मुझे हिंदी की अनेक संस्थाओं को निकट से जानने का अवसर मिला है. एक बात जो लगभग सभी संस्थाओं में सामान रूप से महसूस की है वह है उसका विभाजन. चाहे बंगलोर की साहित्यिक संस्था हो या चाहे हैदराबाद की, चाहे लखनऊ वाले हों या अमेरिका वाले सब विभाजित होते रहे हैं. एक बार इसी विभाजन पर निम्न कविता लिख कर किसी पत्रिका के संपादक को भेजी थी. रचना खेद सहित वापस तो नहीं आई पर छपी भी नहीं. वही रचना नीचे दे रहा हूँ.
हमें विभाजन से बहुत प्यार है
हमें विभाजन से बहुत प्यार है,
हर संस्था विभाजित होने को तैयार है,
संस्था हिंदी की हो तो टूटन और हसीन हो जाती है,
विशेष विशेषणों के प्रयोग से,
शब्दों की दशा दीन हो जाती है,
नए अध्यक्ष, नए सचिव उगते हैं,
नई फसल के दानों को चुगते हैं,
कुछ दिनों तक सब ठीक चलता है,
साहित्य का पेट्रोमैक्स,
भभक भभक कर जलता है,
फिर निर्धारित होती है पदों की पहचान,
प्रारंभ होता है सम्मानितों का सम्मान,
अहंकार जगमगाता है,
विश्वास डगमगाता है,
'मैं' हो जाता है 'हम' से बड़ा,
छलकने लगता है सब्र का घड़ा,
तय होता है कि खीर के खाली कटोरे,
घूमेंगे सबके बीच बारी बारी,
शुरू हो जाती है,
एक और विभाजन की तैयारी,
हमें विभाजन से बहुत प्यार है।
शब्दार्थः
विशेष विशेषणः गाली गलौज
सम्मानितों का सम्मानः लक्ष्य से भटकना
खीर के खाली कटोरेः संस्था के प्रमुख पद
पुनश्च: अपने ब्लॉग के स्वरुप (रंग रूप) में कुछ परिवर्तन किया है.
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हमें विभाजन से बहुत प्यार है
Sep 7, 2009प्रेषक: अभिनव @ 9/07/2009
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7 प्रतिक्रियाएं:
ऐसे में कौन छापेगा... :)
खुद छाप कर ही पढ़वाना पड़ता है. सही किया..
वाह....सच कहा आपने.....क्या बात कही है....दिल बल्ले-बल्ले हो गया.....और मन चंगा.....और मन चंगा तो कठौती में गंगा....!!
सुन्दर रचना। ब्लाग का बदला कलेवर अच्छा लग रहा है!
'मैं' हो जाता है 'हम' से बड़ा,
छलकने लगता है सब्र का घड़ा,
bahut khoob...kya baat hai...aapko padh kar achha laga
ैअभिनव जी लाजवाब रचना है देखा गया है कि चार शब्द लिख लेने के बाद लेखकों मे अहंकार आ जाता ह वो नई प्रतिभाओं को उभरने ही नहीं देते और पत्र पत्रिकाओं के सम्पादक पद पर भी बहुत जगह ऐसे ही साहित्यकार होते हैं वर्ना ये कविता कभी भी वपिस नaा आती नये लेखकों का पथप्रद्र्शन तो दूर उन्हें निरुत्साहित किया जाता है बहुत बडिया पोस्ट है बधाई इस कविता को हर अखबार और पत्रिका को भेजें फिर देखें कौन कितने पानी मे है।
रोना-धोना हंसने-खेलने से कहीं ज़्यादा अच्छा जो लगता है
विभाजन का मर्म जो समझ में आता तो मर्मज्ञ न कहलाते!
:)
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