा, शराब, और भी न जाने क्या क्या, &^%&^%&(^%^& हवाई जहाज से आते जाते हैं, हुंह *^&*^&)*^&^%.'
(कविराज का प्रवेश...)
'आइये कविराज आइये, चरणों में प्रणाम स्वीकारिये, अभी अभी आप ही की प्रशंसा ही रही थी,'
'वाह भाई ये हुई न बात, इधर मैं भी राधेश्याम जी से आपकी स्तुति कर के आ रहा हूँ.'
'आज तो आपको सुनकर बहुत बढ़िया लगा, क्या अंदाज़ है आपका, सुन रहे हैं इधर टूर लग रहा है, भूल मत जाइयेगा अपने इस भक्त को.'
'अरे कैसी बात करते हैं, आप तो हमारे भाई हैं, आपको कहाँ भूल कर जायेंगे, वैसे टूर तो राधेश्याम करवा रहे हैं उनसे भी बात कर लीजियेगा.'
(...कुछ देर तक सन्नाटा, अब कोई बोले भी तो क्या. तभी राधेश्याम जी मंच से संचालन करते हुए कहते हैं,)
'माँ वीणावादिनी के चरणों में प्रणाम करते हुए, अब हम कवि सम्मेलन के दूसरे सत्र का प्रारम्भ करते हैं, माँ शारदा के सभी वरद पुत्रों से अनुरोध है की एक बार पुनः, मंच की शोभा बढ़ाने के लिए यहाँ आ जाएँ.'
मित्रों इधर एक युवा कवि की कवितायेँ सुनने का अवसर मिला. कवि सौरभ सुमन मेरठ में रहते हैं और वीर रस की रचनायें मंच पर पढ़ते हैं. इधर उनकी कविता 'वंदे मातरम' यू ट्यूब पर सुनने को मिली. उस कविता को आप इस पोस्ट के साथ लगे विडियो में सुन सकते हैं.
ये रहे कविता के शब्द,
मजहबी कागजो पे नया शोध देखिये। वन्दे मातरम का होता विरोध देखिये। देखिये जरा ये नई भाषाओ का व्याकरण। भारती के अपने ही बेटो का ये आचरण। वन्दे-मातरम नाही विषय है विवाद का। मजहबी द्वेष का न ओछे उन्माद का। वन्दे-मातरम पे ये कैसा प्रश्न-चिन्ह है। माँ को मान देने मे औलाद कैसे खिन्न है। मात भारती की वंदना है वन्दे-मातरम। बंकिम का स्वप्न कल्पना है वन्दे-मातरम। वन्दे-मातरम एक जलती मशाल है। सारे देश के ही स्वभीमान का सवाल है। आवाहन मंत्र है ये काल के कराल का। आइना है क्रांतिकारी लहरों के उछाल का। वन्दे-मातरम उठा आजादी के साज से। इसीलिए बडा है ये पूजा से नमाज से। भारत की आन-बान-शान वन्दे-मातरम। शहीदों के रक्त की जुबान वन्दे-मातरम। वन्दे-मातरम शोर्य गाथा है भगत की। मात भारती पे मिटने वाली शपथ की। अल्फ्रेड बाग़ की वो खूनी होली देखिये। शेखर के तन पे चली जो गोली देखिये। चीख-चीख रक्त की वो बूंदे हैं पुकारती। वन्दे-मातरम है मा भारती की आरती। वन्दे-मातरम के जो गाने के विरुद्ध हैं। पैदा होने वाली ऐसी नसले अशुद्ध हैं। आबरू वतन की जो आंकते हैं ख़ाक की। कैसे मान लें के वो हैं पीढ़ी अशफाक की। गीता ओ कुरान से न उनको है वास्ता। सत्ता के शिखर का वो गढ़ते हैं रास्ता। हिन्दू धर्म के ना अनुयायी इस्लाम के। बन सके हितैषी वो रहीम के ना राम के। गैरत हुज़ूर कही जाके सो गई है क्या। सत्ता मा की वंदना से बड़ी हो गई है क्या। देश ताज मजहबो के जो वशीभूत हैं। अपराधी हैं वो लोग ओछे हैं कपूत हैं। माथे पे लगा के मा के चरणों की ख़ाक जी। चढ़ गए हैं फंसियो पे लाखो अशफाक जी। वन्दे-मातरम कुर्बानियो का ज्वार है। वन्दे-मातरम जो ना गए वो गद्दार है।
इस आशा के साथ की आने वाले समय में उनसे अनेक सार्थक विषयों पर बढ़िया कवितायेँ सुनने को मिलेंगी सौरभ को अनेक शुभकामनाएं.
नोट: १. कवि सौरभ सुमन का ब्लॉग यहाँ क्लिक कर के देखा जा सकता है. २. मुझसे वीर रस के कवियों में, डा हरि ओम पंवार और डा वागीश दिनकर की कवितायेँ विशेष रूप से अच्छी लगती हैं. कमाल की बात है की दोनों मेरठ के ही आस पास के रहने वाले हैं. ऐसा लगता है की मेरठ की भूमि वीर रस के कवियों के लिए काफ़ी उर्वरक है. मेरा जन्म भी मेरठ में हुआ है अतः लगता है की अब कलम को कुछ वीर रस की उत्साहपूर्ण रचनाओं को लिखने के लिए प्रेरित करना चाहिए.
इधर कुछ दिनों पहले गीत सम्राट श्री राकेश खंडेलवाल हमारे अनुरोध पर सिएटल पधारे थे. उनके सम्मान में सिएटल में एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया था. उनकी यात्रा को एक चित्रावली के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास नीचे किया है. आप चाहें तो आप भी सिएटल भ्रमण का आनंद इन चित्रों के मध्यम से उठा सकते हैं.
'हे भगवान्, ये लो गई भैंस पानी में, अब आई आई टी और आई आई एम् में भी आरक्षण होगा.'
'हाँ, तो क्या, वहां पहले से ही आरक्षण है, केवल जो पढ़ लिख पाता है उसी को प्रवेश मिलता है, और एस सी, एस टी भी है.'
'वो भी ग़लत है, पढ़ाई में कैसा आरक्षण, और अगर देना भी है तो आर्थिक आधार होना चाहिए, जाति के आधार पर आरक्षण, राम राम, एक तरफ़ तो दावा की सब समान हैं और दूसरी ओर ये सब.'
'भारत को जानते भी हैं आप, लोहिया को पढिये जाकर, बैठ कर बातें बनाते हैं.'
'क्यों लोहिया को पढ़ लूंगा, तो क्या कॉल सेंटर वाले मेरे लड़के को नौकरी दे देंगे, फालतू बात करते हैं, अच्छा ये बताइए की अभी ही कितने आरक्षण वाले पास होकर निकल रहे हैं इनसे, ब्रांड इंडिया की ऐसी तैसी हो जायेगी, ये मुद्दा अबकी चुनाव में उठेगा ज़रूर, तब देखेंगे की आप क्या दलील देते हैं.'
'चुनाव में उठायेंगे, हा हा हा हा आपको टिकट कौन पार्टी देने जा रही है, मैडमजी, अटलजी, लालूजी या बहनजी, भाई हमारे देस में जो पिछडे हैं दलित हैं जनजाति वर्ग है, सबको आगे बढ़ने का बराबर हक मिलना चाहिए, ये नही की सब सवर्ण ही कुंडली मार कर बैठ गए.'
'ठीक है ठीक है, अब आपसे बहस में थोड़े ही न जीतेंगे, अच्छा छोडिये अपना एक लड़का कल इंटरव्यू दे रहा है, आप ही के कालेज में, ज़रा देख लीजियेगा.'
'क्या नाम है, कायस्थ है न.'
इस प्रकार एक बार फिर हमारे देश का एक ज्वलंत मुद्दा अपनी परिणति तक, पहुँचता पहुँचता रह गया.
इधर हमको दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में जाने का अवसर प्राप्त हुआ. वहां हिंद युग्म के मित्रों से मिलने का सुअवसर मिला. हमने 'पहला सुर' खरीदा तथा अपने ऍम पी ३ रिकॉर्डर में उनमें से कुछ महानुभावों के साक्षात्कार भी रेकॉर्ड कर लिए. हम तो औरों के भी करना चाहते थे पर दुकान बंद करने का समय हो चुका था और सुरक्षा विभाग के लोग अपनी सीटी बजाते हुए, डंडा फटकारते हुए 'हिंद युग्म' के स्टाल पर धरना प्रदर्शन करने लगे थे. आवाज़ कुछ बहुत बढ़िया नहीं आई है, कुछ रिकॉर्डर की कमी के कारण और कुछ मेरी अल्पज्ञता के कारण. अतः जो भी जैसा रेकॉर्ड हो सका है उसको आप तक अपने ब्लॉग द्वारा पहुँचने का प्रयास कर रहा हूँ. ये साक्षात्कार तथा कवितायेँ रेडियो सलाम नमस्ते के कवितांजलि कार्यक्रम में प्रसारित हो चुके हैं तथा इनको काफ़ी पसंद भी किया गया है.
पहली प्रस्तुति में आप रंजना रंजू जी, निखिल आनंद गिरी जी, सुनीता चोटिया जी, मनीष वंदेमातरम जी तथा शैलेश जी की कवितायेँ सुन सकते हैं.
और इस दूसरी प्रस्तुति में सुनते हैं की शैलेश भारतवासी जी अपने बारे में क्या क्या रहस्य की बातें बता रहे हैं.
पुस्तक मेले में सब लोगों से मिलना एक बड़ा अच्छा अनुभव रहा. बड़ी दूर तक स्मृतियों में अंकित रहेगा.
'ज़रा देखो तो, ये तिब्बत वाले कितना उछल रहे हैं, ज़रा ऊँगली पकडाओ तो पहुँचा पकड़ने के लिए जम्प करने लगते हैं.'
'क्यों भाई! तुम्हें पता भी है की चीन नें क्या किया है, या बस यूं ही सुबह सुबह मसाला मुंह में दबाया और चालू हो गए.'
'अरे कुछ किया हो चीन नें, हम तो ये जानते हैं की चीन से पंगा लेने का नहीं, वैसे भी कौन सा तिब्बत पर हमारा कब्ज़ा होने जा रहा है, बिना मतलब के बवाल में काहे टांग अटकानी.'
'कैसी बात करते हो, ग़लत चीज़ तो ग़लत ही होती है चाहे कोई भी करे.'
'हाँ यही तो मैं भी कह रहा हूँ, जैसे तसलीमा को भगाया है, लगता है वैसे ही अब दलाई लामा के जाने का नम्बर आ रहा है, अमाँ ये सब छोडो, ये बताओ पे कमीशन कब लागू करवा रहे हो, पीक बहुत बनती है मसाले में, पुच्च, पुच्च, थू, थू, थू, थू.'
और इस प्रकार हमारी पुण्य पावन भारत भूमि का एक और टुकडा लाल हो गया, कमाल हो गया.
'ऐ रिक्शा!, बड़े बाज़ार चलोगे' 'हाँ बाबूजी चलेंगे, क्यों नहीं चलेंगे.' 'कितने पैसे.' 'दो सवारी के बीस रुपए.' 'स्टेशन से बड़े बाज़ार तक के बीस रुपए, लूटोगे क्या भाई, अभी पिछले महीने तक तो पन्द्रह रुपए पड़ते थे, शहर में नया समझा है क्या.' 'नया काहे समझेंगे, इधर दाम बढ़ गए हैं, आटा, दाल, चीनी, तेल, सब्जी सबके दाम डबल हो गए हैं, देखिये हर चीज़ में आग लग गई है.' 'अरे! तो क्या हमसे निकालोगे सारा पैसा.' 'अजी सुनिए, आप क्यों बहस करते हैं, मैं कहती हूँ कि, ऑटो कर लेते हैं, तीस रुपए लेगा लेकिन जल्दी तो पहुँचा देगा.' 'अरे ऑटो! इधर आना.' 'बैठिये बाबूजी पन्द्रह ही दे दीजियेगा.' 'बड़ा ख़राब ज़माना आ गया है.' 'मैं कहती थी न, ये लोग ऐसे नही मानते हैं.' 'चलो बैठो.' रिक्शा चल पड़ता है, और तभी सड़क पर लगा भोंपू गाना बजाता है, 'बाकी कुछ बचा तो, महंगाई मार गई, महंगाई मार गई.'
ये लीजिये धीरे धीरे कर के हम भी शतकीय क्लब में शामिल हो रहे हैं. आज हमारी सौंवी पोस्ट के रूप में अपनी नई कविता 'पतलम मंत्र' प्रस्तुत कर रहे हैं. मुट्टम मंत्र पढ़ पढ़ कर हमारा वजन नित नई ऊँचाइयाँ तय करने लगा था. उसी को वापस अपनी सीमा में लाने का भाव मन में लिए हुए ये रचना लिखी है.
पतलम मंत्र
जाएँ जाकर देख लें धर्म ग्रन्थ और वेद, कोई न बतलायेगा मोटापे का भेद, मोटापे का भेद क्या साहब क्या चपरासी, फूली तोंद, मुक्ख पर चर्बी, खूब उबासी, सुधड़ देवियाँ देवों से जब ब्याह रचाएं, दो दिन में मोपेड से ट्रेक्टर बन जाएँ.
कद्दू आलू गबदू थुलथुल गैंडे भैंसे, संबोधन सुनने पड़ते हैं कैसे कैसे, कैसे कैसे संबोधन ये मोटा मोटी कहते सूख रही चादर जब धुले लंगोटी, अपमानों को पहचानो अब मेरे दद्दू, मन में ठानो कोई नहीं अब बोले कद्दू.
मोटे लोगों का सदा होता है उपहास, दुबले होते ही डबल होता है विश्वास, होता है विश्वास हृदय में अंतर्मन में, आती है वो पैंट जिसे पहना बचपन में, आयु में भी पाँच बरस लगते हैं छोटे, रहते हैं खुश लोग वही जो न हैं मोटे.
मोटू लाला ब्याह में गए तो सीना तान, जयमाला को भूल कर ढूंढ रहे पकवान, ढूंढ रहे पकवान वो रबडी भरी कटोरी, नाक कटा कर रख देती है जीभ चटोरी, तभी कैमरा वाले आकर ले गए फोटू, खड़े अकेले खाय रहे हैं लाला मोटू,
सोचो ये चर्बी नहीं बल्कि तुम्हारी सास, दूर भगाने हेतु इसको करो प्रयोजन खास, करो प्रयोजन खास लड़ाई की तैयारी, सास बहू में एक ही है सुख की अधिकारी, जीवन गाथा से आलस के पन्ने नोचो, हट जायेगी चर्बी अपने मन में सोचो.
जाकर सुबह सवेरे श्री रवि को करो प्रणाम, निस बासर जपते रहो राम देव का नाम, राम देव का नाम बड़े ही प्यारे बाबा, बिना स्वास्थ्य के आख़िर कैसा काशी काबा, प्राणायाम करो हंसकर गाकर मुस्का कर, रोज़ शाम को पति पत्नी संग टेह्लो जाकर.
आगे बढ़ती जाएँ ये प्रतिपल बोझ उठाये, इनकी ऐसी स्तिथि अब देखी न जाए, अब देखी न जाए न कुछ भी हमसे मांगें, वजन घटाओ देंगी दुआएं अपनी टाँगें, मान लो यदि कभी जो कुत्ता पीछे भागे, हलके फुल्के रहे तो ये ही होंगी आगे.
हम दुबले हो जाएँ तो रिक्शा न घबराए, ऑटो अपनी सीट पे दो की चार बिठाए, दो की चार बिठाए कभी न आफत बोये, सुंदर कन्या चित्र हमारा लेकर सोये, यदि ऐसा हो जाए तो फिर काहे का ग़म, मैराथन भी दौडेंगे चार दिनों में हम.
करेंगे अब क्या भला लल्लू लाल सुजान, दुबले हैं हिर्तीक और दुबले शाहरुख़ खान, दुबले शाहरुख़ खान पेट की मसल दिखायें, उसी उमर के चच्चा अपना बदन फुलाएं, वह भी दुबले होकर के रोमांस करेंगे, शर्ट उतारेंगे फिर डिस्को डांस करेंगे.
आए फ़ोन से फ़ूड और बैठे बैठे काम, टीवी आगे जीमना क्या होगा अंजाम, क्या होगा अंजाम बात निज लाभ की जानो, देता पतलम मंत्र तुम्हें इसको पहचानो, कह अभिनव कविराय जो इसको मन से गाए, चार दिनों में हेल्थी वेट लिमिट में आए.
कुछ साल पहले न्यूयार्क में एक बड़ी संस्था द्वारा एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। भारत से भी कुछ कवि बुलाए गए। हम तब तक नौकरी के सिलसिले में सिएटल पहुँच चुके थे। आयोजक महोदय नें हमको भी फोन किया तथा कार्यक्रम में भागीदारी करने का निवेदन किया, दो दिन में हवाई टिकट भी हमारे पास पहुँच गए। तो कुल हिसाब ये कि हम भी अपनी टूटी फूटी कविताओं की गठरी लेकर, भारतीय परिधान धारण कर, तीन टाईम ज़ोन पार करते हुए, कवि सम्मेलन के सभागार में पहुँच गए। सभागार में ढेर सारे सजे संवरे सुंदर लोग कविताओं का आनंद लेने आ चुके थे। कवि भी तैयार थे। तभी आयोजक महोदय हमारे पास आए और बोले कि, "भाई अभिनवजी, आप बस लोगों को हंसा दीजिएगा, केवल चुटकुले और हंसी की बातें ही कीजिएगा। कृपया कोई गंभीर रचना मत सुनाईएगा, यहाँ कोई समझेगा नहीं।"
हमने उनसे कहा कि, "हम हास्य कविताएँ भी पढ़ेंगे तथा सामयिक गंभीर रचनाएँ भी। अभी मुंबई में ब्लास्ट हुए हैं जिसका सहारा लेकर, हमारे कवि परिवार के रत्न श्री श्याम ज्वालामुखी बैकुण्ठ लोक में श्री हरि को कविता सुनाने के लिए चले गए हैं। मेरी काव्य चेतना मुझे इस आतंकवाद पर कविता पढ़ने को कह रही है। तथा इस विषय पर कविता सुनकर लोग हंसेंगे नहीं, अपितु उनकी मुट्ठियाँ अवश्य भिंच जाएँगी।" खैर, राम जाने कि वे हमारी बात समझे या नहीं, परंतु फिर बढ़िया कवि सम्मेलन हुआ और श्रोताओं की अति उत्तम प्रतिक्रिया आई।
इस बात की चर्चा जब मैंने अपने एक अग्रज कवि से करी तो वे बोले कि आयोजक महोदय ठीक ही तो कह रहे थे। हास्य कवि सम्मेलन में कविता सुनने कौन जाता है। उनकी झोली में ऐसे अनेक संस्मरण थे जिसमें उन्हें चाह कर भी अपनी मनपसंद कविता न सुनाते हुए चुटकुले सुनाने के लिए कहा गया था। इधर जब सिनसिनाटी से रेनू गुप्ता जी नें हास्य कवि सम्मेलनों पर आलेख लिखने का अनुरोध किया, तब मन में यह उधेड़बुन चलने लगी कि क्या लिखूँ। एक बार को लगा कि हास्य कवि सम्मेलनों में प्रयोग होने वाले ग्लोबल चुटकुलों की एक लिस्ट तैयार कर दी जाए। पर यह काम अशोक चक्रधर जी अपनी पुस्तक मंच मचान में पहले ही कर चुके हैं। फिर लगा कि शुरू से आज तक के सभी हास्य कवियों की जीवनी लिखी जाए, पर उसमें ध्यान कविता के स्थान पर कवि के जीवन में घटने वाली घटनाओं पर भटक जाता। अतः यह दोनों विचार भविष्य हेतु स्थगित करते हुए हास्य कवि सम्मेलनों के विषय में मेरे जो नितांत व्यक्तिगत विचार हैं उन्हें लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।
कविता में हास्य की परंपरा बहुत पुरानी है। रामचरितमानस में अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनको पढ़ते पढ़ते स्वतः ही मुख पर मुस्कान छा जाती है तथा कई जगह तो ये मुस्कान हंसी में भी बदल जाती है। लक्ष्मण परशुराम संवाद हो चाहे अंगद रावण संवाद एक स्मित हास्य का बैकग्राउंड म्यूज़िक बजता ही रहता है। तुलसीदास जी के बाद के अनेक कवियों नें हास्य रचनाएँ लिखीं। गिरिधर कविराय की सहज कुण्डलिया सुनकर आप हंसे बिना नहीं रह सकते। भारतेन्दु के हास्य प्रहसन भी बड़े प्रसिद्ध हुए। यदि हम पिछले तीस चालीस वर्षों की बात करें तो इसमें अनेक हास्य कवियों नें अपनी लेखनी से आनंददायी छटा बिखेरी है।
मंचों पर प्रयुक्त होने वाली हास्य टिप्पणियों को अशोक चक्रधर नें अपनी पुस्तक मंच मचान में भली प्रकार से समेटा है. यदि कोई यही एक पुस्तक दो चार बार मन से पढ़ ले तो बिना किसी कविता के भी आधा एक घंटा मंच पर खड़ा होकर बोल सकता है तथा तालियों की गूँज सुन सकता है.
कवि सम्मेलनों के मंच पर हास्य रस को प्रतिष्ठित करने में काका हाथरसी का विशेष योगदान रहा है. काका की रचनाओं में जो मासूमियत होती थी वो श्रोताओं को खिलखिलाने पर मजबूर कर देती थी.
देवी जी कहने लगीं, कर घूँघट की आड़ हमको दिखलाए नहीं, तुमने कभी पहाड़ तुमने कभी पहाड़, हाय तकदीर हमारी इससे तो अच्छा, मैं नर होती, तुम नारी कहँ ‘काका’ कविराय, जोश तब हमको आया मानचित्र भारत का लाकर उन्हें दिखाया
देखो इसमें ध्यान से, हल हो गया सवाल यह शिमला, यह मसूरी, यह है नैनीताल यह है नैनीताल, कहो घर बैठे-बैठे- दिखला दिए पहाड़, बहादुर हैं हम कैसे ? कहँ ‘काका’ कवि, चाय पिओ औ’ बिस्कुट कुतरो पहाड़ क्या हैं, उतरो, चढ़ो, चढ़ो, फिर उतरो
हास्य कविता को कवि सम्मेलनों की लोकप्रियता के एक मापक के रूप में स्थापित किया "चार लाइना" सुना सुना कर, गंभीर मुख मुद्रा धरी सुरेन्द्र शर्मा नें. सुरेन्द्र शर्मा की कवितायेँ बिल्कुल सरल आम बोलचाल की भाषा में राजस्थान की महक समेटे हर ओर हास्य का प्रसार करती रहती है. इधर पिछले कुछ समय से सुरेन्द्र शर्मा अपनी गंभीर रचनायें भी मंच से पढने लगे हैं पर श्रोताओं की इच्छा सदा उनसे उनकी हास्य रचनायें सुनने की ही रही है.
कविवर ओमप्रकाश आदित्य जब हास्य को छंद में बंद कर मंच से पढ़ते हैं तो एक अलग अनुभूति होती है, जब अल्हड़ बीकानेरी अपनी सुरीली आवाज़ में हास्य रचना पढ़ते हैं तो वो सीधे दिल में उतर जाती है. माणिक वर्मा के व्यंग, प्रदीप चौबे के रंग, शैल चतुर्वेदी की चलती हुयी आँख, कैलाश गौतम जी की गंवई साख, हुल्लड़ के दुमदार दोहे, सुरेश अवस्थी के बच्चों से संवाद, सुरेन्द्र सुकुमार के वाद विवाद, के पी सक्सेना की ज़बरदस्त कविताई तथा सुरेन्द्र दुबे की कक्षा में पढ़ाई किए बिना हास्य कविता का अध्याय समाप्त नही हो सकता है.
इधर इंडियन लाफ्टर चैलेन्ज नमक प्रतियोगिता में भी हमारे कुछ हास्य कवियों नें अपनी प्रतिभा का लोहा सबसे मनवाया है. एहसान कुरैशी, गौरव शर्मा, प्रताप फौजदार नें अपनी चटपटी बातों से इस कार्यक्रम को सफल बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है. अशोक चक्रधर नें भी अपने कार्यक्रम वाह वाह के द्वारा कई हास्य कवियों और श्रोताओं के मध्य कड़ी बनने का काम किया है. टिपिकल हैदराबादी, दीपक गुप्ता, मधुमोहिनी उपाध्याय, प्रभा किरण जैन, नीरज पुरी, ओम व्यास समेत अनेक प्रतिभाओं को इस कार्यक्रम में सुनना एक अच्छा अनुभव रहा.
युवा पीढ़ी में अनेक अच्छे हास्य कवि अपनी रचनाओं की खुशबू से मंचों को महका रहे हैं. दिल्ली में रहने वाले प्रवीण शुक्ला जब अपनी बोतल में से जिन्न को निकाल कर उससे भ्रष्टाचार दूर करने को कहते हैं तब हास्य और व्यंग की एक सुंदर रचना हमारे सामने आती है. दिल्ली के ही सुनील जोगी जब गा गा कर अपनी हास्य कवितायेँ पढ़ते हैं तो माहौल खुशनुमा हो जाता है. गजेन्द्र सोलंकी (दिल्ली), राजेश चेतन (दिल्ली), रसिक गुप्ता (दिल्ली), सरदार मंजीत सिंह, अरुण जेमिनी (दिल्ली), महेंद्र अजनबी (दिल्ली), दिनेश बावरा (मुम्बई), हरजीत सिंह तुकतुक (मुम्बई), लखनऊ में रहने वाले सर्वेश अस्थाना, सूर्य कुमार पाण्डेय, जमना प्रसाद उपाध्याय (फैजाबाद), महेश दुबे (मुम्बई), देवेन्द्र शुक्ला (कैलिफोर्निया), बिन्देश्वरी अग्रवाल (न्यूयार्क), राकेश खंडेलवाल (वॉशिंगटन डी सी), अर्चना पांडा (फ्रीमोंट), नीरज त्रिपाठी (हैदराबाद), डा आदित्य शुक्ला (बंगलौर), दीपक गुप्ता (फरीदपुर), मधुप पाण्डेय (नागपुर),सुनीता चोटिया (दिल्ली), निखिल आनंद गिरी (दिल्ली) भी बढ़िया हास्य कवितायेँ लिख रहे हैं तथा मंच पर पूरी ठसक के साथ पढ़ रहे हैं. बात चूंकि कवि सम्मेलनों में हास्य रस की रचनाओं की है अतः कुछ नाम जो स्वतः मन में आए लिख दिए हैं. ऐसे अनेक नाम हैं जो मेरी अल्पज्ञता एवं अज्ञान के कारण इस सूची में नहीं हैं परन्तु जो की बहुत श्रेष्ठ और सच्चे हास्य कवि हैं.
यह कवि की ज़िम्मेदारी है कि वह किस प्रकार श्रोताओं के मानस में प्रवेश करे और आनंद सागर में सबको गोते लगवाए. लेख के अंत में उस नए हास्य कवि कि कुछ पंक्तियाँ प्रेषित कर रहा हूँ जिसने ये लेख लिखा है.
लेना हो जो बूँद बूँद स्वाद तुम्हें भोजन का, भिंडी तन्तु दांत में भी फँसना ज़रूरी है, इंटरनेट पे ही हुए प्रेमियों के फंदे फिट, प्रेमिका कि गली में क्या बसना ज़रूरी है, नीचे को सरकती हो बार बार पतलून, नाड़ा हो पाजामे में तो कसना ज़रूरी है, अभिनव शुक्ल कहें रक्त के बढ़ाने हेतु, दिल खोल आदमी का हँसना ज़रूरी है, --------------------------------------------- कवि सम्मेलन से संबंधित कुछ जालघरों के पते; १. hasyakavisammelan.com २. kavisammelan.org ३. kavisangam.com ४. kaviabhinav.com
मुझे याद है, जब लातूर में भूकंप आया था, हम बिहार में रहते थे, माँ नें उस दिन खाना नही बनाया था, पिताजी नें एक महीने की तनख्वाह, राहत कार्यों हेतु प्रदान करी थी, मैंने ख़ुद दोस्तों के साथ, दुकान दुकान जा कर इकठ्ठा किए थे पैसे, मेरे घर में ही कहर टूटा हो जैसे, और आज मैं मुम्बई के प्लेटफार्म पर, पिटा हुआ पड़ा हूँ, किसलिए, ये मत सोचियेगा की एहसान गिना रहा हूँ, मैं तो दुखी हूँ उनसे, जो अपने को शिवाजी का रिश्तेदार बताते हैं, मेरी संस्कृति पर अधिकार जताते हैं, मैं पिट गया, कोई बात नही, घर पर भी जब कभी, छोटे भाई से झगड़ता हूँ, पिताजी पीट ही देते हैं, दो दिन में वो मार भूल भी जाता हूँ, धीरे धीरे शरीर के ज़ख्म भर जायेंगे, ये मार भी भूल जाऊँगा, लेकिन इस बार तो मैंने किसी से कोई झगडा नही किया, फिर भी, आख़िर क्यों? वैसे लातूर महाराष्ट्र में ही है न.
राकेश खंडेलवाल जी का "सम्बोधन पर आकर अटकी" गीत पढने के बाद हमने भी एक पत्र लिखने का प्रयास किया और बात संबोधन पर अटक गई.. आप भी सुन लीजिये,
कलम उठाई लिखने बैठा पत्र तुम्हे में पूरे मन से, सोच रहा हूँ शुरू करूं इसको आख़िर किस संबोधन से,
लिखूं क्षुब्ध अरमानों की अर्थी पर बिखरे फूलों वाली, या अभिमानों को भर कर अपमानित करती भूलों वाली, घन घमंड परिपूर्ण नित्य रहती जो लड़ने को आतुर, सुरसा लिखूं या लिखूं हिडिम्बा खतरनाक शूलों वाली,
मैंने निर्मल प्रेम दिया था तुमको पावन गंगा सा, भावों की संचित पूँजी को तौल रही काग़ज़ के धन से, कलम उठाई लिखने बैठा पत्र तुम्हे में पूरे मन से, सोच रहा हूँ शुरू करूं इसको आख़िर किस संबोधन से,
कहूं मैं गीतों का विराम या ह्रदय भेदती फाँस कोई, न निगली न उगली जाती कंठ में अटकी साँस कोई, पग पग पर पीड़ा देने का जिसने हो संकल्प लिया, या सम्मुख इस जग के चलता सस्ता सा उपहास कोई,
तुमको कह सकता हूँ अपनी धैर्य परीक्षा का साधन, जिसमें बस कांटे उगते हों उपमा दूँ या उस उपवन से, कलम उठाई लिखने बैठा पत्र तुम्हे में पूरे मन से, सोच रहा हूँ शुरू करूं इसको आख़िर किस संबोधन से,
सुप्रसिद्ध गीतकार कवि श्री राकेश खंडेलवाल जी नें सिएटल नगरी को अपने सुमधुर गीतों से महकने का हमारा सविनय निवेदन स्वीकार कर लिया है. वे १२ जनवरी के दिन सिएटल में होंगे. इस अवसर पर एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है. आप सादर आमंत्रित हैं.
तिथि: १२ जनवरी २००८ समय : दोपहर २ बजे से शाम ६ बजे तक (पैसेफिक समयानुसार) स्थान: 1000, 8th Ave, Apt#1-0607, Seattle, WA - 98104 (अभिनव का निवास) दूरभाष: २०६-६९४-३३५३
नोट: १. यदि आप इस कार्यक्रम को लाइव सुनना चाहते हैं तो कार्यक्रम के समय गूगल टाक पर लोग इन कर "kaviabhinav@gmail.com" को कॉल कर सकते हैं. २. राकेश जी के कुछ गीत नीचे दिए हुए लिंक्स पर पढे जा सकते हैं.
Famous poet, Shri Rakesh Khandelwal has accepted our humble invitation of mesmerizing Seattle with his poetic gems. He will be in Seattle on 12-Jan-2008. We are organizing a kavya gosthi on this occasion and would like to invite you for the same.
To listen this Program live, please call "kaviabhinav@gmail.com" using google talk.
You can read some of his beautiful compositions at the links below, http://www.geetkalash.blogspot.com/ http://www.anubhuti-hindi.org/dishantar/r/rakesh_khandelwal/index.htm
Abhinav Shukla is recognized as a talented Hindi poet who transforms our hectic lifestyles to humor and happiness with his simple words and brilliance of presentation. Abhinav’s thoughtful poems on the latest national and international issues have attracted the attention of critics and media in the past. He was the co-editor of famous literary magazine “Hindi Chetna” for about 10 years. He has appeared on several television and radio shows in India & abroad and has participated in poetic tours across multiple nations. He has been felicitated for his poetry by more than 100 reputed organizations across US, Canada and India. He has spent a fair part of his life in Lucknow, attributing his poetic talents to this city. He earned his Bachelor's degree in Technology from Rohilkhand University, Bareilly. He did his Masters from BITS, Pilani. He is working as a Director of Engineering in an education system based firm in Folsom CA.