तुम्हारी, बहुरिया से

Dec 13, 2011

प्रवासी पति अपनी पत्नी को वापस भारत चलने के लिए प्रेरित करता हुआ कहता है की यदि वो विदेश में रही तो उसका बेटा एक अँगरेज़न को उसकी बहू बना कर ले आएगा. लोकगीत शैली में लिखे इस गीत को गाकर पढने का प्रयास करेंगे तो दुगना मज़ा आएगा.

बढती तो है बड़ी शान, तुम्हारी, बहुरिया से,

पर...

कैसे पटेगी मेरी जान, तुम्हारी, बहुरिया से।

जियरा को तुम्हरे, लगे जाने कैसा,
तुम शाकाहारी, वो खाएगी भैंसा,
कांपेगा इंगलिस्तान, तुम्हारी बहुरिया से,
कैसे पटेगी मेरी जान, तुम्हारी, बहुरिया से।

सुबह नहाय धोय, पहनेगी बिकनी,
सेंकेगी धूप जिससे, त्वचा होय चिकनी,
घूंघट की नहीं पहचान, तुम्हारी बहुरिया से,
कैसे पटेगी मेरी जान, तुम्हारी, बहुरिया से।

सांझ ढले, दीप तले, विसकी चढ़ाए,
सिगरेट का पैकट भी सबको बढ़ाए,
बंधने का नहीं मगर
पान, तुम्हारी बहुरिया से,
कैसे पटेगी मेरी जान, तुम्हारी, बहुरिया से।


मम्मी न अम्मा न अम्मी उचारे,

तुमको भी फर्स्ट नेम लेके पुकारे,

घर की बदल जाए तान, तुम्हारी बहुरिया से,
कैसे पटेगी मेरी जान, तुम्हारी, बहुरिया से।

बेटा तुम्हारा कहे उसको हन्नी,
वो अपने मुन्ने को कहती है फन्नी,
नाम का
हुईहे कल्यान, तुम्हारी बहुरिया से,
कैसे पटेगी मेरी जान, तुम्हारी, बहुरिया से।

तुमने न हीरा न सोना सहेजा,
बच्चों को पाला जला कर कलेजा,
होवेगा नहीं ये ही काम
तुम्हारी बहुरिया से,
कैसे पटेगी मेरी जान, तुम्हारी, बहुरिया से।

नया सृजन हो भी तो कैसे

Oct 31, 2011

आफशोर को काल कर करा, देर रात को सोये साहब,
सात बजे की मीटिंग ले गई, ख्वाबों की सारी चंचलता,
नया सृजन हो भी तो कैसे, गीत नया हम कब गाएं,
काल पृष्ठ पर हस्ताक्षर करने आखिर हम कब जाएं.


आये थे परदेस सोच कर, दो महीने में फिर जायेंगे,

इसका बिलकुल पता नहीं था ऐसे बादल घिर आयेंगे,

वीक एंड पर लाख काम हैं, करने खुद ही इंतजाम हैं,
आलू प्याज़ टमाटर लाना, फ्रिज में ला ला भरते जाना,
कपड़े धोना और सुखाना, झाड़ू पोंछे संग मुस्काना,
बीत रही है जैसे तैसे,
नया सृजन हो भी तो कैसे,

धीरे धीरे वजन बढ़ रहा, ब्लड प्रेशर का रोग चढ़ रहा,
और विधाता ऊपर बैठा नया नया नित खेल गढ़ रहा,
अम्मा बप्पा तड़प रहे हैं, बच्चे इंग्लिश गड़प रहे हैं,
मित्र पुराने बिखरे बिखरे, खुशियों के क्षण बिसरे बिसरे,
घर की बंद बंद खिडकियां, परदे लेकिन निखरे निखरे,
दवा, लड़ाई , आलस, पैसे,
नया सृजन हो भी तो कैसे.

अभिमानों से भरे हुए हैं, बात पे अपनी अड़े हुए हैं,
जिन द्वारों पर सिर झुकना था, उन पर तन के खड़े हुए हैं,
लाभ हानि में उलझ गए हैं, अभिनय, मानो सुलझ गए हैं,
नित घमंड की बाँध लंगोटी, फिट करते दफ्तर में गोटी,
लालच का करते आवाहन, नीयत खोटी, सोच है छोटी,
बड़े आदमी हैं हम वैसे,
नया सृजन हो भी तो कैसे,

नया सृजन हो भी तो कैसे, गीत नया हम कब गाएं,
काल पृष्ठ पर हस्ताक्षर करने आखिर हम कब जाएं.

दिया एक जला कर देखो

Oct 26, 2011

अपने हाथों से दिया एक जला कर देखो.

ये है सच आज अंधेरों का बोल बाला है,
रोशनी पर लगा इलज़ाम भी निराला है,
पर अमावस में ही सजती हैं शहर की गलियां,
प्यासे सपनों में महकती हैं सुहानी कलियां,
कोई तुमसे कहे जीवन की रात काली है,
तुम दिया एक जलाकर कहो दिवाली है,
अपने हाथों से दिया एक जला कर देखो.

खेल मिटटी का दिखाया है दुबारा इसनें,
चाक पर घूम के है रूप संवारा इसनें,
आग में तपता रहा सिर्फ ज़माने के लिए,
आया बाज़ार में फिर बिकने बिकाने के लिए,
रोशनी देगा तो एहसान तेरा मानेगा,
वरना मिटटी से इसे फिर कुम्हार छानेगा,

अपने हाथों से दिया एक जला कर देखो.
फिर अयोध्या किसी मन की नहीं सूनी होगी,
फिर चमक वक्त के चेहरे पे भी दूनी होगी,
फिर से सरयू भी झूम झूम गीत गाएगी,
फिर से मुस्कान सितारों की झिलमिलाएगी
स्वर्ण मृग सीता को लंका में नहीं भाएंगे,
मन में विश्वास अगर हो तो राम आएंगे,
अपने हाथों से दिया एक जला कर देखो.


- अभिनव

विनम्र श्रद्धांजलि

Oct 7, 2011




अपने हृदय की iTunes पहचान कर,
विश्व के पटल पर दीपक जला गया,
iPhone जैसा ज़ोरदार आविष्कार किया,
रूढ़ियों की जमी हुई बर्फ पिघला गया,
प्रतिद्वंदियों की आंखों में भी iTears आये,
मन कह रहा है आज आदमी भला गया,
Steve नें उगाये दुनिया में लाखों jobs,
iSad कर परलोक में चला गया.

विनम्र श्रद्धांजलि.

ज़िन्दगी ऐसे गुज़रती जा रही है

Oct 2, 2011

ज़िन्दगी ऐसे गुज़रती जा रही है,
जैसे कोई रेल चलती जा रही है,

मन लगा है स्वयं से नज़रें चुराने,
रुक गया है प्लेटफोर्म पर पुराने,
तन का सिग्नल लाल करती जा रही है,

खेत नदिया ताल पोखर छूटते हैं,
पटरियों पर कितने पत्थर टूटते हैं,
काल की भी दाल गलती जा रही है,

इक भिखारी गीत गाने में लगा है,
एक मोटू लाल खाने में लगा है,
धूप है, बत्ती भी जलती जा रही है,

है थकन से चूर मंजिल पाएगी ही,
आएगी मंजिल, कभी तो आएगी ही,
मन में कोई आस पलती जा रही है,

ज़िन्दगी ऐसे गुज़रती जा रही है,
जैसे कोई रेल चलती जा रही है.

घर में बेटी की किलकारियां

घर में बेटी की किलकारियां,
घर में बेटी की किलकारियां.

जैसे सुबह जगी नींद में स्वप्न कोई सुहाना पले,
जैसे दुःख का अंधेरा ढले, मंदिरों में दिया सा जले,
मंदिरों में दिया सा जले,
बज उठीं श्याम की मुरलियां,
घर में बेटी की किलकारियां.

जैसे सागर की लहरों नें हो, तट के आंचल को आकर छुआ,
जैसे तारों भरी रात में, चांदनी नें पढ़ी हो दुआ,
चांदनी नें पढ़ी हो दुआ,
जैसे मोती भरी सीपियां,
घर में बेटी की किलकारियां.

जैसे भूले हुए गीत का, आ गया हो सिरा याद सा,
जैसे साहिर के शब्दों को पा, खिलता संगीत नौशाद का,
खिलता संगीत नौशाद का,
तितलियों की हैं अठखेलियां,
घर में बेटी की किलकारियां.

रेत के गाँव में जिस तरह, कोई नदिया कहानी कहे,
धुप को मुंह चिढ़ाती हुई, मंद शीतल पवन सी बहे,
मंद शीतल पवन सी बहे,
गीत, झूले, हरी डालियाँ,
घर में बेटी की किलकारियां.

जैस मीठे से संतूर पे, राग कोई मधुर सा बजे,
सात रंगों को संग में लिए, आसमां पे धनुष सा सजे,
आसमां पे धनुष सा सजे,
जैसे महकी सी फुलवारियां,
घर में बेटी की किलकारियां.

सियैटल में झिलमिलाया, "झिलमिल २०११ - हास्य कवि सम्मेलन"

Sep 22, 2011




सितम्बर १७, २०११ सियैटल, संयुक्त राज्य अमेरिका. पिछले वर्ष सियैटल में हुए कवि सम्मेलन को मिली आशातीत सफलता को देखते हुए नगरी की सांस्कृतिक संस्था प्रतिध्वनि इस वर्ष पुनः हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन किया. हिंदी भाषा का जो स्वरुप कविताओं में उजागर होता है वह अत्यंत आनंद प्रदान करने वाला होता है. सधे हुए कवि सम्मेलनों में प्रस्तुतिकरण के कौशल द्वारा कविताओं की मिठास में चार चाँद लग जाते हैं. यदि बात हास्य कविताओं की हो रही हो तो फिर मिठास और आनंद का एक नाभकीय विस्फोट होता है. सियैटल नगरी में 'झिलमिल २०११ - हास्य कवि सम्मेलन' का आयोजन १७ सितम्बर २०११ को हुआ. सांस्कृतिक संस्था प्रतिध्वनि की ओर से प्रस्तुत इस कार्यक्रम में दो सौ श्रोताओं नें लगभग चार घंटे तक अनेक चटपटी और झिलमिलाती हुई हास्य कविताओं का रसास्वादन किया.

शहाना नें मां सरस्वती की वंदना कर कार्यक्रम को प्रारंभ किया. इस कवि सम्मेलन में सन फ्रांसिस्को से पधारी अर्चना पंडा, वैंकुवर कनाडा से आये आचार्य श्रीनाथ प्रसाद द्विवेदी तथा उनकी धर्म पत्नी कांति द्विवेदी. सियैटल नगरी से अंकुर गुप्त, निहित कौल, ज्योति राज, अनु अमलेकर, कृष्णन कोलाड़ी एवं अभिनव शुक्ल नें अपनी कविताओं का पाठ किया. कार्यक्रम का संचालन अभिनव शुक्ल नें किया. लगातार दूसरे वर्ष आयोजित 'झिलमिल' कवि सम्मेलन में श्रोताओं नें जम कर ठहाके लगाये और श्रेष्ठ कविताओं को भी सराहा. इस आशा के साथ की आने वाले वर्षों में हिंदी भाषा एवं कविताओं की झिलमिलाहट और भी अनेक चेहरों पर मुस्कराहट लेकर आएगी झिलमिल २०११ संपन्न हुआ.

इन्हें भी देखें (झिलमिल संबंधी महत्वपूर्ण कड़ियाँ)
1. कार्यक्रम के कुछ चित्र
2. अर्चना पंडा जी का झिलमिलाता हुआ झिलमिल संस्मरण
3. झिलमिल २०११ की वेबसाईट

पांच

Aug 18, 2011

ललितजी की पोस्ट के कमेंट्स पढ़कर पांच पर बन गयी एक कुंडली:

पांच उँगलियाँ, पांच हैं सागर अति विशाल,
पांच सितारा होटल में, पञ्च मेल की दाल,
पञ्च मेल की दाल खा गए पांडव न्यारे,
पांच चिन्ह दे गए हैं हमको पंज पियारे,
पञ्च तत्व, पंजाब और पंचामृत को जांच,
ओलम्पिक के खेल में भी हैं छल्ले पांच.

काम क्रोध मद मोह और लोभ हैं पञ्च विकार,
साम दाम दंड भेद भय ये हैं पञ्च उपचार,
ये हैं पञ्च उपचार, पांचवा साल चुनावी,
व्यास, चिनाब, झेलम अपनी सतलुज रावी,
पञ्च प्रचारक पोस्ट की भली करें श्री राम,
तीन पांच काफी हुआ करते हैं अब काम.

युग धर्म - एक चेतना गीत

Jun 11, 2011

एक योगाचार्य नें मशाल उठाई,
गाँव गाँव चेतना की ज्योति जगाई,
प्रेरणा दी देशवासियों को योग से,
मुक्त किया कितनों को कष्ट रोग से,
भ्रष्टता को जड़ से मिटाने के लिए,
लड़ा दूसरा स्वराज लाने के लिए,
लाठियां पड़ीं औ दगे हैं आंसू बम,
क्रांति की देखो चली चली रे पवन.

घोटालों पे घोटालों का है अटूट क्रम,
टूट चुका गांधीजी का रामराजी भ्रम,
खीसें हैं निपोर रहे नेता बेशरम,
मालियों से कर रहा बगावत चमन,
गूंजने लगा है जयघोष से गगन,
मुट्ठियों को भींचे हुए देखेंगे न हम,
राष्ट्र चेतना में सराबोर जन जन,
क्रांति की देखो चली चली रे पवन.

अपने कपट को छुपाने के लिए,
भारत को बेच बेच खाने के लिए,
काले धन में सदा नहाने के लिए,
खाता स्विस बैंक का बचने के लिए,
आन्दोलन दो कुचल ज़ोर से,
देश कहीं जाग नहीं जाए शोर से,
जो उठाये सिर उसे कर दो कलम.
मुट्ठियों को भींचे हुए देखेंगे न हम.

अ से आर्यव्रत की वे आन बान हैं,
न से न्यायशीलता का नव विधान हैं,
ना से नागरिकों की नयी पुकार हैं,
ह हमारी भारती के पुष्प हार हैं,
जा से जानदार हैं जुझारू वीर हैं,
रे से रेशमी उजालों के फ़कीर हैं,
अन्ना जी सिखाते हमें युग का धरम,
क्रांति की देखो चली चली रे पवन.

देश भूल सकता न परशु राम को,
विश्वामित्र मांग ले गए थे राम को,
विश्व गुरु के दिए गीता के ज्ञान को,
या दधीचि के महान अस्थिदान को,
दुनिया जगाते गांधी के प्रबंध को,
चाणक्य नें पाठ पढाया जो नन्द को,
संत हैं सिखाते हमें जीने का चलन,
क्रांति की देखो चली चली रे पवन.

बा से बाबाजी हमारे बेमिसाल हैं,
बा से बाहरी कुटिलता का काल हैं,
रा हमारे राष्ट्र की वे पहचान हैं,
म से मातृभूमि का मधुर गान हैं,
दे से देवताओं के वे समतुल्य हैं,
व विजयी, वरदानी हैं अतुल्य हैं,
इस युग के पतंजलि को नमन.
क्रांति की देखो चली चली रे पवन.

कालिमा नें उंगली उठाई धुप पे,
टिपण्णी की बाबाजी के नारी रूप पे,
सामने की दुष्टता का जो न हो चरम,
तो उठाने पड़ते हैं ऐसे भी कदम,
भस्मासुर नहीं यूँ ही मरा था,
भगवान नें भी नारी रूप धरा था,
भक्त नें किया है उसी का अनुकरण.
क्रांति की देखो चली चली रे पवन.

करामात

Jun 5, 2011

दिल्ली में,
एक छोटी सी बच्ची पुलिस के सामने तन कर खड़ी हो गयी,
पुलिस नें अपनी लाठी चलाई,
बच्ची, 'भारत माता की जय' चिल्लाई,
पुलिस नें खींच के झापड़ मारा,
बच्ची नें 'वन्दे मातरम' पुकारा,
अजब करामात थी,
ये उन्नीस सौ बयालीस की नहीं,
सन दो हजार ग्यारह की बात थी.

एक आंसू गैस का गोला,
जब एक वृद्ध संत के सर पर गिरा,
तो दगने की बजाय रोने लगा,
संत नें पूछा कि, 'क्या हुआ?'
वो बोला मेरी बेइज्जती में यही कसर बची थी,
अब सोते हुए, मासूमों पर भी मेरा प्रयोग होने लगा.

देश का जो चाहे उद्धार, उसको मारो लाठी चार,
बोले भारत की सरकार, जुग जुग जीवे भ्रष्टाचार.
 
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Abhinav Shukla
206-694-3353
P Please consider the environment.

चार जून - हृदय का गान

Jun 3, 2011

तन परदेस, किन्तु आत्मा स्वदेश में है,
माता भारती का गुणगान तो करूंगा मैं, 
पाप मुक्त देश बने इस पुण्य कार्य हेतु,
बाबाजी तुम्हारा सम्मान तो करूंगा मैं,
भावना से भावना के तार जुड़ते हैं सुना,
हृदय में हृदय का गान तो भरूँगा मैं,
चार जून को तुम्हारे साथ ही रहेगा मन,
व्रत उपवास तप ध्यान तो करूंगा मैं.

तेरे आने से बिटिया......

Apr 23, 2011

मधुर मधुर गीतों में रस की फुहारें ज्यों,
ज़िन्दगी के कैनवस पे रंग प्यारे प्यारे ज्यों
सुबह की सैर में हों धूप के इशारे ज्यों,
सतरंगी चूनर पे टंके हों सितारे ज्यों,
तेरे आने से बिटिया मौसम यूँ महका है,
फूलों की बगिया में आई हों बहारें ज्यों.

तू जन्मों से संचित किसी पुण्य के फल सी,
मन के मरुस्थल में बूँद बन के आई है,
जब तुझको देखा तो ऐसी अनुभूति हुयी,
जीवन में रुनझुन है गूंजी शहनाई है,
नवयुग की नव बेला राह देखती तेरी,
तू इसमें जीवन की परिभाषा बन जाना,
प्रकृति का तेज त्याग तप तुझमें वास करे,
तू दृढ संकल्पों की अभिलाषा बन जाना,
तेरा अस्तित्व रहे सदा सूर्य सा दीपित,
तेरा प्रवाह, बहें गंगा के धारे ज्यों,
तेरे आने से बिटिया मौसम यूँ महका है,
फूलों की बगिया में आई हों बहारें ज्यों.