पुनः प्रेषित
दो दिन पहले सूचना मिली कि मेजर गौतम राजरिशी को गोलियां लगी हैं. आदरणीय पंकज सुबीर जी (गुरुदेव) से बात हुयी तो उन्होंने बताया कि पाकिस्तान से कुछ लोग अपनी बंदूकों पर हमारी सांस्कृतिक एकता का बिगुल बजाते, तथा अपने बमों पर सूफियाना कलाम गाते हमारे साथ अमन की इच्छा लिए भारत आना चाहते थे. उन्हीं के स्वागत सत्कार में मेजर साहब को गोलियां लगी हैं. वे अब खतरे से बाहर हैं. मेजर साहब एक अच्छा सैनिक होने के साथ साथ एक बहुत बढ़िया कवि भी हैं. इसी नाते उनसे मेल पर और टिप्पणियों के ज़रिये बातचीत भी हुयी है तथा कहीं न कहीं एक सम्बन्ध भी बन गया है. इस घटना नें बड़ा विचलित किया हुआ है. मेजर गौतम एक सच्चे योद्धा हैं तथा मुझे पूरा विश्वास है कि वे शीघ्र पूर्णतः स्वास्थ्य हो जायेंगे. मेरी और मेरे जैसे हजारों लोगों कि शुभकामनाएं उनके साथ हैं. ये समाचार लगबघ प्रतिदिन हाशिये पर आता था की मुठभेड़ हुयी, इतने जवान ज़ख्मी हुए. पर आज जब मेजर गौतम को गोली लगी है तो पहली बार एहसास हुआ है कि जब किसी अपने को चोट लगती है तो कैसा दर्द होता है. और जो दूसरी बात महसूस हुयी है वह ये कि क्या हमारी संवेदनाएं केवल उनके लिए होती हैं जिनसे हम परिचित होते हैं. तथा हमारे देश के जो सैनिक अपनी जान हथेली पर लिए रात दिन हमारी सुरक्षा में तत्पर रहते हैं उनके प्रति हमारा क्या दायित्व है. एक और बात यह भी कि अपने प्रिय पड़ोसी के साथ कब तक हम प्रेम कि झूठी आस लगाये बैठे रहेंगे. वो हमारे यहाँ बम विस्फोट करवा रहे हैं, हम उनके हास्य कलाकारों से चुटकुले सुन रहे हैं. वो हमारे यहाँ अपने आतंकियों को भेज रहे हैं, हम उनके साथ क्रिकेट खेलने के लिए बेताब हैं. वे हमारे यहाँ नकली नोटों की तस्करी करवा रहे हैं और हम उनके संगीत की धुनों पर नाच रहे हैं. वो हमारी भूमि पर अपना दावा ठोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं और हम उनको मेरा भाई मेरा भाई कह कर गले लगाते नहीं थक रहे. ये जो विरोधाभास है ये जानलेवा है. क्या हम एक देश हैं, क्या हम एक आवाज़ में अपने शत्रुओं का विरोध कर सकते हैं. इसी सब उधेड़ बुन में कुछ छंद बहते बहते मानस के पटल पर आ गए हैं जिनको आपके साथ बाँट रहा हूँ.
सिंह के हाथों में देश की कमान है मगर,
लगता है फैसले किये हैं भीगी बिल्ली नें,
उनका है प्रण हमें जड़ से मिटाना, हम,
कहते हैं प्यार दिया क्रिकेट की गिल्ली नें,
यहाँ वीर गोलियों पे गोलियां हैं खाय रहे,
मीडिया दिखाती स्वयंवर किया लिल्ली नें,
जब जब विजय का महल बनाया भव्य,
तब तब तोड़ा उसे मरगिल्ली दिल्ली नें,
हृदय में भावना का सागर समेटे हुए,
ग़ज़ल के गाँव का बड़ा किसान हो गया,
हाथ में उठा के बन्दूक भी लड़ा जो वीर,
शत्रुओं के लिए काल घमासान हो गया,
प्रार्थना है शीघ्र स्वस्थ होके आनंद करे,
मेजर हमारा गौतम महान हो गया,
भारत के भाल निज रक्त से तिलक कर,
राजरिशी राष्ट्र के ऋषि सामान हो गया.
हाथ में तिरंगा लिए बढ़ते रहे जो सदा,
कदमों के अमिट निशान को प्रणाम है,
राष्ट्रहित में जो निज शोणित बहाय रहा,
मात भारती के वरदान को प्रणाम है,
दैत्यों को देश कि सीमाओं पर रोक दिया,
वीरता की पुण्य पहचान को प्रणाम है,
करुँ न करुँ मैं भगवान् को नमन किन्तु,
गोलियों से जूझते जवान को प्रणाम है.
जय हिंद!
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मेजर साहब को समर्पित कुछ छंद
Sep 29, 2009प्रेषक: अभिनव @ 9/29/2009 1 प्रतिक्रियाएं
Labels: कविताएं
मेजर साहब को समर्पित कुछ छंद
Sep 28, 2009दो दिन पहले सूचना मिली कि मेजर गौतम राजरिशी को गोलियां लगी हैं. आदरणीय पंकज सुबीर जी (गुरुदेव) से बात हुयी तो उन्होंने बताया कि पाकिस्तान से कुछ लोग अपनी बंदूकों पर हमारी सांस्कृतिक एकता का बिगुल बजाते, तथा अपने बमों पर सूफियाना कलाम गाते हमारे साथ अमन की इच्छा लिए भारत आना चाहते थे. उन्हीं के स्वागत सत्कार में मेजर साहब को गोलियां लगी हैं. वे अब खतरे से बाहर हैं. मेजर साहब एक अच्छा सैनिक होने के साथ साथ एक बहुत बढ़िया कवि भी हैं. इसी नाते उनसे मेल पर और टिप्पणियों के ज़रिये बातचीत भी हुयी है तथा कहीं न कहीं एक सम्बन्ध भी बन गया है. इस घटना नें बड़ा विचलित किया हुआ है. मेजर गौतम एक सच्चे योद्धा हैं तथा मुझे पूरा विश्वास है कि वे शीघ्र पूर्णतः स्वास्थ्य हो जायेंगे. मेरी और मेरे जैसे हजारों लोगों कि शुभकामनाएं उनके साथ हैं. ये समाचार लगबघ प्रतिदिन हाशिये पर आता था की मुठभेड़ हुयी, इतने जवान ज़ख्मी हुए. पर आज जब मेजर गौतम को गोली लगी है तो पहली बार एहसास हुआ है कि जब किसी अपने को चोट लगती है तो कैसा दर्द होता है. और जो दूसरी बात महसूस हुयी है वह ये कि क्या हमारी संवेदनाएं केवल उनके लिए होती हैं जिनसे हम परिचित होते हैं. तथा हमारे देश के जो सैनिक अपनी जान हथेली पर लिए रात दिन हमारी सुरक्षा में तत्पर रहते हैं उनके प्रति हमारा क्या दायित्व है. एक और बात यह भी कि अपने प्रिय पड़ोसी के साथ कब तक हम प्रेम कि झूठी आस लगाये बैठे रहेंगे. वो हमारे यहाँ बम विस्फोट करवा रहे हैं, हम उनके हास्य कलाकारों से चुटकुले सुन रहे हैं. वो हमारे यहाँ अपने आतंकियों को भेज रहे हैं, हम उनके साथ क्रिकेट खेलने के लिए बेताब हैं. वे हमारे यहाँ नकली नोटों की तस्करी करवा रहे हैं और हम उनके संगीत की धुनों पर नाच रहे हैं. वो हमारी भूमि पर अपना दावा ठोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं और हम उनको मेरा भाई मेरा भाई कह कर गले लगाते नहीं थक रहे. ये जो विरोधाभास है ये जानलेवा है. क्या हम एक देश हैं, क्या हम एक आवाज़ में अपने शत्रुओं का विरोध कर सकते हैं. इसी सब उधेड़ बुन में कुछ छंद बहते बहते मानस के पटल पर आ गए हैं जिनको आपके साथ बाँट रहा हूँ.
सिंह के हाथों में देश की कमान है मगर,
लगता है फैसले किये हैं भीगी बिल्ली नें,
उनका है प्रण हमें जड़ से मिटाना, हम,
कहते हैं प्यार दिया क्रिकेट की गिल्ली नें,
यहाँ वीर गोलियों पे गोलियां हैं खाय रहे,
मीडिया दिखाती स्वयंवर किया लिल्ली नें,
जब जब विजय का महल बनाया भव्य,
तब तब तोड़ा उसे मरगिल्ली दिल्ली नें,
हृदय में भावना का सागर समेटे हुए,
ग़ज़ल के गाँव का बड़ा किसान हो गया,
हाथ में उठा के बन्दूक भी लड़ा जो वीर,
शत्रुओं के लिए काल घमासान हो गया,
प्रार्थना है शीघ्र स्वस्थ होके आनंद करे,
मेजर हमारा गौतम महान हो गया,
भारत के भाल निज रक्त से तिलक कर,
राजरिशी राष्ट्र के ऋषि सामान हो गया.
हाथ में तिरंगा लिए बढ़ते रहे जो सदा,
कदमों के अमिट निशान को प्रणाम है,
राष्ट्रहित में जो निज शोणित बहाय रहा,
मात भारती के वरदान को प्रणाम है,
दैत्यों को देश कि सीमाओं पर रोक दिया,
वीरता की पुण्य पहचान को प्रणाम है,
करुँ न करुँ मैं भगवान् को नमन किन्तु,
गोलियों से जूझते जवान को प्रणाम है.
जय हिंद!
प्रेषक: अभिनव @ 9/28/2009 3 प्रतिक्रियाएं
'हैप्पी हिंदी डे'
Sep 15, 2009आई है ये शुभ घड़ी एक साल के बाद,
एक साल के बाद चलो कुछ हिंदी कर लें,
भाषा को कर चार्ज बैटरी अपनी भर लें,
बात हमारी सुनकर के वो बोले, 'क्या बे?',
हमनें हँस कर कहा गुरु 'हैप्पी हिंदी डे'.
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब हिंदी लेखक के घर में नोबेल का प्राइज़ चमकेगा,
जब हिंदी कवि सम्मलेन की,
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब आक्सफोर्ड की गलियों में तुलसी को पढ़ाया जाएगा,
जब माईकल रसिया नाचेगा,
जब सिंडी कजरी गाएगी,
वो सुबह कभी तो आएगी.
प्रेषक: अभिनव @ 9/15/2009 6 प्रतिक्रियाएं
जय श्री राम! - एक वेबसाईट
Sep 12, 2009जय जय श्री राम!
अभिनव
प्रेषक: अभिनव @ 9/12/2009 4 प्रतिक्रियाएं
काका को टक्कर - हप्पी बर्डे टू यू अनूप भार्गव जी
Sep 8, 2009
नाम रूप के भेद पर काका लिख गए काव्य,
नाम काम हो उलट पुलट बड़ा सहज संभाव्य,
बड़ा सहज संभाव्य, मगर काका को टक्कर,
नाम अनूप और काम अनूप ये कैसा चक्कर,
अनुपम बेला खिली रहे जीवन में आठों याम,
काव्य कला का हो सदा पर्याय आपका नाम.
जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएं.
पुनश्च:
1. चित्र में: अनूप भार्गव एवं राकेश खंडेलवाल (दाएं से बायें)
2. काका हाथरसी की कविता 'नाम रूप का भेद' यहाँ पर पढ़ी जा सकती है.
प्रेषक: अभिनव @ 9/08/2009 6 प्रतिक्रियाएं
हमें विभाजन से बहुत प्यार है
Sep 7, 2009मुझे हिंदी की अनेक संस्थाओं को निकट से जानने का अवसर मिला है. एक बात जो लगभग सभी संस्थाओं में सामान रूप से महसूस की है वह है उसका विभाजन. चाहे बंगलोर की साहित्यिक संस्था हो या चाहे हैदराबाद की, चाहे लखनऊ वाले हों या अमेरिका वाले सब विभाजित होते रहे हैं. एक बार इसी विभाजन पर निम्न कविता लिख कर किसी पत्रिका के संपादक को भेजी थी. रचना खेद सहित वापस तो नहीं आई पर छपी भी नहीं. वही रचना नीचे दे रहा हूँ.
हमें विभाजन से बहुत प्यार है
हमें विभाजन से बहुत प्यार है,
हर संस्था विभाजित होने को तैयार है,
संस्था हिंदी की हो तो टूटन और हसीन हो जाती है,
विशेष विशेषणों के प्रयोग से,
शब्दों की दशा दीन हो जाती है,
नए अध्यक्ष, नए सचिव उगते हैं,
नई फसल के दानों को चुगते हैं,
कुछ दिनों तक सब ठीक चलता है,
साहित्य का पेट्रोमैक्स,
भभक भभक कर जलता है,
फिर निर्धारित होती है पदों की पहचान,
प्रारंभ होता है सम्मानितों का सम्मान,
अहंकार जगमगाता है,
विश्वास डगमगाता है,
'मैं' हो जाता है 'हम' से बड़ा,
छलकने लगता है सब्र का घड़ा,
तय होता है कि खीर के खाली कटोरे,
घूमेंगे सबके बीच बारी बारी,
शुरू हो जाती है,
एक और विभाजन की तैयारी,
हमें विभाजन से बहुत प्यार है।
शब्दार्थः
विशेष विशेषणः गाली गलौज
सम्मानितों का सम्मानः लक्ष्य से भटकना
खीर के खाली कटोरेः संस्था के प्रमुख पद
पुनश्च: अपने ब्लॉग के स्वरुप (रंग रूप) में कुछ परिवर्तन किया है.
प्रेषक: अभिनव @ 9/07/2009 7 प्रतिक्रियाएं
इनका रूप संवर सकता है
Sep 3, 2009और रेत की आंधी से, न इन केशों का रंग उड़े,
अगर हाथ पत्थर न बन जाएँ चट्टानों से लड़कर,
और रंग न बदले चमड़ी ऊँचे पर्वत पर चढ़कर,
अगर कंठ में लटकी चाँदी, सोने जैसी चमक सके,
और आवरण में जीवन के, आ फूलों की महक सके,
अगर आँख के गड्ढों की कालिख न आँखों में झलके,
और पेट की भूख यहाँ पल पल न बच्चों में ढलके,
पुनश्च: ये रचना कुछ वर्षों पहले लिखी थी, अब कहाँ इलाहबाद, कहाँ लखनऊ और कहाँ हम. बस स्मृतियाँ हैं.
प्रेषक: अभिनव @ 9/03/2009 3 प्रतिक्रियाएं
Labels: कविताएं