सिएटल में विजय तेंदुलकर का 'कन्यादान'

May 17, 2010

चित्र १ (सौजन्य: विनायक सुले)

चित्र २ (सौजन्य: विनायक सुले)

चित्र ३ (सौजन्य: विनायक सुले)

चित्र ४ (सौजन्य: विनायक सुले)


विजय तेंदुलकर के सुप्रसिद्ध नाटक 'कन्यादान' का मंचन सिएटल की सांस्कृतिक संस्था प्रतिध्वनि द्वारा वॉशिंग्टन विश्वविद्यालय स्थित, जातीय सांस्कृतिक केंद्र के सभागार में किया गया। प्रतिभा सदैव नयी चुनौतियों की तलाश में रहती है. चुनौती जितनी कठिन हो उसे स्वीकार करने का आनंद भी उतना ही अधिक होता है. पिछले वर्ष प्रतिध्वनि की नाट्य मंडली शरद जोशी के नाटक "एक था गधा उर्फ़ अलादाद खां" का सफलतापूर्वक मंचन कर चुकी है. एक व्यंग्यात्मक नाटक की सफलता के बाद एक गंभीर विषय को उठाना बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य होता है. मुझे ऐसा लगता है कि इस चुनौती का सामना इस नाटक से जुड़े सभी कलाकारों नें डट कर किया है तथा इसमें सफलता भी प्राप्त की है.

नाटक की विषयवस्तु एक समाजवादी ब्राह्मण विधायक के परिवार तथा उसके दलित दामाद के आस पास घूमती है. यह एक ऐसा नाटक था जिसकी सफलता पूरी तरह से इसके पात्रों के अभिनय और संवाद अदायगी पर टिकी हुयी थी. अनेक कलाकारों नें अपने पात्र के साथ न्याय करते हुए दर्शकों को प्रभावित किया.

कन्या की मां का पात्र निभाने वाली नंदा नें मां के प्रेम और क्रोध दोनों को मंच पर जीवंत कर दिया. मंच पर एक दृश्य में अपनी पुत्री को समझाते हुए मां की आँखों में आंसू आ जाते हैं. ये दृश्य देख कर दर्शक भी भावुक हुए बिना नहीं रह सकते. मुझे मुनव्वर राना की दो पंक्तियाँ याद आती हैं, 'कुछ इस तरह से मेरे गुनाहों को वो धो देती है, मां जब बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है'. नंदा का अभिनय सहज था तथा वास्तविकता का पुट लिए हुआ था शायद इसी वजह से दर्शक उनके संवादों से सीधे सीधे जुड़ रहे थे.

अभिनय की दृष्टि से कन्या के विधायक पिता का पात्र निभाना सबसे अधिक टेढ़ी खीर था. जयंत का अभिनय शुरू शुरू में कुछ असहज सा लगता है पर जैसे जैसे दर्शक नाटक में डूबता जाता है उसके अभिनय का प्रभाव बढ़ता जाता है. नाटक के अंत तक आते आते जयंत दर्शकों की साहनभूति प्राप्त करने में भी सफल रहे. जयंत नें घर के मुखिया के पात्र को बखूबी निभाया है.

एक आदर्शवादी पिता की पुत्री तथा एक दलिक लेखक की पत्नी के रूप में अदिति का अभिनय प्रभावशाली रहा. नाटक के प्रारंभ में अंतर्मुखी सी दिखने वाली लड़की आगे चल कर अपनी हिम्मत के बल पर कठिन परिस्थितियों का सामना करने वाली तथा अपने पक्ष को दृढ़ता पूर्वक सामने रखने वाली कैसे बन जाती है, यह परिवर्तन अदिति नें अपने भावों के सम्प्रेषण से भली प्रकार दिखाया है.

अंकुर गुप्ता नें एक दलित लेखक तथा कन्या के पति की भूमिका निभाई. ज्ञातव्य है कि अंकुर नगरी के लोकप्रिय कलाकार हैं तथा इस नाटक से पहले, 'आठ घंटे' जैसे नाटक में गंभीर पात्र का सटीक अभिनय कर चुके हैं. इस नाटक में अंकुर को देख कर लग रहा था कि उन्होंने इस पात्र को निभाने के लिए काफी मेहनत करी है. कन्या के भाई के रूप में भूषण नें भी सहज अभिनय किया है. कभी साहनभूति, तो कभी दुःख, तो कभी गुस्सा, सभी भावों का समन्वय करने में भूषण को सफलता प्राप्त हुई. सीपी और रवि मंच पर बस छोटे से दृश्य के लिए आये तथा अपने हाव भाव के चलते अपनी उपस्तिथि दर्ज करने में सफल रहे. मंच सज्जा तथा प्रकाश की व्यवस्था सौम्य रही.

नाटक का निर्देशन सधा हुआ था. अगस्त्य के अनुभवी निर्देशन नें इस चुनौतीपूर्ण नाटक को सरलता से ताने बाने में बांध लिया था. विजय तेंदुलकर के इस नाटक के साथ न्याय करने में अगस्त्य के निर्देशन नें कोई कसर नहीं छोड़ी है.

हांलाकि नाटक अच्छा रहा पर यदि हम एक विश्लेषात्मक दृष्टि डालें तो कुछ सुधार कि गुंजाईश भी दिखाई पड़ी. नाटक में गालियों के प्रयोग से बचा भी जा सकता था. एक दृश्य से दुसरे दृश्य में प्रत्यावर्तन करते समय बजने वाला संगीत नाटक की विषय वस्तु से मेल नहीं खा रहा था. पार्श्व संगीत का प्रयोग अंतिम दृश्य के लिए किया गया था जो कि अच्छा बन पड़ा था. अन्य दृश्यों में भी पार्श्व संगीत का प्रयोग किया जा सकता था.

एक जटिल नाटक के सफलतापूर्वक मंचन के लिए इससे जुड़े सभी लोगों को अनेक बधाइयाँ तथा शुभकामनाएं। यह आशा की जा सकती है की आने वाले समय में हमें प्रतिध्वनि नाट्य मण्डली की अगली प्रस्तुति शीघ्र ही देखने को मिलेगी.

* कन्यादान कि वेबसाईट यहाँ देखें.

कविवर देवेन्द्र शुक्ल को समर्पित एक काव्य संध्या

May 3, 2010

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश मंडल आफ अमेरिका (उपमा) द्वारा आयोजित कवि सम्मलेन में जाना हुआ. कार्यक्रम में शकुंतला बहादुर, नीलू गुप्ता, अर्चना पंडा, संजय माथुर, कोहिनूर चटर्जी सहित बे एरिया के अनेक कवियों को सुनाने का सुखद अनुभव प्राप्त हुआ. मुझे यह कवि सम्मलेन अन्य अनेक कार्यक्रमों से अलग लगा अतः सोचा कि क्यों न अपने अनुभवों को ब्लॉग के रूप में सहेज लूं.

यह कार्यक्रम बे एरिया के लोकप्रिय हास्य कवि स्वर्गीय श्री देवेन्द्र शुक्ल जी की पावन स्मृति को समर्पित था. अमेरिका में आई इस आर्थिक मंदी के क्रूर पंजों नें देवेन्द्र जी को छीन कर मुझे व्यक्तिगत रूप से आहात किया है. इससे पहले मैं जब जब सैन फ्रांसिस्को की ओर गया तब तब मंच पर देवेन्द्र जी मेरे साथ रहे. मैंने उन्हें इस बार बहुत मिस किया. इस कर्यक्रम में मंच पर देवेन्द्र जी के लिए एक खाली कुर्सी रखी गयी थी. उस कुर्सी के आगे दीपक जलाये गए तथा बाकी सभी कवि मंच के नीचे बैठे. बड़े भावपूर्ण रूप में उपमा की अध्यक्षा नीलू गुप्ता जी नें देवेन्द्र जी की स्मृतियों को प्रणाम किया तथा सब श्रोताओं नें दो मिनट का मौन रखा. आम तौर पर श्रधांजलि एक औपचारिकता मात्र होकर रह जाती है, पर इस कार्यक्रम में ऐसा नहीं लगा. नीलू जी नें अपनी संस्था के सदस्यों को एक एक कर के मंच पर बुलाया. सबको बुलाते समय उनहोंने काव्यात्मक पंक्तियाँ पढ़ीं तथा सबका बड़ा अच्छा परिचय दिया. संस्था से सदस्य एक एक कर मंच पर आये और एक एक दीपक जला कर अपने स्थान पर लौट गए.

आज के दौर में कवि सम्मलेन के मंचों से काव्यधारा सूखती जा रही है तथा लाफ्टर धारा उफान पर है. ऐसे में इस कार्यक्रम में कुछ नए तरीके की अच्छी हास्य रचनायें भी सुनने को मिलीं. एक ओर जहाँ कोहिनूर द्वारा प्रस्तुत 'छप छपाक' में किसी नृत्यांगना के कदमों की थाप की ध्वनि सुनने को मिली तो वहीं संजय नें मूछों पर एक हास्य रचना पढ़ी. वरिष्ठ कवयित्री शकुंतला बहादुर नें कम सुनने की समस्या पर एक हास्य रचना पढ़ी. लोकप्रिय कवयित्री अर्चना पंडा नें अपने रेडियो जनित अनुभवों को कविता में बाँधा. जो बात अच्छी लगी वो यह की अधिकतर कवितायें जीवन के अनुभवों से निकली थीं तथा किसी भी प्रकार की कृत्रिमता से दूर थीं. भोगे हुए यथार्थ का चित्रण निसंदेह अधिक गहरी पैठ रखने वाला होता है.

"नौकरी की टोकरी" जैसी, अमेरिका आई नारी के मन को प्रतिबिंबित करती सटीक रचना लिखने वाली अर्चना जी नें अपने काव्य पाठ के कुछ अंश यू ट्यूब पर भी अपलोड किये हैं. आप कार्यक्रम के कुछ चित्रों को नीचे देख सकते हैं.