२७ जनवरी २००७, संयुक्त राज्य अमेरिका की सिएटल नगरी में डा बृजेन्द्र अवस्थी को श्रद्धान्जलि देते हुए कार्यक्रम "कुछ संस्मरण कुछ स्मृतियाँ - महान राष्ट्रकवि डा बृजेन्द्र अवस्थी" का आयोजन किया गया। इसमें देश विदेश से अनेक लेखकों, कवियों एवं साहित्यकारों नें भाग लिया तथा अपने संस्मरण सुनाए। ज्ञातव्य है कि इस कार्यक्रम का प्रसारण कान्फ्रेंस काल द्वारा किया गया था जिससे तकनीकी शक्ति की सहायता लेकर, भौगोलिक दूरियों को लांघ कर सिएटल के अतिरिक्त न्यूयार्क, वाशिंगटन डी सी, न्यू जर्सी, सेंट फ्रांसिसको, ओहाएयो, डालस, कनेक्टिकट, कर्नाटक, दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश रज्यों से लोगों नें डा अवस्थी को अपने अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किए। श्री प्रद्युम्न अमलेकर नें माँ सरस्वती तथा डा अवस्थी के सामने दीप प्रज्जवलित किया। तदुपरांत डा अवस्थी की मातृ-वन्दना कविता की रिकार्डिंग बजाकर सभा का प्रारंभ किया गया।
डा अवस्थी के पूज्य गुरुदेव डा कुंवर चन्द्र प्रकाश सिंह जी के पुत्र डा रवि प्रकाश सिंह जी ने अपने बचपन के अनेक संस्मरण सुनाए तथा बतलाया कि "मंगलवार के दैनिक जागरण में जब यह समाचार पढ़ा कि अवस्थी जी हमारे बीच से चले गए हैं तो
अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डी सी के सुमधुर गीतकार राकेश खण्डेलवाल नें अपने मनोभावों को निम्न पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त किया,
अपनी वीणा में से तराश मां शारद ने
जिसके हाथों मे इक लेखनी सजाई थी
जिसकी हर कॄति के शब्द शब्द में छुपी हुई
सातों समुद्र से ज्यादा ही गहराई थी
जिसकी वाणी का ओज प्राण भर देता था
मॄत पड़े हुए तन में अमॄत की धारा बन
मैं अक्षम हूं कुछ बात कर सकूँ उस कवि की
ब्रह्मा ने वर में जिसको दी कविताई थी.
जो क्षति महसूस कर रहे आज यहां हम सब
है संभव क्या अभाव पूरा कर पायेंगे
वह ओज भरे शब्दों की मॄदु अमॄत वाणी
बस सुबह शाम हम रह रह कर दोहरायेंगे
उनके पावन पदचिन्ह कभी छू लें हम भी
हर रोज यही इक मंगल स्वप्न सजायेंगे
चंदन की कलम शहद में डुबो डुबो कर भी
हम नाम अमिट वह लिखने में सकुचायेंगे.
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति के पूर्व अध्यक्ष तथा 'विश्वा' के संपादक श्री सुरेन्द्र नाथ तिवारी नें कहा कि वे डा अवस्थी के देहवसान का समाचार सुनकर स्तब्ध रह गए। वे बोले कि "सन १९९४ में जब डा अवस्थी, हुल्लड़ मुरादाबादी, माधवी लता एवं राम रतन शुक्ल जी अमेरिका आए तब न्यू यार्क के जान एफ केनेडी एयरपोर्ट पर मैं उन्हें रिसीव करने पहुँचा। मैं अपने साथ कोक के कुछ कैन्स लेकर गया था ताकि अमेरिका में सबका स्वागत आमेरिकन वाटर से किया जाए। जब मैं एयरपोर्ट पहुँचा तो मैंने
तुम भारत गौरव के चारण,
बलिदानों के तुमुल-तूर्य तुम,
संस्कृति के तुम शंखघोष थे,
हिंदी के थे प्रखर सूर्य तुम,
अश्रु नहीं डूबते सूर्य को,
अर्ग्य सदा अर्पण करते हैं,
इसीलिए इस दुख में भी हम,
तुमको नित्य नमन करते हैं।
भारत के सुप्रसिद्ध वीर रस के कवि राजेश चेतन नें कारगिल युद्ध के समय का एक मार्मिक संस्मरण सुनाते हुए बतलाया कि "जहाँ एक ओर देश की सेना कारगिल में शत्रुओं से जूझ रही थी तो वहीं दूसरी ओर देश की जनता वर्ल्ड कप क्रिकेट मे डूबी थी। तिरंगे मे लिपट कर जवानो के शव आ रहे थे कि एक दिन कुछ मित्रों के साथ तत्कालीन उपप्रधान मंत्री व गृहमंत्री श्री लाल कृष्ण अडवाणी से मिलने का अवसर मिला। अडवाणी जी के सुझाव पर जन जागृति हेतु "चुनौती है स्वीकार" शीर्षक से एक कवि सम्मेलन का आयोजन तय हुआ। डा॰ बृजेन्द्र अवस्थी की अध्यक्षता में श्री सोम ठाकुर, डा॰ गोविन्द व्यास, डा॰ कुँअर बेचैन, श्री हरिओम पंवार, श्री विनीत चौहान, श्री नरेश शांडिल्य व मुझे भी कविता पाठ का सौभाग्य मिला। इन्द्र देव की उस दिन अपार कृपा थी दिल्ली में सब तरफ पानी ही पानी दिखाई पड रहा था ऐसे मौसम मे दिल्ली के फिक्की सभागार में क्षमता से दूगने लोग उपस्थित देखकर आश्चर्य हुआ। अडवाणी जी ने उद्घाटन अवसर पर कहा युद्ध चल रहा है अतः कवियों से क्षमा चाहता हूँ कुछ समय ही आपके मध्य रहूँगा लेकिन कविता का जादू उपप्रधान मंत्री के सर चढने लगा और लगातार
भारत के लोकप्रिय गीतकार एवं उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के कार्यकारी उपाध्यक्ष श्री सोम ठाकुर नें अपन भावनाएँ व्यक्त करते हुए कहा कि "डा अवस्थी से मेरा परिचय सन १९५७ से था, उस समय वे हल्दवानी में पढ़ाते थे। डा अवस्थी के कोई सगा भाई नहीं था तथा मेरा भी कोई सगा भाई नहीं था पर मैंनें उन्हें सदा अपने बड़े भाई के रूप में माना तथा वे भी मुझे अपने छोटा भाई मानते थे। जब डा अवस्थी शादियों में हमारे यहाँ आते थे तो साथ में नोटों कि गड्डियाँ ले आते थे कि कहीं कोई कमी ना पड़ जाए। जहाँ तक कविता के प्रश्न है वे आशुकवि थे तथा जहाँ तक मैं समझता हूँ इस समय जितने महाकाव्य और खण्ड काव्य उन्होंनें लिखे हैं किसी दूसरे कवि नें नहीं लिखे होंगे। मनुष्य के रूप में उनके विराट व्यक्तित्व का कोई मुकाबला नहीं था। यहाँ पर उनके यश से तथा उनकी प्रतिभा से कुछ लोग बड़े इर्ष्यालु थे। जिनको उन्होंनें स्वयं ही पाला पोसा था, जो उनके शिष्य थे वे ही स्वयं उनके विरोधी भी थे तथा उनके विषय में अनर्गल प्रलाप भी करते थे पर कभी भी डा साहब के चेहरे पर या मन में किसी के लिए कोई बुरा भाव नहीं रहा। उन्होनें अपना स्वभाव कभी नहीं बदला। स्वनिर्मित व्यक्ति थे, बहुत छोटी अवस्था में ही उनके पिता का निधन हो गया था तथा घर पर विपन्नता का संकट मंडराने लगा था तो पहले उन्होंनें ट्यूशन किए, फिर कुल्फी बेचने का काम शुरू किया। उन्होंनें कुल्फियों के बड़े अच्छे नाम रखे थे जैसे पिस्ते की कुल्फी
का नाम था रीतिमा, आम की कुल्फी आम्रसार, हिमसार, विजयसार, हिमाद्रि आदि। वे जीवन भर संघर्षरत रहे तथा उन्होंने जीवन को भी एक कविता के रूप में जिया। मैं अपने मुख्यमंत्री का भी आभार व्यक्त करना चाहता हूँ कि उन्होंनें डा साहब के लिए यश भारती पुरुस्कार की घोषणा की है। अब उन जैसा आदमी कोई दूसरा है नहीं हमारे यहाँ, न उन जैसा आशुकवि है, न उन जैसा महाकाव्य एवं प्रबंध काव्य लिख सकने वाला कोई प्रतिभावान व्यक्ति है। सन ८५ में वे ही मुझे पहली बार अमेरिका लेकर आए थे। मैं आचार्य बृजेन्द्र अवस्थी को अपनी श्रद्धान्जलि अर्पित करता हूँ।"
भारतीय विद्याभवन न्यूयार्क के निदेशक एवं प्रबुद्ध विद्वान डा जयरमन की भावनाएँ इन पंक्तियों से पगट हुईं, "कवि श्रेष्ठ डा बृजेन्द्र अवस्थी जी के जाने से हिंदी साहित्य का एक अनूठा हस्ताक्षर हमारे बीच में से निकल गया। सरस्वती के वरद पुत्र आदरणीय डा अवस्थीजी का निधन हिंदी काव्य के लिए एक बड़ा धक्का है। एहसासों और जज़्बातों का चितेरा हमसे बहुत दूर चला गया। उनको हमारा शत शत नमन। डा बृजेन्द्र अवस्थी अद्भुत आशुकवि थे। किसी भी संदर्भ में अपनी सुलझी हुई अंतःचेतना से तत्काल काव्य सृजन कर देते थे। उनका साहित्य माँ भारती के चरणों में समर्पित कवि हृदय का अनूठा उपहार था। भारत की संतानें हिंदी तथा हिंदी लेखनी के प्रति अर्पित हों, विश्व के कोने कोने में हिंदी की ध्वनि गूँजे- इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्रतिबद्ध हों, यही श्रद्धेय कवि बृजेन्द्र अवस्थी जी के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धान्जलि होगी।"
सिनसिनाटी से रेनु गुप्ता जी नें अपने संस्मरण सुनाते हुए बतलाया कि किस प्रकार डा अवस्थी नें उन्हें कविता लिखने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि " आज से बीस वर्ष पूर्व, महाकवि एवं हिन्दी के वरिष्ठ हस्ताक्षर डा बृजेन्द्र अवस्थी जी हमारे घर सोम ठाकुर जी के साथ आए थे। वे हमारे यहाँ तीन चार दिन ठहरे थे। उस समय हम दो बेडरूम के अपार्टमेंट में रहते थे, हमारे दो छोटे छोटे बेटे थे और इतनी असुविधाओं के बीच भी आप दोनों प्रसन्नतापूर्वक हमारे साथ रहे। अवस्थी जी को हम बचपन से कवि मंच पर सुनते आए थे। वे हमारे अतिथि बने थे यह ख्वाब ही हमारे लिए बहुत रोमांचकारी था। हम सभी उनके आगमन से बड़े प्रसन्न थे। भोजन के समय मैंनें उनसे पूछा अवस्थी जी मैं क्या बनाऊँ, वे बोले बेटा उड़द की दाल बनाओ, उन्हें करारी गर्म रोटी के साथ दाल बहुत पसंद थी। और अब मैं सोचती हूँ कि जितना सरल उनका व्यक्तित्व था उतना ही सादा उनका भोजन। उन दिनों जब डा अवस्थी सिनसिनाटी आए थे, मैंने लिखना आरंभ ही किया था। मेरी कुछ रचनाएँ कादम्बिनी में छपी थीं। अवस्थी जी नें मुझे गुरू के समान आदेश दिया कि तुम्हें आज मंच पर काव्य पाठ करना है, तुम अपनी कविताएँ सुनाने के लिए तैयार कर लेना। मैं हड़बडाई और उनसे बोली कि मैंने तो कभी काव्य पाठ नहीं किया है तो इसपर वे बोले कि बेटा, हर व्यक्ति कभी ना कभी पहली बार तो दूल्हा बनता ही है, इसमें डरना क्या है। यह उनकी प्रेरणा ही थी जिसकी वजह से मैंने कविता पाठ करना आरंभ किया। पूजनीय अवस्थीजी कविता के अथाह भण्डार थे, वे कहा करते थे कि हम तो कविता के थोक व्यापारी हैं, जिस प्रकार की कविता चाहिए हाज़िर है। डा अवस्थी भारतीयता से ओत प्रोत वीर रस के कवि थे, वे भीतर बाहर काव्य ही काव्य थे। वे मुझे पत्र भी कविता के रूप में ही लिखते थे तथा सिनसिनाटी को सनसनाती हवा कह कर संबोधित किया करते थे। मैं उन्हें शत शत नमन करती हूँ, यह मेरा परम सौभाग्य था कि उन्होंने मुझे अपनी पुत्री के समान स्नेह दिया तथा कविता लिखने के लिए प्रेरणा प्रदान करी।"
कार्यक्रम के संचालक तथा सुप्रसिद्ध हास्य एवं ओज कवि अभिनव शुक्ल ने अपने संस्मरण सुनाते हुए बतलाया कि "मुझे आज भी याद है कि जब मैंनें बदायूँ में पहली बार डा अवस्थी के दर्शन किए तथा उनकी बातें सुनीं तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो मैं ज्ञान के किसी तेजपुंज के निकट बैठ कर आया हूँ। बात उन दिनों की है जब मैं बरेली के रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग के तृतीय वर्ष का छात्र था। हमारे विश्वविद्यालय की स्थापना को २५ वर्ष पूरे हुए थे। बड़े महोत्सवों एवं आयोजनों का दौर चला रहा था। कवि सम्मेलन भी होना था अतः हम विशेष रूप से प्रफुल्लित होकर दौड़ भाग के रहे थे। हमनें सुना था कि डा अवस्थी इस कार्यक्रम की अध्यक्षता करेंगे। कवि सम्मेलन हुआ पर उसमें डा अवस्थी नहीं आए, किन्तु डा उर्मिलेश से मुलाकात हुई। हमारे काव्य पाठ के बाद डा उर्मिलेश नें हमें अपने पास बुलाया तथा बदायूँ आने के लिए कहा। एक रविवार के दिन हम बस पकड़ कर बरेली से बदायूँ पहुँच गए। हमनें सुना था कि बदायूँ में यदि किसी को डा अवस्थी के घर जाना हो तो पते की आवश्यकता नहीं पड़ती, बस यह कह दो कि डा बृजेन्द्र अवस्थी के घर जाना है और पहुँच जाओगे। बस स्टाप पर हमनें इस बात की सत्यता जांचने के उद्येश्य से एक रिक्शे वाले से कहा कि हमको डा बृजेन्द्र अवस्थी के घर जाना है। रिक्शे वाला बोला दस रुपए लगेंगे। इतनी आबादी वाले शहर में भी डा अवस्थी का घर एक लैंडमार्क है।
हम उर्मिलेश जी के घर गए वहाँ चाय नाश्ता किया तथा अपनी कविताएँ सुनाईं। डा उर्मिलेश नें अपनी कुछ पुस्तकें हमें भेंट करीं तथा उनसे मिलने के बाद हम उनके आदरणीय गुरुदेव डा अवस्थी के द्वार पर जा पहुँचे। हम डा अवस्थी के द्वार पर खड़े यह सोच रहे थे कि भीतर जाकर क्या कहेंगे। इस जीवन काल में जो संबंधों का ताना बाना हमारे चारों ओर है उसमें वे मेरी माँ के मामा थे परंतु ना तो मैं कभी उनसे मिला था और ना ही मैं इस योग्य था। माँ से यह सुना था कि उनके मामा भारत के श्रेष्ठतम कवि हैं तथा जैसी सुन्दर आशुकविता वे लिखते हैं वैसी कोई नहीं लिख सकता। हमारे मोहल्ले में हमारे दूर के रिश्ते की एक बड़ी करीबी बुआ रहती थीं, एक बार जब उनके घर गए थे तब फूफाजी नें बताया था कि डा अवस्थी सन ७५ में लखनऊ के आर डी एस ओ में कवि सम्मेलन में आए थे। लोगों नें उनसे कहा कि आप अपनी "ललिता शास्त्री का स्वप्न" कविता सुनाइए, वे मुस्कुराए तथा उन्होंने अपनी जेब से एक पोस्टकार्ड निकाल कर संचालक को दे दिया तथा खूब धूम धड़ाके से अपनी कविताएँ सुनाईं। इमरजेंसी का समय था तथा पोस्टकार्ड पर उनके घर का पता था तथा यह लिखा था कि "मैं गिरफ्तार हो गया हूँ, मेरा इंतजा़र मत करना।", यह घटना उस लोहे के गेट के बाहर खड़े खड़े मेरे मानस में दौड़ रही थी। मैं सोच रहा था कि वे कितने महान हैं और मैं तो कितना निम्न हूँ, वे पहचानेंगे या नहीं, अच्छा नहीं लगता है कि कहीं भी मुँह उठाया और चल दिए, वापस लौट चलता हूँ, डा उर्मिलेश से तो मिल ही लिया हूँ तथा न जाने क्या क्या। मन भी पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर ना जाने किन कल्पना लोकों कि उड़ान में लीन हो जाता है। अभी अपनी यह उधेड़बुन चल ही रही थी कि कोई मुख्य द्वार पर आया, मैंनें लड़खड़ाते हुए कहा कि मुझे अपने नानाजी से मिलना है तथा दो मिनट में मैं उनके सामने प्रस्तुत था। बात तो करने को कुछ थी ही नहीं अतः मैंनें अपनी राम कहानी उन्हें सुनाई कि मैं उनके घर तक कैसे पहुँचा। वे मुस्कुराए तथा मेरे निकट आकर बैठ गए फिर कुछ घर परिवार की बातें हुईं, फिर साहित्यिक चर्चा हुई, नेताजी सुभाष एवं लाल बहादुर शास्त्री जी की बातें हुईं। मैंने दोपहर का भोजन उनके साथ ही किया, वे लिखने की महत्ता के विषय में बताते रहे तथा उनके द्वारा प्रदान मूल मंत्रों को मन में दोहराता हुआ वापस बरेली की बस में बैठा शाम तक बरेली वापस पहुँच चुका था। जीवन की दिशा निर्धारित हो चुकी थी, मन में यह विश्वास जग चुका था कि अब चाहे जो हो लिखना नहीं छूटेगा, कलम निरंतर चलती रहेगी।
अगली बार मुझे उनके दर्शन डा उर्मिलेश की पुत्री के विवाह के अवसर पर हुए। डा अवस्थी का विराट व्यक्तित्व था तथा वे उर्मिलेशजी के प्रति पुत्रवत अनुराग रखते थे। विवाह के निमंत्रण पत्र पर डा अवस्थी का नाम उर्मिलेश जी के पिता के नाम के निकट लिखा हुआ था। यह भी ईश्वर की अजब लेखनी है कि आज वे गुरू तथा शिष्य दोनों हमें छोड़ कर जा चुके हैं।
यदि डा अवस्थी से भेंट ना हुई होती, उनका आशीर्वाद ना प्राप्त हुआ होता तो अभिनव कभी कवि अभिनव न बन पाते। राष्ट्र के प्रति प्रचण्ड आस्था, मानव के प्रति सम्मान तथा कर्म के प्रति प्रतिबद्धता का जो पाठ उन्होंने मुझे कुछ मुलाकातों में पढ़ाया वह मेरी वर्षों की स्कूल तथा कालेज की शिक्षा मुझे नहीं पढा़ सकी। छन्द की शुद्धता, रस का संचार तथा भावों की शक्ति का वास्तविक ज्ञान मुझे आदरणीय डा अवस्थी से ही प्राप्त हुआ। उनके जाने का समाचार सुनकर मुझे ऐसा लग रहा है कि मानो मेरे हृदय में एक शून्य उत्पन्न हो गया है, एक ऐसा शून्य जिसकी भरपाई कभी संभव नहीं हो सकेगी।
आदर्शों के उस नायक को,
युग के भूषण सम नायक को,
जिन आचरणों में चन्दन था,
नित अवतारों का वन्दन था,
उन्नत ललाट पर तिलक सजा,
जीवन का अविरल शंख बजा,
जब वे मंचों पर आते थे,
तब अंधियारे छिप जाते थे,
उस महाकाव्य से जीवन को,
उन नयनों के अपनेपन को,
कविता के निर्झर सावन को,
भारत भक्ति के गर्जन को,
किस भाँति करें श्रद्धा अर्पित,
जिससे हर मस्तक हो गर्वित,
भावों में उनका ध्यान धरें,
हम मानव का सम्मान करें,
मानस में भारत देश रहे,
कोई कटुता ना क्लेश रहे,
आधार ये सारी सृष्टि हो,
शिखरों पर अपनी दृष्टि हो,
अपने कद से ना घटें कभी,
सच्चाई से ना हटें कभी,
आंधी में अविचल टिक जाएँ,
हम तुम कुछ अच्छा लिख जाएँ,
वह ही सच्चा अर्पण होगा,
वह सच्ची श्रद्धान्जलि होगी।
हिन्दी और संस्कृत के प्रकांड विद्वान तथा डा बृजेन्द्र अवस्थी के अनन्य शिष्य डा वागीश दिनकर जी नें बहुत सुंदर शब्दों में डा अवस्थी के कृतित्व से सभी को परिचित कराया तथा अपनी भावपूर्ण श्रद्धान्जलि अर्पित की। वे बोले,
"इस अनंत जीवमय संसार में नर देह दुर्लभ है और नर देह प्राप्त होने पर भी विद्वान होना दुर्लभतम् है। इसी प्रकार विद्वान होने पर भी कवि होना दुर्लभ है और कवि हो जाने पर भी शक्ति प्रतिभाशाली होना तो परम दुर्लभ है।
कहा गया है
नरत्वम् दुर्लभम् लोके, विद्या तत्रस्य दुर्लभा,
कवित्वं दुर्लभम् तत्र, शक्तिः तत्रस्य दुर्लभा।
शारदा के वरद पुत्र आचार्य डा बृजेन्द्र अवस्थी में इन सभी दुर्लभ गुणों का समवाय समाविष्ट था। वसंत पंचमी से एक दिन पूर्व डा अवस्थी का देवलोक जाना, यह भी मानो माँ भारती के प्रति उनके अत्यधिक लगाव का द्योतक ही है। मानो, माता सरस्वती को प्रणाम करने के लिए ही वे उनके जन्मदिन की पूर्व संध्या पर इस भूलोक से देवलोक प्रयाण कर गए।
श्रद्धेय अवस्थी जी का कृतित्व मैं किन शब्दों में परिभाषित करूँ यह मैं स्वयं उनसे ही पूछना चाहता हूँ,
अतुल नित्यबोधमय शोधरत विमल विनय संपन्न,
आडम्बर अभिमान अद्य मद मात्सर्य विपन्न,
अतुल ज्ञान गुण राशि अरु अद्भुत आकिंचन्य,
यह शुचिता सारल्य यह धन्य अवस्थी धन्य,
हे ओजस्वी वक्ता तुममें तेज कहाँ से यह आया,
हे कोमल कवि, सौकुमार्य यह कहो कहाँ से है पाया,
दे प्रतिभा वरदान शारदा धन्य हुई,
क्योंकि तुमने मातु भारती के चरणों में,
चढ़ा दिए सद्गुण अपने।
आचार्य अवस्थी इस युग के महामानव होने के साथ साथ विशुद्ध कीर्तिलब्ध विद्वान और प्रतिभाशाली महाकवि भी थे। हमारे प्राचीन आचार्यों नें काव्य के जो प्रयोजन बताए हैं, उन प्रयोजनों की दृष्टि से आचार्य डा बृजेन्द्र अवस्थी जी का काव्य सार्थक दिखाई देता है। यश, अर्थ, व्यवहार, अर्थ निवृति, परम सुख और कांता सम्मितोपदेश, मम्मटी द्वारा ये काव्य प्रयोजन बताए गए हैं। आचार्यश्री इन पर बिल्कुल खरे उतरते हैं।
१ जनवरी १९३१ को लखीमपुर खीरी में आचार्यश्री का जन्म हुआ। हम सब जानते हैं कि केवल छठी कक्षा में पढ़ने वाले जिस बालक की माता का शरीर समाप्त हो जाए, सातवीं कक्षा में पूज्य पिताजी का देहावसान हो जाए, ऐसे बालक की शिक्षा का आगे बढ़ना दूभर हो जाता है, दुर्लभ हो जाता है। परंतु पूज्य मामाजी श्री ओंकारनाथ मिश्र 'स्वदेश' और गुरुवर डा कुँवर चन्द्र प्रकाश सिंह का एक विशेष प्रताप ही रहा, काव्य प्रेरक श्री वंशीधर शुक्ल की एक परिणति ही रही कि हम सबके लिए डा बृजेन्द्र अवस्थी जी का काव्य सदा स्मरणीय बना रहेगा। नेहरू मेमोरियल शिवनारायण दास स्नातकोत्तर महाविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष आचार्यश्री १९९१ में सेवानिवृत्त हुए। उनके निर्देशन में एक दर्जन से भी अधिक छात्रों नें पी एच डी की उपाधि प्राप्त की। इतना ही नहीं आचार्यश्री के काव्य पर भी पी एच डी हुई है।
अमेरिका और कनाडा की दो बार साहित्यिक यात्रा हुई, दूरदर्शन तथा आकाशवाणी पर सहस्त्रों बार उनका काव्य पाठ प्रसारित हुआ।
छह दशकों से अनवरत काव्य मंचों पर वीर रस का शंखनाद करने वाले आचार्यश्री सूर्य की भाँति अपना यश फैलाते रहे।
आचार्यश्री की सबसे बड़ी विशेषता ये रही कि उनके द्वारा स्वयं अलंकरण अलंकृत होते रहे।
महाराष्ट्र का लोकनायक पुरस्कार हो, चाहे राष्ट्र रत्न पुरस्कार हो, चाहे उन्नाव का निराला सम्मान हो, फैजाबाद के द्वारा वीर रसावतार की उपाधि हो, बाल्टिमोर अमेरिका की मानद नागरिकता हो, न्यूयार्क में वीर रस शिरोमणी की उपाधि हो, चाहे कानपुर का मानस हंस सम्मान हो, फर्रुखाबाद का ब्रह्मकृति सम्मान हो, कासगंज का कवि केसरी सम्मान हो, मइहर का कीर्तिमान सम्मान, देश की ढाई सौ से भी अधिक संस्थाएँ उनका सम्मान कर के सम्मानित हो चुकी हैं। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से आपको वीरांगना अवंतीबाई सम्मान तथा प्रतिष्ठित यश भारती सम्मान से भी सम्मानित किया गया है। वास्तविकता यही है कि आचार्यश्री का काव्य इन सब पुरस्कारों पर बहुत भारी है तथा कभी भी वे पुरस्कारों के प्रति आसक्त नहीं हुए। अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व के कारण वे स्वतः ही सबके हृदयों में अपने को सम्मानित अनुभव कराते रहे।
यदि हम आचार्यश्री के रचनालोक में जाएँ तो आपको प्रसन्नता होगी कि उनकी ३१ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं,
चार महाकाव्य - रामभक्त वीर बजरंग बली, स्वातंत्र्य शूर शिवा, भगवान परशुराम, आचार्य शंकर
तीन खण्ड काव्य - सिंहगढ़ विजय, धन्य साध्वी सीते, सुधन्वा
तीन प्रबन्ध काव्य - तापसी , मन्दिर की सीढ़ियाँ, उत्तर महाभारत
एक युद्ध काव्य - जवानो ज़िन्दाबाद
एक शोक गीत - मनोरमा
एक राष्ट्रार्चन - पन्ने कुछ इतिहास के
एक मानवार्चन - राष्ट्रीय रचना
एक बृज भाषा काव्य - बृजरंजना
एक गीत काव्य - अब तुम्हारे बिना
एक राष्ट्रीय चिंतन - सूरज उगा हुआ है
चार राष्ट्रीय काव्य - दीपक जले बुझे, हवाओं पर टंगा प्रजातंत्र, पौरुष की ललकार, क्यों न काल से हारा
मेघदूत का भवानुवाद, वृन्द अपने अपने, गोधरा काण्ड पर साबरमती की अग्नि परीक्षा, ऐसी धरती को कौन गुलाम बना सकता है, बलिदान मांगती जन्म भूमि, ब्लेयर विजय, उल्टी गंगा।
ऐसी भी अनेक प्रकीर्ण ग्रन्थ एवं प्रबन्ध काव्य हैं जो आगे भी प्रकाशन की दृष्टि से अपेक्षा रखती हैं। इन रचनाओं का प्रकाशन हो तो वह भी डा अवस्थी के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धान्जलि होगी।
हम सब जानते हैं कि भक्ति और शौर्य समाज के लिए आवश्यक तत्व होते हैं, भाव रहित शौर्य व्यक्ति को अहंकारी, पापी, दम्भी व आतंकवादी बना देता है। वहीं शौर्य रहित भक्ति से समाज पलायनवादी, प्रवासी, देववादी, दूरस्थ बन कर स्वकर्तव्य परामुख हो जाता है।
डा अवस्थी में भक्ति और शौर्य शक्ति का अद्भुत संगम था। उन्होंनें असंभव को संभव कर दिखाया। वे शब्दों के चितेरे थे। वे जो एक बार मन में ठान लेते थे उसे पूर्ण करते थे।
पूर्ण मनुजावतार के रूप में चौबीस में से सोलहवें अवतार के रूप में हम भगवान परशुराम को मानते हैं। भगवान परशुराम के विभिन्न पक्षों को एक महाकाव्य के रूप में प्रस्तुत करना वास्तव में डा बृजेन्द्र अवस्थी जी का ही प्रताप हो सकता है। आपने भक्ति की अनन्य निष्ठा का जय नाद किया है। एक छन्द मैं आपके सम्मुख अवश्य रखना चाहूँगा,
भक्त चाहते तो नाच नाचते हैं विश्वनाथ,
ये तथ्य सत्य का प्रमाण कहा जाता है,
भक्त के निमित्त वंशीधर वंशी छोड़ देते,
आता है करों में धनु बाण कहा जाता है,
भक्त के समस्त कष्ट पीते हैं स्वयम् हरि,
विषपान होता सुधापान कहा जाता है,
भक्त के सदैव वश रहते हैं भगवान,
भक्त भगवान से महान कहा जाता है,
इतना ही नहीं आचार्यश्री नें अनेक घनाक्षरियों में द्विज वर्णों की पारंपारिकता, संयुक्ताक्षरों का सतत् विधान, आनुप्रासिक शब्द योजना को हमारे समक्ष बहुत सुंदर रूप में रखा है,
आचार्यश्री को इस युग का भूषण भी कहा जाता था, इन पंक्तियों को सुनकर आपको निश्चित रूप से भूषण का स्मरण हो आएगा,
ऐसे वारे न्यारे शत्रु मौत के दुलारे हुए,
लाल काल बन शत्रु प्राण लूटने लगे,
रक्त के पनारे छूटने लगे जो अंग अंग,
पैर पर धारे धरे नारे छूटने लगे,
आचार्यश्री की वात्सल्य और करुण रस की यह छटा देखिए,
प्यारी न्यारी बेटी की थी प्रार्थना कि आके पापा,
साथ साथ अपने विमान में घुमाना तुम,
नन्हें लाडले नें कहा मेरे खेलने को लिए,
शत्रुओं से जीत एक तोप लिए आना तुम,
आचार्यश्री करुण रस में भी साक्षात भवभूति के अवतार थे,
एक युवती आई शहीद शव दाह पर,
उतरी सदेह जैसे प्रतिमा भवानी की,
नयनों में अश्रु जल मुख पर दीप्ति ज्वाल,
हाथ में अंगूठी थी सगाई कि निशानी की,
बोली सूर्य मण्डल को बेध वीर चला गया,
मैं हुई दीवानी बलजीत की कहानी की,
हतभागिनी हूँ मेरा ब्याह पहले ना हुआ,
कहलाती विधवा शहीद बलिदानी की।
अंत में मैं आपको भक्ति रस की दृष्टि से एक उदाहरण देना चाहता हूँ, जब हम आचार्यश्री के भक्ति काव्य को सुनते हैं तो वे हमें सूरदास के अवतार प्रतीत होते हैं। उनके महाकाव्य वीर बजरंग बली का एक बहुत बढ़िया उदाहरण मैं आपके सम्मुख रखना चाहता हूँ। सिंदूर के प्रसंग में उन्होंने देखा, वर्णन करते हैं कि माता सीता सिंदूर लगा रही हैं। हम सब जानते हैं कि
सिंदूर स्वामी की आयु वृद्धि के लिए लगाया जाता है। उन्होंने पूछा माता ये आप क्या कर रही हैं तो सीता नें कहा पुत्र मैं सिंदूर तुम्हारे स्वामी की रक्षा के लिए, उनकि आयु वृद्धि के लिए लगा रही हूँ। तब हनुमान जी नें सारा सिंदूर अपने पूरे शरीर पर मल लिया तथा सभा में पहुँच गए। सभी सभासदों नें तथा श्री राम सबने पूछा कि अरे ये क्या हुआ, तुमने आज कैसा वेश बनाया है, आचार्यश्री बड़ा कोमल वर्णन करते हैं।
पूछा रघुनाथ नें भरी सभा में मन्द स्मित,
आज कपिराज वेश कैसा है बना लिया,
बोले हनुमान, 'मैया नित्य लगाती सिंदूर,
मैंनें आज उनसे ही यह रहस्य पा लिया,
भाल में सिंदूर लगा होती स्वामी आयु वृद्धि,
इसीलिए मैंने दृढ़ निश्चय बना लिया,
मेरे पूज्य स्वामी को अनंत आयुवृद्धि मिले,
मैंने सारे तन में सिंदूर है लगा लिया।
आज हृदय आसुओं से भरा हुआ है आज हमनें एक राष्ट्र ऋषि को खो दिया है। मेरे हृदय से यही शब्द निकल रहे हैं।
राष्ट्र सदन में जिन कविवर की काव्य कला गूँजा करती थी,
जिनके ओज भरे चरणों की प्रतिभा नित पूजा करती थी,
मुझ जैसे रचनाकारों नें जिनसे सदा प्रेरणा पाई,
बूढ़ी पीढ़ी में भी जिनने ओजोमय भर दी तरुणाई,
रचना के उत्तुंग शिखर थे श्रेष्ठ आशुकवि पद्वी धारे,
स्वीकारें श्री बृजेन्द्र अवस्थी सब प्रणाम नयनाश्रु हमारे।
सिएटल से कवि राहुल उपाध्याय नें भी डा अवस्थी को अपने श्रद्धासुमन अर्पित किए तथा सबको धन्यवाद दिया। सुभाष शर्मा एवं शकुंतला जी नें भी अपने संस्मरण सुनाए। अंत में सभी नें डा अवस्थी के सम्मान में दो मिनट का मौन रखा तथा उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की। इसके बाद एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें अनु अमलेकर, संतोष पाल, राहुल उपाध्याय, विद्या, स्वर्ण कुमार राजू, सलिल दवे, शकुंतला शर्मा तथा अभिनव शुक्ल समेत अनेक कवियों नें अपनी रचनाएँ पढ़ीं।
डा अवस्थी दिवंगत नहीं हुए हैं, हम सब के बीच में हैं। वे अपनी अमर रचनाओं के द्वारा सदा अमर रहेंगे। हम अपना प्रणाम उन तक निवेदित कर रहे हैं। हम अपने परिवार की ओर से, सारे भारत की ओर से तथा सारे संसार की ओर से उस राष्ट्र ऋषि को अपनी श्रद्धान्जलि देते हैं।