अनूपजी की सिएटल यात्रा के चित्र और काव्य गोष्ठी के कुछ अंश

Nov 12, 2009

अनूपजी की सिएटल यात्रा के कुछ चित्रों को एक चित्रावली के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास नीचे किया है.

चित्रावली देखने हेतु यहाँ क्लिक करें.

ये बताइयेगा की चित्रों के नीचे लिखे हुए काप्श्न्स कैसे लगे और यदि इनको देखकर सिएटल घूमने का मन बने तो भी सूचित कीजियेगा :)

काव्य गोष्ठी के कुछ अंश नीचे दिए गए लिंक्स पर सुने जा सकते हैं.

* अनूप भार्गव

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* नदीम शर्मा
AmarJyoti-Ghazal
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* श्यामल सुमन
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* शार्दूला
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* मानोशी चटर्जी
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* नित्यगोपाल कटारे
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* अभिनव शुक्ल
Abhinav-Suraj-Kavita
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* नोट: डॉ रमा जी नें भी काव्य पाठ किया था पर उनकी रिकॉर्डिंग ठीक नहीं आई है अतः यहाँ उपलब्ध नहीं है.

आमंत्रण - एक शाम अनूप भार्गव के नाम

Nov 3, 2009

आपको ये जानकार प्रसन्नता होगी की ई कविता याहूग्रुप के संस्थापक एवं हिंदी कविता के सुपरिचित एवं सशक्त हस्ताक्षर श्री अनूप भार्गवजी इस सप्ताहांत सिएटल आ रहे हैं. हमारे अनुरोध पर उन्होंने कुछ समय सिएटल के काव्य प्रेमियों के साथ बिताने पर अपनी सहमति प्रदान करी है. आप सभी का स्वागत है.
 
दिनांक: ७ नवम्बर २००९, शनिवार
समय: शाम ६ - ९ बजे
पता: ११०० यूनिवर्सिटी स्ट्रीट, अपार्टमेन्ट ८ ई, सिएटल, वॉशिंग्टन - ९८१०१
फ़ोन: २०६-६९४-३३५३ (अभिनव)
ई-मेल: shukla_abhinav@yahoo.com
पार्किंग: ६ बजे से स्ट्रीट पार्किंग फ्री

हास्य दर्शन दो - अभिनव की काव्य प्रस्तुति का विमोचन

Oct 27, 2009

अभिनव शुक्ल के दूसरे काव्य एल्बम, 'हास्य-दर्शन २' का विमोचन 'विश्व हिंदी न्यास' के अधिवेशन में अमेरिका के न्यू जर्सी प्रान्त की एडिसन नगरी में हुआ। अनूप भार्गव, डॉ सुरेन्द्र गंभीर, शशि पाधा, स्वामी प्रज्ञानंद, मेजर जनरल केशव पाधा, कमांडर रविन्द्र शर्मा, डॉ शशिकांत अग्रवाल और कैलाश शर्मा के कर कमलों द्वारा इस काव्य प्रस्तुति का विमोचन किया गया. 'हास्य-दर्शन दो' में अभिनव की १९ कविताओं को उनकी अपनी आवाज़ में सुना जा सकता है। इसमें हास्य, व्यंग्य, प्रवासी भाव तथा जीवन दर्शन से जुड़ी हुई कविताओं को प्रस्तुत किया गया है। अपनी इसी विविधता के कारण यह एलबम हास्य से दर्शन तक की यात्रा तय करता प्रतीत होता है।

कार्यक्रम के कुछ चित्र नीचे देखे जा सकते हैं.










शबीना अदीब का बेहतरीन गीत - तुम मुझे छोड़ के मत जाओ मेरे पास रहो

Oct 16, 2009

इधर गुरुदेव से बात हो रही थी तो उन्होंने बतलाया की शबीना अदीब जी बहुत बढ़िया गीत लिखती हैं. आज यू ट्यूब पर उनका ये गीत सुनाने को मिला. सोचा छोटी दिवाली पर आप सबको भी सुनवाया जाए. आप सभी को दिवाली की ढेर सारी शुभकामनाएं.



तुम मुझे छोड़ के मत जाओ मेरे पास रहो,
दिल दुखे जिससे अब ऐसी न कोई बात कहो,

रोज़ रोटी के लिए अपना वतन मत छोड़ो,
जिसको सींचा है लहू से वो चमन मत छोड़ो,
जाके परदेस में चाहत को तरस जाओगे,
ऐसी बेलौस मोहब्बत को तरस जाओगे,
फूल परदेस में चाहत का नहीं खिलता है,
ईद के दिन भी गले कोई नहीं मिलता है,
तुम मुझे छोड़ के मत जाओ मेरे पास रहो.

मैं कभी तुमसे करूंगी न कोई फरमाइश,
ऐश ओ आराम की जागेगी न दिल में ख्वाहिश,
फातिमा बीबी की बेटी हूँ भरोसा रखो,
मैं तुम्हारे लिए जीती हूँ भरोसा रखो,
लाख दुःख दर्द हों हंस हंस के गुज़र कर लूंगी,
पेट पर बाँध के पत्थर भी बसर कर लूंगी,
तुम मुझे छोड़ के मत जाओ मेरे पास रहो.

तुम अगर जाओगे परदेस सजा कर सपना,
और जब आओगे चमका के मुकद्दर अपना,
मेरे चेहरे की चमक ख़ाक में मिल जायेगी,
मेरी जुल्फों से ये खुशबू भी नहीं आएगी,
हीरे और मोती पहन कर भी न सज पाऊँगी,
सुर्ख जूडे में भी बेवा सी नज़र आऊँगी,
तुम मुझे छोड़ के मत जाओ मेरे पास रहो.

दर्दे फुरकत गम ए तन्हाई न सह पाउंगी,
मैं अकेली किसी सूरत भी न रह पाऊँगी,
मेरे दामन के लिए बाग़ में कांटे न चुनो,
तुमने जाने की अगर ठान ली दिल में तो सुनो,
अपने हाथों से मुझे ज़हर पिला कर जाना,
मेरी मिट्टी को भी मिट्टी में मिलकर जाना,
तुम मुझे छोड़ के मत जाओ मेरे पास रहो.

- कवयित्री: शबीना अदीब

साथ ऐसे रहें, जैसे परिवार हों,

Oct 5, 2009

पुनः प्रेषित - ज़रा बदलाव के साथ

हम गुनहगार हों, चाहे बीमार हों,
चाहे लाचार हों, चाहे बेकार हों,
जो भी हों चाहे, जैसे भी हों दोस्तों,
साथ ऐसे रहें, जैसे परिवार हों,

कुछ नियम से बहे स्वस्थ आलोचना,
हो दिशा सूर्योन्मुख सकारात्मक,
व्यर्थ में जो करे बात विघटनमुखी,
उससे क्या तर्क हों, आर हों, पार हों,

हम पढें, हम लिखें, सबसे ऊँचा दिखें,
ज़ोर पूरा लगाकर, वहीं पर टिकें,
उसपे ये शर्त रखी है सरकार नें,
फैसले सब यहीं बीच मंझधार हों,

ये भरोसा है हमको जड़ों पर अभी,
हमको आंधी से ख़तरा नहीं है मगर,
ये ज़रूरी है सबके लिए जानना,
कब रहें बेखबर, कब ख़बरदार हों,

शब्द हल्के रहें, चाहे भारी रहें,
भावनाओं के संचार जारी रहें,
अच्छे ब्लागर बनें न बनें दोस्तों,
अच्छा इंसान बनने का आधार हों.

मेजर साहब को समर्पित कुछ छंद

Sep 29, 2009

पुनः प्रेषित
दो दिन पहले सूचना मिली कि मेजर गौतम राजरिशी को गोलियां लगी हैं. आदरणीय पंकज सुबीर जी (गुरुदेव) से बात हुयी तो उन्होंने बताया कि पाकिस्तान से कुछ लोग अपनी बंदूकों पर हमारी सांस्कृतिक एकता का बिगुल बजाते, तथा अपने बमों पर सूफियाना कलाम गाते हमारे साथ अमन की इच्छा लिए भारत आना चाहते थे. उन्हीं के स्वागत सत्कार में मेजर साहब को गोलियां लगी हैं. वे अब खतरे से बाहर हैं. मेजर साहब एक अच्छा सैनिक होने के साथ साथ एक बहुत बढ़िया कवि भी हैं. इसी नाते उनसे मेल पर और टिप्पणियों के ज़रिये बातचीत भी हुयी है तथा कहीं न कहीं एक सम्बन्ध भी बन गया है. इस घटना नें बड़ा विचलित किया हुआ है. मेजर गौतम एक सच्चे योद्धा हैं तथा मुझे पूरा विश्वास है कि वे शीघ्र पूर्णतः स्वास्थ्य हो जायेंगे. मेरी और मेरे जैसे हजारों लोगों कि शुभकामनाएं उनके साथ हैं. ये समाचार लगबघ प्रतिदिन हाशिये पर आता था की मुठभेड़ हुयी, इतने जवान ज़ख्मी हुए. पर आज जब मेजर गौतम को गोली लगी है तो पहली बार एहसास हुआ है कि जब किसी अपने को चोट लगती है तो कैसा दर्द होता है. और जो दूसरी बात महसूस हुयी है वह ये कि क्या हमारी संवेदनाएं केवल उनके लिए होती हैं जिनसे हम परिचित होते हैं. तथा हमारे देश के जो सैनिक अपनी जान हथेली पर लिए रात दिन हमारी सुरक्षा में तत्पर रहते हैं उनके प्रति हमारा क्या दायित्व है. एक और बात यह भी कि अपने प्रिय पड़ोसी के साथ कब तक हम प्रेम कि झूठी आस लगाये बैठे रहेंगे. वो हमारे यहाँ बम विस्फोट करवा रहे हैं, हम उनके हास्य कलाकारों से चुटकुले सुन रहे हैं. वो हमारे यहाँ अपने आतंकियों को भेज रहे हैं, हम उनके साथ क्रिकेट खेलने के लिए बेताब हैं. वे हमारे यहाँ नकली नोटों की तस्करी करवा रहे हैं और हम उनके संगीत की धुनों पर नाच रहे हैं. वो हमारी भूमि पर अपना दावा ठोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं और हम उनको मेरा भाई मेरा भाई कह कर गले लगाते नहीं थक रहे. ये जो विरोधाभास है ये जानलेवा है. क्या हम एक देश हैं, क्या हम एक आवाज़ में अपने शत्रुओं का विरोध कर सकते हैं. इसी सब उधेड़ बुन में कुछ छंद बहते बहते मानस के पटल पर आ गए हैं जिनको आपके साथ बाँट रहा हूँ.




सिंह के हाथों में देश की कमान है मगर,
लगता है फैसले किये हैं भीगी बिल्ली नें,
उनका है प्रण हमें जड़ से मिटाना, हम,
कहते हैं प्यार दिया क्रिकेट की गिल्ली नें,
यहाँ वीर गोलियों पे गोलियां हैं खाय रहे,
मीडिया दिखाती स्वयंवर किया लिल्ली नें,
जब जब विजय का महल बनाया भव्य,
तब तब तोड़ा उसे मरगिल्ली दिल्ली नें,

हृदय में भावना का सागर समेटे हुए,
ग़ज़ल के गाँव का बड़ा किसान हो गया,
हाथ में उठा के बन्दूक भी लड़ा जो वीर,
शत्रुओं के लिए काल घमासान हो गया,
प्रार्थना है शीघ्र स्वस्थ होके आनंद करे,
मेजर हमारा गौतम महान हो गया,
भारत के भाल निज रक्त से तिलक कर,
राजरिशी राष्ट्र के ऋषि सामान हो गया.

हाथ में तिरंगा लिए बढ़ते रहे जो सदा,
कदमों के अमिट निशान को प्रणाम है,
राष्ट्रहित में जो निज शोणित बहाय रहा,
मात भारती के वरदान को प्रणाम है,
दैत्यों को देश कि सीमाओं पर रोक दिया,
वीरता की पुण्य पहचान को प्रणाम है,
करुँ न करुँ मैं भगवान् को नमन किन्तु,
गोलियों से जूझते जवान को प्रणाम है.

जय हिंद!

मेजर साहब को समर्पित कुछ छंद

Sep 28, 2009

दो दिन पहले सूचना मिली कि मेजर गौतम राजरिशी को गोलियां लगी हैं. आदरणीय पंकज सुबीर जी (गुरुदेव) से बात हुयी तो उन्होंने बताया कि पाकिस्तान से कुछ लोग अपनी बंदूकों पर हमारी सांस्कृतिक एकता का बिगुल बजाते, तथा अपने बमों पर सूफियाना कलाम गाते हमारे साथ अमन की इच्छा लिए भारत आना चाहते थे. उन्हीं के स्वागत सत्कार में मेजर साहब को गोलियां लगी हैं. वे अब खतरे से बाहर हैं. मेजर साहब एक अच्छा सैनिक होने के साथ साथ एक बहुत बढ़िया कवि भी हैं. इसी नाते उनसे मेल पर और टिप्पणियों के ज़रिये बातचीत भी हुयी है तथा कहीं न कहीं एक सम्बन्ध भी बन गया है. इस घटना नें बड़ा विचलित किया हुआ है. मेजर गौतम एक सच्चे योद्धा हैं तथा मुझे पूरा विश्वास है कि वे शीघ्र पूर्णतः स्वास्थ्य हो जायेंगे. मेरी और मेरे जैसे हजारों लोगों कि शुभकामनाएं उनके साथ हैं. ये समाचार लगबघ प्रतिदिन हाशिये पर आता था की मुठभेड़ हुयी, इतने जवान ज़ख्मी हुए. पर आज जब मेजर गौतम को गोली लगी है तो पहली बार एहसास हुआ है कि जब किसी अपने को चोट लगती है तो कैसा दर्द होता है. और जो दूसरी बात महसूस हुयी है वह ये कि क्या हमारी संवेदनाएं केवल उनके लिए होती हैं जिनसे हम परिचित होते हैं. तथा हमारे देश के जो सैनिक अपनी जान हथेली पर लिए रात दिन हमारी सुरक्षा में तत्पर रहते हैं उनके प्रति हमारा क्या दायित्व है. एक और बात यह भी कि अपने प्रिय पड़ोसी के साथ कब तक हम प्रेम कि झूठी आस लगाये बैठे रहेंगे. वो हमारे यहाँ बम विस्फोट करवा रहे हैं, हम उनके हास्य कलाकारों से चुटकुले सुन रहे हैं. वो हमारे यहाँ अपने आतंकियों को भेज रहे हैं, हम उनके साथ क्रिकेट खेलने के लिए बेताब हैं. वे हमारे यहाँ नकली नोटों की तस्करी करवा रहे हैं और हम उनके संगीत की धुनों पर नाच रहे हैं. वो हमारी भूमि पर अपना दावा ठोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं और हम उनको मेरा भाई मेरा भाई कह कर गले लगाते नहीं थक रहे. ये जो विरोधाभास है ये जानलेवा है. क्या हम एक देश हैं, क्या हम एक आवाज़ में अपने शत्रुओं का विरोध कर सकते हैं. इसी सब उधेड़ बुन में कुछ छंद बहते बहते मानस के पटल पर आ गए हैं जिनको आपके साथ बाँट रहा हूँ.




सिंह के हाथों में देश की कमान है मगर,
लगता है फैसले किये हैं भीगी बिल्ली नें,
उनका है प्रण हमें जड़ से मिटाना, हम,
कहते हैं प्यार दिया क्रिकेट की गिल्ली नें,
यहाँ वीर गोलियों पे गोलियां हैं खाय रहे,
मीडिया दिखाती स्वयंवर किया लिल्ली नें,
जब जब विजय का महल बनाया भव्य,
तब तब तोड़ा उसे मरगिल्ली दिल्ली नें,

हृदय में भावना का सागर समेटे हुए,
ग़ज़ल के गाँव का बड़ा किसान हो गया,
हाथ में उठा के बन्दूक भी लड़ा जो वीर,
शत्रुओं के लिए काल घमासान हो गया,
प्रार्थना है शीघ्र स्वस्थ होके आनंद करे,
मेजर हमारा गौतम महान हो गया,
भारत के भाल निज रक्त से तिलक कर,
राजरिशी राष्ट्र के ऋषि सामान हो गया.

हाथ में तिरंगा लिए बढ़ते रहे जो सदा,
कदमों के अमिट निशान को प्रणाम है,
राष्ट्रहित में जो निज शोणित बहाय रहा,
मात भारती के वरदान को प्रणाम है,
दैत्यों को देश कि सीमाओं पर रोक दिया,
वीरता की पुण्य पहचान को प्रणाम है,
करुँ न करुँ मैं भगवान् को नमन किन्तु,
गोलियों से जूझते जवान को प्रणाम है.

जय हिंद!

'हैप्पी हिंदी डे'

Sep 15, 2009

'हिंदी डे' की आपको बहुत मुबारकबाद,
आई है ये शुभ घड़ी एक साल के बाद,
एक साल के बाद चलो कुछ हिंदी कर लें,
भाषा को कर चार्ज बैटरी अपनी भर लें,
बात हमारी सुनकर के वो बोले, 'क्या बे?',
हमनें हँस कर कहा गुरु 'हैप्पी हिंदी डे'.
 
वो सुबह कभी तो आएगी,
वो सुबह कभी तो आएगी,
 
जब हिंदी भाषा का सूरज सारी दुनिया में दमकेगा,
जब हिंदी लेखक के घर में नोबेल का प्राइज़ चमकेगा,
जब हिंदी कवि सम्मलेन की,
हर एक सीट बिक जायेगी,
वो सुबह कभी तो आएगी,
वो सुबह कभी तो आएगी,
जब दिनकर पन्त निराला पर हालीवुड फिल्म बनाएगा,
जब आक्सफोर्ड की गलियों में तुलसी को पढ़ाया जाएगा,
जब माईकल रसिया नाचेगा,
जब सिंडी कजरी गाएगी,
 
वो सुबह कभी तो आएगी,
वो सुबह कभी तो आएगी.
आप सभी को हिंदी दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं.
 
अभिनव

जय श्री राम! - एक वेबसाईट

Sep 12, 2009

आप सभी को नमस्कार,
 
इस वेबसाईट पर कुछ बहुत बढ़िया प्रवचन सुनने को मिले. परम आदरणीय जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य जी के प्रवचन अवश्य सुनियेगा.
 
 
जय श्री राम!
जय जय श्री राम!
 
आपका
अभिनव
 
वेद और पुराण सुनने के लिए आप www.vedpuran.com पर जा सकते हैं.

काका को टक्कर - हप्पी बर्डे टू यू अनूप भार्गव जी

Sep 8, 2009
















नाम रूप के भेद पर काका लिख गए काव्य,
नाम काम हो उलट पुलट बड़ा सहज संभाव्य,
बड़ा सहज संभाव्य, मगर काका को टक्कर,
नाम अनूप और काम अनूप ये कैसा चक्कर,
अनुपम बेला खिली रहे जीवन में आठों याम,
काव्य कला का हो सदा पर्याय आपका नाम.

जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएं.

पुनश्च:
1. चित्र में: अनूप भार्गव एवं राकेश खंडेलवाल (दाएं से बायें)
2. काका हाथरसी की कविता 'नाम रूप का भेद' यहाँ पर पढ़ी जा सकती है.

हमें विभाजन से बहुत प्यार है

Sep 7, 2009

मुझे हिंदी की अनेक संस्थाओं को निकट से जानने का अवसर मिला है. एक बात जो लगभग सभी संस्थाओं में सामान रूप से महसूस की है वह है उसका विभाजन. चाहे बंगलोर की साहित्यिक संस्था हो या चाहे हैदराबाद की, चाहे लखनऊ वाले हों या अमेरिका वाले सब विभाजित होते रहे हैं. एक बार इसी विभाजन पर निम्न कविता लिख कर किसी पत्रिका के संपादक को भेजी थी. रचना खेद सहित वापस तो नहीं आई पर छपी भी नहीं. वही रचना नीचे दे रहा हूँ.

हमें विभाजन से बहुत प्यार है

हमें विभाजन से बहुत प्यार है,
हर संस्था विभाजित होने को तैयार है,
संस्था हिंदी की हो तो टूटन और हसीन हो जाती है,
विशेष विशेषणों के प्रयोग से,
शब्दों की दशा दीन हो जाती है,
नए अध्यक्ष, नए सचिव उगते हैं,
नई फसल के दानों को चुगते हैं,
कुछ दिनों तक सब ठीक चलता है,
साहित्य का पेट्रोमैक्स,
भभक भभक कर जलता है,
फिर निर्धारित होती है पदों की पहचान,
प्रारंभ होता है सम्मानितों का सम्मान,
अहंकार जगमगाता है,
विश्वास डगमगाता है,
'मैं' हो जाता है 'हम' से बड़ा,
छलकने लगता है सब्र का घड़ा,
तय होता है कि खीर के खाली कटोरे,
घूमेंगे सबके बीच बारी बारी,
शुरू हो जाती है,
एक और विभाजन की तैयारी,
हमें विभाजन से बहुत प्यार है।


शब्दार्थः
विशेष विशेषणः गाली गलौज
सम्मानितों का सम्मानः लक्ष्य से भटकना
खीर के खाली कटोरेः संस्था के प्रमुख पद


पुनश्च: अपने ब्लॉग के स्वरुप (रंग रूप) में कुछ परिवर्तन किया है.

इनका रूप संवर सकता है

Sep 3, 2009

एक बार लखनऊ से इलाहबाद जाते समय एक मजदूरनी सामने आ कर बैठ गयी. उसे आस पास के सभी लोगों नें बड़ी हेय दृष्टि से देखा और सब थोडा थोडा सरक गए. न जाने तभी कहाँ से ये भाव उड़ते हुए आये और काग़ज़ पर उतर गए.
 
इनका रूप संवर सकता है
 
अगर शुष्कता से मरुथल की, अधरों पर न पर्त पड़े,
और रेत की आंधी से, न इन केशों का रंग उड़े,
अगर हाथ पत्थर न बन जाएँ चट्टानों से लड़कर,
और रंग न बदले चमड़ी ऊँचे पर्वत पर चढ़कर,

अगर कंठ में लटकी चाँदी, सोने जैसी चमक सके,
और आवरण में जीवन के, आ फूलों की महक सके,
अगर आँख के गड्ढों की कालिख न आँखों में झलके,
और पेट की भूख यहाँ पल पल न बच्चों में ढलके,
तो फिर हर जलयान, अनोखे भवसागर से तर सकता है,
इनका रूप संवर सकता है,
इनका रूप संवर सकता है.....

पुनश्च: ये रचना कुछ वर्षों पहले लिखी थी, अब कहाँ इलाहबाद, कहाँ लखनऊ और कहाँ हम. बस स्मृतियाँ हैं.

तुम्हारी और मेरी आवाज़

Aug 22, 2009

तुम्हारी आवाज़,
आज तुमने मुझसे पूछा कि मुझे तुम्हारी आवाज़ कैसी लगती है,
तो सुनो,
तुम्हारी आवाज़ मुझे दुनिया की सबसे मीठी आवाज़ लगती है,
जब जब तुम बोलती हो,
खाना बन गया है,
तुम आराम करो,
लाओ मैं तुम्हारे पैर दबा दूं,
मुझे लगता है की मेरे कानों में शहद घोल रही हो तुम्हारी आवाज़.

जब जब तुम बोलती हो,
तुम्हारे कपड़े प्रेस हो गए हैं,
मैंने तुम्हारा कमरा ठीक कर दिया है,
ये लो अपना टिफिन,
मुझे लगता है, क्या तुमसे मीठी हो सकती है कोई भी आवाज़,

पर न जाने क्यों मुझे कड़वी लगने लगती है तुम्हारी आवाज़,
जब जब तुम कहती हो,
बर्तन माँज दो,
कपड़े ले आओ ड्रायर से,
बच्चे का डायपर बदल दो,
मैं परहेज़ करता हूँ ऐसी आवाजें सुनने से.

जब जब तुम आदेश देती हो,
टेबल पोंछ दो,
चलो मेरे साथ बाज़ार,
भर दो सारे बिल,
मेरे कान पकने लगते हैं,

कोशिश करना कि तुम्हारी आवाज़ की मिठास सदा उसकी कड़वाहट पर भारी रहे,
ताकि मुझे सदा मीठी लगती रहे,
तुम्हारी आवाज़,

वैसे तुमको मेरी आवाज़ कैसी लगती है?
----------------------------------
मेरी आवाज़,
मेरे एक ज़रा से प्रश्न के उत्तर में,
तुमने अपनी पूरी मानसिकता उडेल कर रख दी,
फिर भी मुझे नहीं बताया,
कि मेरी आवाज़ तुम्हें लगती कैसी है,

मैं बताती हूँ,
कि मुझे तुम्हारी आवाज़ कैसी लगती है,
सुनो,

मुझे तुम्हारी आवाज़ बहुत मीठी लगती थी,
जब शादी से पहले,
तुम किया करते थे उच्च आदर्शों की बातें,
कहा करते थे की स्त्री और पुरुष में फर्क नहीं करते हो,
मेरी हर ग़लती को कोई बात नहीं कह कर टाल दिया करते थे,
मुझे लगता था,
ये आवाज़ तो मैं अपने जीवन भर सुन सकती हूँ,

मुझे आज भी कभी कभी अच्छी लगती है तुम्हारी आवाज़,
जब सुबह सुबह तुम मुझे जगाते हुए कहते हो, चाय पी लो,
जब बिना कहे मुन्ने को कर देते हो तैयार,
मेरे खाना खाते समय जब तुम मेरे पास बैठ जाते हो बिना किसी मान मनौवल के,
तब तब मेरे कानों में मिसरी घोल जाती है तुम्हारी आवाज़,

लेकिन,
न जाने क्यों,
मुझे ज्यादातर कड़वी लगने लगी है,

जब जब तुम कहते हो,
मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता,
ये क्यों खरीदना है,
मेरे पास तुमसे बातचीत करने का समय नहीं है,
मुझे दुखी कर जाती है तुम्हारी आवाज़,

मुझे लगती है ज़हरीली,
जब तुम बनाते हो बहाने,
मुझको देते हो ताने,
मेरे मायके को कुछ बोलते हो जाने अनजाने,
मुझे लगता है,
मैं और नहीं सुन सकती,

क्या तुम कोशिश करने को तैयार हो,
ताकि मुझे तुम्हारी आवाज़ हमेशा मीठी लगे.

तुम्हारी आवाज़

आज तुमने मुझसे पूछा कि मुझे तुम्हारी आवाज़ कैसी लगती है,
तो सुनो, 
तुम्हारी आवाज़ मुझे दुनिया की सबसे मीठी आवाज़ लगती है,
जब जब तुम बोलती हो,
खाना बन गया है,
तुम आराम करो,
लाओ मैं तुम्हारे पैर दबा दूं,
मुझे लगता है की मेरे कानों में शहद घोल रही हो तुम्हारी आवाज़.
 
जब जब तुम बोलती हो,
तुम्हारे कपड़े प्रेस हो गए हैं,
मैंने तुम्हारा कमरा ठीक कर दिया है,
ये लो अपना टिफिन,
मुझे लगता है की क्या तुमसे मीठी हो सकती है कोई भी आवाज़,
 
पर न जाने क्यों मुझे कड़वी लगने लगती है तुम्हारी आवाज़,
जब तुम कहती हो की,
बर्तन माँज दो,
कपड़े ले आओ ड्रायर से,
बच्चे का डायपर बदल दो,
मैं परहेज़ करता हूँ ऐसी आवाजें सुनने से.
 
जब तुम आदेश देती हो,
टेबल पोंछ दो,
चलो मेरे साथ बाज़ार,
भर दो सारे बिल,
मेरे कान पकने लगते हैं,
कोशिश करना कि तुम्हारी आवाज़ की मिठास सदा उसकी कड़वाहट पर भारी रहे,
ताकि मुझे सदा मीठी लगती रहे तुम्हारी आवाज़,
वैसे तुमको मेरी आवाज़ कैसी लगती है?
 
_______________________
Abhinav Shukla
206-694-3353
P Please consider the environment.

सम्बन्ध अभी जीवित है - श्रद्धांजलि

Aug 21, 2009

भारतीय साहित्य जगत को पिछले कुछ महीनों में जो आघात पहुंचे हैं वे बड़े गहरे हैं. साहित्य ऋषि विष्णु प्रभाकर के देहवसान के एक सप्ताह के भीतर संस्कृत के परम विद्वान आचार्य रामनाथ सुमन के जाने का समाचार आया. अभी साहित्य संसार प्रातः स्मरणीय सायं वन्दनीय आचार्य रामनाथ सुमन जी के परमधाम गमन के शोक से उबारा ही नहीं था कि वीर रस के प्रख्यात कवि छैल बिहारी वाजपेयी 'बाण' के जाने की सूचना प्राप्त हुई. जब तक काव्य मंचों पर पड़ी ये काली छाया टलती, भोपाल के पास एक कार दुर्घटना हुई जिसमें हास्य सम्राट ओमप्रकाश आदित्य, लाड़ सिंह गुर्जर और नीरज पुरी भी माता सरस्वती की गोद में चले गए. फिर अल्हड़ बीकानेरी जी के देहवसान की सूचना प्राप्त हुई और अभी कुछ देर पहले फ़ोन पर बजने वाली दुर्दांत रिंगटोन नें ओम व्यास ओम के जाने का समाचार सुनाया है. ओम व्यास एक महीने तक मृत्यु से साथ संघर्ष करते रहे और अंततः हम सबको छोड़ कर चले गए. जीवन की नश्वरता और क्षणभंगुरता का भान किसे नहीं होता. पर यह भान सदा कहीं छिपा सा रहता है. हमको ऐसा लगता है कि जो हमारे परिचित हैं हमारे प्रिय हैं उनका कुछ बुरा नहीं हो सकता और जब एक के बाद एक इस प्रकार की सूचनाएं आती हैं तो हृदय आघात सहने का अभ्यस्त सा होने का प्रयास करने लगता है. इन महानुभावों के गमन ने हिंदी साहित्य जगत में एक ऐसी रिक्तता भर दी है जिसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकेगी.

'आवारा मसीहा' और 'अर्धनारीश्वर' जैसे अद्भुत उपन्यासों के रचयिता विष्णु प्रभाकर नें कभी अपने लेखकीय स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं किया. 'पद्मभूषण' की उपाधि ठुकराने वाले इस लेखक की ख्याति सरकारी सम्मानों से नहीं अपितु उसकी लेखनी की धार से तथा पाठकों के स्नेह के बल पर सारे संसार में अपनी सुगंध बिखेर रही है. गांधीजी के आदर्शों पर जीवन पर्यंत चलने वाले विष्णु प्रभाकर देशभक्ति और मानवीय संवेदनाओं के सच्चे सिपाही थे. किसी ने ठीक ही कहा है कि, विष्णु प्रभाकर के जाने से साहित्य 'पंखहीन' हो गया है.

आचार्य रामनाथ सुमन पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे. जब पिछले वर्ष मुझे उनके दर्शन का लाभ प्राप्त हुआ तो ऐसा लगा मानो वे भारतीयता का एक महासागर हैं जिसकी लहर लहर अपने भीतर से मोती लाकर तट पर छोड़ती जा रही है. कुछ माह पूर्व ही उनके सुपुत्र और सुकवि डा वागीश दिनकर से आचार्य जी की नयी कविता सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. उस कविता की कुछ पंक्तियां अभी भी मानस के पटल पर उभरती रहती हैं.

नश्वर है यह देह अनश्वर अपने आत्माराम हैं,
जिनकी इच्छा बिना न जग में पूरे होते काम हैं,
हमको प्रभु नें भेजा देखो हमनें जीवन खूब जिया,
अच्छा पहना अच्छा गहना अच्छा खाया और पिया,
हम जग में रोते आये थे हंसते अपनी कटी उमर,
हमने राह गही जो अपनी वह औरों को बनी डगर,
हम उपवन के वही सुमन जो खिलते आठों याम हैं,

उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी के पूर्व अध्यक्ष आचार्य सुमन नें अनेक ग्रंथों की रचना की है. बाणभट्ट द्वारा रचित संस्कृत ग्रन्थ कादम्बरी के पर की गयी उनकी टीकाएं अद्भुत हैं. यह टीकाएं अब अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं. आचार्य जी का हिंदी और संस्कृत दोनों पर सामान रूप से अधिकार था और जब वे बोलते थे तो ऐसा लगता था मानो वे बोलते ही रहे और सब मंत्रमुग्ध होकर उनको सुनते ही रहें. पूज्य आचार्य जी को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी की हम अपने जीवन में भारतीय दर्शन को उतारने का प्रयास करें.

पंडित छैल बिहारी वाजपेयी 'बाण' उत्तर भारत के लोकप्रिय वीर रस के कवियों में से एक थे. जब वे मंच पर गरज गरज कर अपनी रचनायें सुनाते थे तो अद्भुत समां बाँध देते थे. अमेरिका में होने वाले एक कवि सम्मलेन में बाण जी के सुपुत्र और वीर रस के राष्ट्रीय कवि वेदव्रत वाजपेयी को आमंत्रित किया गया था. कवि सम्मलेन वाले दिन मैंने जब न्यू जर्सी बात करी तो डा सुनील जोगी नें ये दुखद सूचना दी कि किस कारण से वेदव्रत जी नहीं आ पाए हैं. बाण जी के निधन से अवधी कविता को मंच पर पूरी गरिमा से प्रस्तुत करने वाला एक सैलानी कम हो गया है. प्रखर राष्ट्रीयता की भावना को हिम्मत के साथ बोलने तथा श्रोताओं में अग्नि धर्मा रचनाओं को पढने वाला एक शिखर पुरुष हमारे बीच से चला गया है. उनकी कुछ पंक्तियां अभी भी मेरी स्मृतियों में हैं.

देखते ही देखते गंवाया गया बंग और वक्त हाथ आया तो मिलाया भी गया नहीं,
सवा लाख शत्रुओं के शास्त्र डालने के बाद बंकिम धरा को अपनाया भी गया नहीं,
दाहिड नरेश की वसुंधरा कराची पर झंडा ये तिरंगा लहराया भी गया नहीं,
रोज़ राष्ट्र गान में पढाया गया सिंध किन्तु हिंद मानचित्र में दिखाया भी गया नहीं.

आदित्य दा से हुयी पहली मुलाकात मानो मेरी आँखों के आगे एक बार पुनः घूम गयी. सन् ९९ के दिसम्बर के आस पास कि बात है. रुड़की विश्वविद्यालय अपना वार्षिकोत्सव थोम्सो मना रहा था. मैं भी बरेली से अपने कालेज की टीम लेकर वहां पहुंचा था. अनेक प्रतियोगिताएं होनी थीं तथा रुड़की के छात्रों नें सब व्यवस्था बहुत भली प्रकार से संभल रखी थी. उस समय रुड़की के कार्यक्रमों में नियमित कवि सम्मलेन होते थे. मधुरजी कवियों को बुलाने और उनके रुकने आदि कि व्यवस्था करते थे. जब उनको पता चला कि रूहेलखंड विवि के छात्रों में से एक कविता लिखता है तो उन्होंने मुझे भी मंच पर बुला कर बैठा दिया. आदित्यजी कार्यक्रम कि अध्यक्षता कर रहे थे. तब तक मुझपर हास्य रस का बुखार पूरी तरह नहीं चढ़ा था और मैं मंच पर वीर रस की रचनायें ही पढ़ा करता था. जब आदित्यजी काव्य पाठ करने आये तो उन्होंने सभी कवियों के काव्य पाठ पर कुछ शब्द कहे और मुझे भी आर्शीवाद देते हुए कहा की ये लड़का लिखता अच्छा है पर अपनी ऊर्जा व्यर्थ में बर्बाद कर रहा है. इसके बाद उन्होंने वीर रस के कवियों को समर्पित करते हुए हास्य रस की एक रचना पढ़ी. इसके बाद एक एक करके उन्होंने अपने पिटारे से अनेक मनभावन कविताएं श्रोताओं को सुनायीं. शब्दों को एक विशेष रूप से उच्चारित करने का उनका अंदाज़ निराला था. 'गोरी बैठ छत पर', 'संपादक के नाम पत्र', 'लापता गधा' और 'दूर दूर बैठे मुझे घूर घूर देखते हो' आदि रचनायें आज के हास्य रस के कवियों के लिए एक मापदंड के रूप में स्थापित हैं.

कार्यक्रम की समाप्ति पर उनका ऑटोग्राफ लेने के लिए छात्रों की लाइन लग गयी. उन्होंने मुस्कुराते हुए सबको आटोग्राफ दिया और फिर सभी कवि आगे बढे. रस्ते में मैंने उनसे पूछा कि, 'अच्छा लिखने के लिए क्या करना चाहिए?'. वे बोले की खूब पढना चाहिए. मैंने पूछा कि क्या पढना चाहिए तो इसपर वे हँसे और बोले की पढना शुरू करो तो तुमको स्वयं पता चल जाएगा की तुम क्या पढने के योग्य हो. हिंदी के कवि होने के नाते तुम ये अवशय जानना चाहोगे की भारतीय साहित्य में जो कुछ भी श्रेष्ठ लिखा गया है वो श्रेष्ठ क्यों है. इस घटना के बाद भी दो तीन बार मुझे उनके दर्शन और सानिध्य का लाभ प्राप्त हुआ. अंतिम बार उनके दर्शन पिछले वर्ष दिल्ली के फिक्की सभागृह में आयोजित एक कार्यक्रम में हुए. इस कार्यक्रम में उन्होंने उन कवियों की कविताएं सुनायीं थीं जो की इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे. किसे पता था की आदित्यजी इस प्रकार इस संसार को छोड़कर जाने वाले हैं.


पिछले कुछ समय से आदित्य जी को मैंने मंचों पर ये छंद पढ़ते सुना था.

दाल रोटी दी तो दाल रोटी खाके सो गया मैं,
आँसू तूने दिये आँसू पीये जा रहा हूँ मैं,
दुख तूने दिये मैने कभी न शिकायत की,
सुख दिये तूने सुख लिए जा रहा हूँ मैं,
पतित हूँ मैं तो तू भी पतित पावन है,
जो तू कराता है वही किए जा रहा हूँ मैं,
मृत्यु का बुलावा जब भेजेगा तो आ जाऊँगा,
तूने कहा जिये जा तो जिये जा रहा हूँ मैं.

अल्हड़ जी की कविताएं अपने भीतर एक पूरी कहानी समेटे रहती थीं. जब वे अपनी "होठों से छुआ के मूंगफली महबूब को मारा करते हैं" कव्वाली पूरी मस्ती के साथ गाते थे तो मानो पूरा वातावरण तालियों में डूब जाता था. वे मंच पर पूरे अल्हड़पन के साथ अपनी रचनायें पढ़ते थे और बड़ी सरलता से अपनी बात श्रोता तक पहुंचाने के हुनर में माहिर थे. अल्हड़ जी की निम्न पंक्तियां सदा उनके तेवर हमको याद दिलाती रहेंगी.

खुद पे हंसने की कोई राह निकालूँ तो हंसूं,
अभी हँसता हूँ ज़रा मूड में आ लूं तो हंसूं,
जिनकी साँसों में कभी गंध न फूलों की बसी,
शोख कलियों पें जिन्होंने सदा फब्ती ही कसी,
जिनकी पलकों के चमन में कोई तितली न फंसी,
जिनके होठों पे कभी भूले से आई न हंसी,
ऐसे मनहूसों को जी भर के हंसा लूं तो हंसूं,
अभी हँसता हूँ ज़रा मूड में आ लूं तो हंसूं.

लाड़ सिंह गुर्जर मध्य प्रदेश के एक बहुत छोटे से गाँव से उठकर राष्ट्रीय स्तर के मंचों पर पहचान बनाने वाले कवि थे. मंच पर वे अनेक रसों कि कविताएं पढ़ते थे पर उनका मुख्य स्वर वीर रस का रहता था. एक सुरीले कंठ के धनी लाड़ सिंह गुर्जर जब अपने लोकगीत सुनाते थे तो सबको आनंद विभोर कर देते थे. उनका इस प्रकार असमय जाना नियति कि कुटिलता का सूचक है.

नीरज पुरी मेरे प्रिय कवियों से एक थे. उनकी रचनाओं में छिपा व्यंग बड़ा तीखा होता था. नीरज पुरी एक श्रेष्ठ हास्य कवि तो थे ही पर कविता से इतर भी उनका स्वभाव बड़ा हंसमुख था. बात बात में लोगों को ठहाके लगाने के लिए मजबूर कर देना उनके दैनिक जीवन का हिस्सा था. हाथ में लिए हुए काम को पूरी कर्मठता के साथ निभाना उनकी एक बड़ी खूबी थी. एक बार वे कवि सम्मलेन से लौट कर आये तो पता चला की बैंक में कोई आवश्यक काम आ गया है. फिर क्या था अपने सहकर्मियों के साथ वे भी लगातार अड़तालीस घंटे बैंक में काम करते रहे. जिस बैंक की नौकरी के लिए उन्होंने त्याग किये थे एक बार ऐसा समय भी आया जब उनको वहां से निकाले जाने की नौबत आ गयी. पर नीरज जी नें कभी हिम्मत नहीं हारी और वो कठिन समय भी बीत गया तथा बैंक नें उन्हें ससम्मान दुबारा नियुक्त कर लिया. बाद में अनेक अवसरों पर उसी बैंक में नीरज जी के सम्मान में कार्यक्रम भी आयोजित हुए. नीरजजी की कविताएं उनके कालेज के समय से ही लोगों में अपना स्थान बनाने लगी थीं. मुझे आज भी याद है की जब २००५ में उनको काका हाथरसी सम्मान से सम्मानित किया गया तो वे कितने प्रसन्न थे. मैंने जब उनको शुभकामनाएं दीं तो उन्होंने धन्यवाद दिया और फिर बड़ी विनम्रता से बोले, की अरे भाई, 'पप्पू पास हो गया'. उस दिन मैंने उनकी आँखों में आगे और भी बहुत कुछ करने का और और अपनी संप्रेषण धर्मी रचनाओं में संसार को समेटने का भाव देखा था.

ओम व्यास की कविताएं तथा उनका अनूठा अंदाज़ सबको बहुत पसंद आता था. व्यवहार में सरलता ओम व्यास का एक अनूठा गुण था. उनकी कुछ पंक्तियां उनके आचरण कि पुनरुक्ति सी करती प्रतीत होती हैं.

विश्व में किसी भी देवता का स्थान दूजा है,
माँ-बाप की सेवा ही सबसे बडी पूजा है,
विश्व में किसी भी तीर्थ की यात्रा व्यर्थ हैं,
यदि बेटे के होते माँ-बाप असमर्थ हैं,
वो खुशनसीब हैं माँ-बाप जिनके साथ होते हैं,
क्योंकि माँ-बाप के आशिषों के हज़ारों हाथ होते हैं।

संजय पटेल के ब्लाग पर नितिन गामी नें ओम व्यास कि अंतिम यात्रा के विषय में बताया है कि, ''जगह जगह स्टेज बनाकर, लाउडस्पीकर लगाकर पूरे उज्जैन में ओम व्यास की पूर्व-रेकॉर्डेड रचनाओं का प्रसारण हो रहा था. बड़ी बात यह है कि ये काम न प्रशासन ने किया , न किसी नामचीन संस्था ने, आम दुकानदारों ने बाज़ार बंद रखकर ओम व्यास के लिये यह काव्यात्मक श्रध्दांजली देने का ग़ज़ब का कारनामा किया. एक कवि की ताकत आम आदमी होता है, जिसे वह न नाम से जानता है , न सूरत से ...लेकिन बस अपने प्यारे कवि से मोहब्बत करता है.आज उज्जैन की सड़कों पर बना ये मंज़र हमारे नगर को पहचान देने वाले पं.सूर्यनारायण व्यास,शिवमंगल सिंह सुमन और सिध्देश्वर सेन की कड़ी में एक और नाम जोड़ गया....ओम व्यास "ओम"'. ये पढ़कर कहीं न कहीं अश्रुपूरित नेत्रों को ऐसा लगा कि अभी भी हमारे देश में कवि और आम लोगों के बीच ह्रदय का एक सम्बन्ध जीवित है.

हिंदी साहित्य के लिए तथा कविता के मंचों के लिए यह एक कभी न पूरी होने वाली क्षति है. जून २००९ तो हमारे काव्य मंचों पर वज्रपात के माह के रूप में याद किया जाएगा. कहा जाता है की कलाकार अपनी कला के माध्यम से सदा जीवित रहता है. ये रचनाकार तब तक अमर रहेंगे जब तक इनके शब्दों को सुनकर लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहटें बनी रहेंगी. मैं अपनी, हिंदी चेतना परिवार की तथा संपूर्ण काव्य जगत की ओर से कलम के इन सिपाहियों के प्रति श्रध्हांजलि अर्पित करता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वे इनकी आत्मा को सद्गति प्रदान करें.


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।

- हिंदी चेतना से साभार.

एक कविता - “आमार शोनार बांगला”

Aug 20, 2009

गूँजा था वन्दे मातरम का गान जहाँ से,

गुरूदेव ने दी थी हमें पहचान जहाँ से,

ये शस्य श्यामला, विवेकानंद की धरती,

साहित्य में डूबी है शरदचंद्र की धरती,

चैतन्य महाप्रभु के अदभुत प्रकाश ने,

हमको दिखाई राह जहाँ थी सुभाष ने,

उड़ती हैं खुशबुएं जहाँ गंगा की छाँव में,

बहती हैं स्वर की लहरियाँ भी गाँव गाँव में,

घर घर में जहाँ होती है माँ शक्ति की पूजा,

बंगाल जैसा राज्य कहीं है नहीं दूजा,

वैसे तो पूरा देश जादू करामात है,

"आमार शोनार बांगला" की और बात है।

 

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अभिनव शुक्ल
206-694-3353

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नव अंकुर मृदा से फूटेंगे, बस वायु वेग संचार रहे,

सक्षम हम हैं यह ज्ञात रहे, बढ़ती क़दमों की धार रहे.

एक कविता - सूर्य, ग्रहण और मानव

Jul 23, 2009

मिहिर, भानु, आदित्य, दिवाकर,
दिनकर, रवि, मार्तंड, प्रभाकर,
पद्मिनिकांत, दिव्यांशु, नभश्चर,
अरणी, द्युम्न, अवनीश, विभाकर

आदिदेव, ग्रहराज, दिवामणि,
छायानाथ, अरुण, कालेश,
ध्वान्तशत्रु, भूताक्ष, त्रयीतन,
वेदोदय, तिमिरहर, दिनेश,

पुष्कर, अंशुमाली, प्रत्यूष,
सूर्य देव के नाम अनेक,
सघन ऊष्मा है शब्दों में,
अनुभव कर देखो प्रत्येक,

निस बासर रहता है मानव,
इसके आगे घुटने टेक,
ग्रहण लग रहा आज जगत में,
दुनिया आज रही है देख.

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Abhinav Shukla
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मसखरा कवि से अधिक प्रणम्य है

Jul 21, 2009


अमिताभ जी बहुत बढ़िया लिखते हैं. इसका एक बड़ा प्रमाण ये है  कि आज सुबह जब मैंने उनकी ग़ज़ल 'माना मंचों का सेवन...' पढ़ी तो अपने मन के भावों को उतारे बिना नहीं रह पाया. ये मेरे नितांत निजी भाव हैं, किसी का इनसे सहमत या असहमत होना स्वाभाविक है. पर मुझे लगता है की जब तक हम कविता हो सरलता और संप्रेषण की दृष्टि से सुगम नहीं बनायेंगे तब तक बात बनेगी नहीं. क्या कारण है की राजू श्रीवास्तव की बात सारा ज़माना समझ जाता है ?

 

क्या केवल मन की पीड़ा बोझिल शब्दों में,
काग़ज़ पर बिखरा देना कविता होती है,
या कोई सन्देश बड़े आदर्शों वाला,
ज़ोर ज़ोर से गा देना कविता होती है,

 

वैसे भी भाषाओं पर संकट भारी है,
इस पर बोझ व्यंजनाओं का लक्षणाओं का,
अभिधा की गलियों से भी होकर जाता है,
मिटटी से जुड़ने वाला इक गीत गाँव का,

 

मंचों पर जो होता है वो नया नहीं है,
बड़े बड़े ताली की धुन पर नाच रहे हैं,
और लिफाफे का सम्बन्ध है अट्टहास से,
हम ही क्यों धूमिल की कापी जांच रहे हैं,

 

बात ठीक है इसमें कुछ संदेह नहीं है,
कवि में और विदूषक में होता है अंतर,
किन्तु वह मसखरा कवि से अधिक प्रणम्य है,
जिसकी झोली में है मुस्कानों का मंतर.

 

- (कवि या विदूषक) अभिनव

अमेरिका की सिएटल नगरी में हुई हिंदी कवियों की श्रद्धांजलि सभा


संयुक्त राज्य अमेरिका की सिएटल नगरी में आचार्य विष्णु प्रभाकर, आचार्य रामनाथ सुमन, पंडित छैल बिहारी वाजपेयी 'बाण', कविवर ओमप्रकाश आदित्य, कविवर अल्हड़ बीकानेरी, कविवर लाड़ सिंह गुज्जर, कविवर ओम व्यास ओम एवं कविवर नीरज पुरी की स्मृति में एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया. कार्यक्रम के प्रारंभ में सभी रचनाकारों के नाम के दीप प्रज्ज्वलित किये गए. तदुपरांत सभा में उपस्थित लोगों नें अपने संस्मरण सुनाये. जयपुर से पधारे साहित्य के मूर्धन्य आलोचक डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल नें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए इन सभी रचनाकारों के जाने को एक अपूरणीय क्षति बताया. उन्होंने विष्णु प्रभाकर के कृतित्व पर प्रकाश डाला और अल्हड़ बीकानेरी के साथ गुजारे हुए समय को भी याद किया. कानपुर से पधारे कवि डॉ कमल शंकर दवे नें अपने कवि सम्मेलनीय संस्मरण सुने हुए इन रचनाकारों को अपने श्रद्धासुमन अर्पित किये. सिएटल नगरी के सुप्रसिद्ध कवि राहुल उपाध्याय नें इन रचनाकारों को श्रद्धांजलि देते हुए इनके जाने को दुर्भाग्यपूर्ण बतलाया. अभिनव शुक्ल नें भी इन रचनाकारों को नमन किया तथा अपने संस्मरण सुनाये. भारतीय साहित्य के इन नए पुराने लेखकों और कवियों को याद करते हुए सभी नें दो मिनट का मौन रखा.
कार्यक्रम के अंत में एक काव्य गोष्ठी हुई जिसमें संतोष कुमार पाल, राहुल उपाध्याय, सलिल दवे, अभिनव शुक्ल एवं डॉ कमल शंकर दवे नें अपनी रचनाओं का पाठ किया. कार्यक्रम का संचालन अभिनव शुक्ल नें किया.



स्मृति शेष - कलम के सिपाही - सिएटल - रविवार १९ जुलाई २००९

Jul 15, 2009

भारतीय साहित्य जगत को पिछले कुछ महीनों में जो आघात पहुंचे हैं वे बड़े गहरे हैं. साहित्य ऋषि विष्णु प्रभाकर के देहवसान के एक सप्ताह के भीतर संस्कृत के परम विद्वान आचार्य रामनाथ सुमन के जाने का समाचार आया. अभी साहित्य संसार प्रातः स्मरणीय सायं वन्दनीय आचार्य रामनाथ सुमन जी के परमधाम गमन के शोक से उबारा ही नहीं था कि वीर रस के प्रख्यात कवि छैल बिहारी वाजपेयी 'बाण' के जाने की सूचना प्राप्त हुई. जब तक काव्य मंचों पर पड़ी ये काली छाया टलती, भोपाल के पास एक कार दुर्घटना हुई जिसमें हास्य सम्राट ओमप्रकाश आदित्य, लाड़ सिंह गुर्जर और नीरज पुरी भी माता सरस्वती की गोद में चले गए. फिर अल्हड़ बीकानेरी जी के देहवसान की सूचना प्राप्त हुई और अभी कुछ देर पहले फ़ोन पर बजने वाली दुर्दांत रिंगटोन नें ओम व्यास ओम के जाने का समाचार सुनाया है. ओम व्यास एक महीने तक मृत्यु से साथ संघर्ष करते रहे और अंततः हम सबको छोड़ कर चले गए. जीवन की नश्वरता और क्षणभंगुरता का भान किसे नहीं होता. पर यह भान सदा कहीं छिपा सा रहता है. हमको ऐसा लगता है कि जो हमारे परिचित हैं हमारे प्रिय हैं उनका कुछ बुरा नहीं हो सकता और जब एक के बाद एक इस प्रकार की सूचनाएं आती हैं तो हृदय आघात सहने का अभ्यस्त सा होने का प्रयास करने लगता है. इन महानुभावों के गमन ने हिंदी साहित्य जगत में एक ऐसी रिक्तता भर दी है जिसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकेगी.

हिंदी साहित्य की इन विभूतियों को श्रद्धांजलि देते हुए अमेरिका की सिएटल नगरी में एक छोटा सा कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है. आप सादर आमंत्रित हैं.

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दिनांक: १९ जुलाई २००९, रविवार
समय: दोपहर २:०० बजे
स्थान: अभिनव शुक्ल का निवास
पता: ११०० यूनिवर्सिटी स्ट्रीट, अपार्टमेन्ट ८ ई, सिएटल, वॉशिंग्टन, यु एस ए ९८१०१
फ़ोन: २०६-६९४-३३५३ (अभिनव), ४२५-८९८-९३२५ (राहुल)
ई-मेल: shukla_abhinav@yahoo.com
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कार्यक्रम:
१. श्रद्धांजलि: स्मृति शेष - कलम के सिपाही (२:०० - ३:००)
- आचार्य विष्णु प्रभाकर
- आचार्य रामनाथ सुमन
- पंडित छैल बिहारी वाजपेयी 'बाण'
- कविवर ओमप्रकाश आदित्य
- कविवर अल्हड़ बीकानेरी
- कविवर लाड़ सिंह गुज्जर
- कविवर ओम व्यास ओम
- कविवर नीरज पुरी
२. डाक्टर दुर्गाप्रसाद अग्रवाल (जयपुर) के संस्मरण. (३:०० - ४:००)
३. डाक्टर कमल शंकर दवे (कानपुर) के संस्मरण (४:०० - ५:००)
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आचार्य रामनाथ सुमन

Jul 12, 2009

नश्वर है यह देह अनश्वर अपने आत्माराम हैं,
जिनकी इच्छा बिना न जग में पूरे होते काम हैं,

हमको प्रभु नें भेजा देखो हमनें जीवन खूब जिया,
अच्छा पहना अच्छा गहना अच्छा खाया और पिया,
हम जग में रोते आये थे हंसते अपनी कटी उमर,
हमने राह गही जो अपनी वह औरों को बनी डगर,
हम उपवन के वही सुमन जो खिलते आठों याम हैं,

नश्वर है यह देह अनश्वर अपने आत्माराम हैं,
जिनकी इच्छा बिना न जग में पूरे होते काम हैं,

हम वाणी के अमृत पुत्र हैं, स्वाभिमान के वंशज हैं,
दिनकर अपने घर जन्मा है, हम देवों के अंशज हैं,
किसमें हिम्मत है हमसे जो आँख मिलाये धरती पर,
हम युग के इश्वर हैं बोलो कौन जिया जमकर जी भर,
मुट्ठी में आकाश हमारे हम वसुधा के शाम हैं,

नश्वर है यह देह अनश्वर अपने आत्माराम हैं,
जिनकी इच्छा बिना न जग में पूरे होते काम हैं,

अंतिम चाह यही है पीढी आने वाली खूब फले,
संस्कृति संस्कारों में पलकर चिरजीवी हो बढ़ी चले,
इससे हो सम्मान राष्ट्र का भारत मां का मान बढे,
इसे समर्पित यश है पताका अब हम तो हैं पके ढले,
शायद अब आ गया बुलावा जाना प्रभु के धाम है,

नश्वर है यह देह अनश्वर अपने आत्माराम हैं,
जिनकी इच्छा बिना न जग में पूरे होते काम हैं.

- आचार्य रामनाथ सुमन

दिल में जो समंदर है

Jul 10, 2009


धरती को ये पता है चाँद उससे दूर है,
दिल में जो समंदर है उफनता ज़रूर है,

होते ही रात दूर से आती है चांदनी,
हर राह पे, हर मोड़ पे, छाती है चांदनी,
यूँ तो बड़ी मासूम कहती है चांदनी,
शीतल है मगर आग लगाती है चांदनी,
तुम भी कभी देखो ज़रा सा इसमें नहा कर,
ये चांदनी है या ये खुदाई का नूर है,
दिल में जो समंदर है उफनता ज़रूर है.

दूरी ये जिस्म की कोई दूरी तो नहीं है,
पर अपनी कहानी अभी पूरी तो नहीं है,
हो सामने तस्वीर ज़रूरी तो नहीं है,
है बात अधूरी सी, अधूरी तो नहीं है,
चंदा की खूबसूरती ही बेमिसाल है,
धरती को प्यार हो गया किसका कसूर है,
दिल में जो समंदर है उफनता ज़रूर है.

स्वीकार तुम कर लो यदि...


संसार की सारी दिशाएं नृत्य अनुपम कर उठें,
मन्दिर की बुझती दीपिकायें टिमटिमा कर जल उठें,
झरने से झरता गीत भी थम जाए पल भर के लिए,
स्वीकार तुम कर लो यदि प्रस्ताव मेरे प्रेम का,

यह कंटकों की सेज फूलों से बनी चादर लगे,
विशकुम्भ ये पीड़ाओं का अमृत भरी गागर लगे,
सूरज की तपती धूप शीतल चांदनी सा नेह दे,
बाहों में तुम भर लो यदि ये गाँव मेरे प्रेम का,
स्वीकार तुम कर लो यदि प्रस्ताव मेरे प्रेम का,

रेत के सागर में खिल जाएँ बगीचे पुष्प के,
अश्रुओं से भीग जाएँ अधर मेरे शुष्क से,
दुर्गम हिमालय जीतना विचरण लगे बस सांझ का,
बन जाए तीरथ पुण्य ये भटकाव मेरे प्रेम का,
स्वीकार तुम कर लो यदि प्रस्ताव मेरे प्रेम का.

कब भला संन्यास छूटेगा तुम्हारा

Jul 9, 2009


रेत मुट्ठी से फिसलती जा रही है,
लौटने को है लहर छूकर किनारा,
चन्द्रमा की सौम्य किरणें पूछती हैं,
कब भला संन्यास छूटेगा तुम्हारा.

मौन रहने का अनूठा प्रण लिए हो,
बंद खिड़की और दरवाज़े किये हो,
स्वयं से छिपते, स्वयं को खोजते हो,
सत्य, मिथ्या, प्रेम, निष्ठा सोचते हो,
घुल चुका जिसमें सृजन का गीत अनुपम,
कब भला वो बोल फूटेगा तुम्हारा.

स्वप्न  भी कितने अधूरे अधबने हैं,
मन की पूछो बात तो हम अनमने हैं,
दर्द नें अब दोस्ती कर ली दवा से,
छत पे जलता दीप कहता है हवा से,
कब मिटेंगी दूरियां, कब हम मिलेंगे,
कब भला ये धैर्य टूटेगा तुम्हारा,

तूलिका से रंग का अनुराग हो तुम,
कृष्ण की वंशी का मधुरिम राग हो तुम,
झुंड से भटके हिरण सी है चपलता,
नैन में नटखटपना मुख पर सरलता,
जो सकल व्यक्तित्व आकर्षण भरा है,
वो भला क्यों चैन लूटे न हमारा,

इस ह्रदय के गीत की तुम गायिका हो,
ज़िन्दगी के मंच की तुम नायिका हो,
कुछ कंटीली, कुछ सुनहरी रहगुज़र है,
कष्ट सह कर मुस्कुराने का हुनर है,
ईश्वर का अंश है तुममें समाहित,
चाहता हूँ भक्त बन जाऊं तुम्हारा.

रेत मुट्ठी से फिसलती जा रही है,
लौटने को है लहर छूकर किनारा,
चन्द्रमा की सौम्य किरणें पूछती हैं,
कब भला संन्यास छूटेगा तुम्हारा.


पारस जादू


शब्द तुम्हारे हैं या पारस जादू हैं,
रोम रोम से प्यार छलकने लगता है,
नाम मोहब्बत रख दूँ तुमको इश्क़ कहूँ,
पर इससे अधिकार छलकने लगता है।


तुमने अपने दम पर उड़ना सीखा है,
गिर कर सँभलीं टूट के जुड़ना सीखा है,
मरुथल में आँसू की झील बनाई है,
उसमें कमल खिला कर मुड़ना सीखा है,
मैं अयोग्य, तुमसे अनुरोध करूँ कैसे,
इससे शिष्टाचार छलकने लगता है।

साथ तुम्हारे देखूँ पर्वत तालों को,
सुलझाऊं कुछ उलझे हुए सवालों को,
हाथ में लेकर हाथ सुनाऊँ गीत कोई,
आँखों ही आँखों में पी लूँ प्यालों को,
बोल तो दूँ, क्या क्या करने के सपने हैं,
पर इससे संसार छलकने लगता है ।

लखनऊ से गुज़रे हैं लोग तो बहुत से मगर...

May 23, 2009

श्रद्धेय पंकज 'सुबीर' जी द्वारा आयोजित तरही मुशायरे हेतु यह ग़ज़ल नुमा रचना लिखी थी, आप भी पढिये. मिसरा था, "कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी".
 
रहगुज़र की खामोशी हमसफ़र की खामोशी
कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी,
 
हिंदी और उर्दू में सिर्फ़ फ़र्क इतना है,
ये नगर की खामोशी वो शहर की खामोशी,
 
और क्या कहूँगा मैं और क्या सुनोगे तुम,
सब तो बोल देती है इस नज़र की खामोशी,
 
हम करीब होकर भी दूर दूर रहते हैं,
जाने किस सफ़र पर है मेरे घर की खामोशी,

लखनऊ से गुज़रे हैं लोग तो बहुत से मगर,
साथ सिर्फ़ कुछ के है उस डगर की खामोशी.
 
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Abhinav Shukla
206-694-3353
P Please consider the environment.

एक और जन्मदिवस

May 17, 2009

एक और जन्मदिवस आ गया है द्वार पर,
 
सूर्य की परिक्रमाएं तीस कर चुका है तन,
व्योम में भटक भटक के लक्ष्य ढूंढता है मन,
ज़िम्मेदारियों की झील धीरे धीरे भर गई,
केशराशि कुछ जगह और खाली कर गई,

लो अधेड़ उम्र की तरफ चली नई नदी,
लग रहा है मानो कुछ बुढा गई नई सदी,
रंग कितने आये गए ज़िन्दगी के फूल में,
कितनी ग़लतियां हुई हैं हमसे भूल भूल में,

मित्र कितने खो गए हैं रस्ते के मोड़ पर,
कितनी बार दो को घटाया है एक जोड़ कर,
अंकगणित, बीजगणित, भौतिकी, त्रिकोणमति,
अभियांत्रिकी बनी काव्य की अजस्र गति,

अगले प्लेटफार्म की और चले कोच पर,
थोडी देर बैठते हैं आज यही सोच कर,
क्या ग़लत किया है हमनें और क्या सही किया,
क्या जो करना चाहिए था आज तक नहीं किया,

आस्था के आसमान उड़ रही पतंग की,
डोर थाम कर चलें संभल संभल के धार पर,
एक और जन्मदिवस आ गया है द्वार पर.

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Abhinav Shukla
206-694-3353
P Please consider the environment.

भाषा और मौन

May 3, 2009

मौन की भाषा को समझना,
फिर भी सरल है,
कठिन तो होता है,
शब्दों के वास्तविक अर्थ को जानना,
भाषा में छिपे मौन को पहचानना.

 

- अभिनव

एक हिंदी कवि का अंग्रेजी इंटरव्यू

Mar 17, 2009

आप निम्न लिंक पर जाकर पृष्ठ १५ पर पढ़ सकते हैं, 'एक हिंदी कवि का अंग्रेजी इंटरव्यू'.

 

http://www.thesouthasiantimes.info/epaper/47_vol1_epaper.pdf - Page 15

लोरी - मेरे प्यारे सो जा रे

Jan 27, 2009

सो जा रे, सो जा रे,
मेरे प्यारे सो जा रे,
राज दुलारे सो जा रे,
आंखों के तारे सो जा रे,
सो जा रे, सो जा रे,
मेरे प्यारे सो जा रे,
 
देख तुझे परियों की रानी सैर कराने आई है,
झिलमिल झिलमिल तारों वाले खूब खिलौने लाई है,
बिस्तर की गोदी में जाकर,
अब निंदिया के हो जा रे,
सो जा रे, सो जा रे,
मेरे प्यारे सो जा रे,
 
चंदा मामा बुला रहे हैं आ जाओ मेरे आँगन,
मंद पवन भी बजा रही है मधुर बांसुरी पर सरगम,
बांह थाम कर सपनों की,
सुंदर गीतों में खो जा रे,
सो जा रे, सो जा रे,
मेरे प्यारे सो जा रे....

झूठ

Jan 10, 2009

झूठ,
जब भी बोलता हूँ,
थोड़ा सा गिर जाता हूँ,
अपनी ही नज़रों में,
इस गिरेपन के एहसास को लिए उठता हूँ,
और फिर,
एक और झूठ,
मेरा दमन पकड़ कर मुझे नीचे खींच लेता है,
सच बोलना चाहता हूँ,
पर घबरा जाता हूँ,
मन में अजीब सा भय,
कुछ किचकिचा सा डर,
जाता है ठहर,
अपने दोस्तों से,
घरवालों से,
सहकर्मियों से,
सबसे,
सीधा सपाट सच कहना,
मन को निर्मल कर के रहना,
इतना कठिन क्यों है,
कितना नीचे पहुँच गया हूँ मैं,
गिरते गिरते,
कैसे कह दूँ की जो कुछ लिख रहा हूँ,
या जो कुछ पढ़ रहा हूँ,
सच है,
या फिर,
झूठ.
 
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Abhinav Shukla
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तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में

Jan 3, 2009

तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,

जब अयोग्य जुगनू सूरज के सिंहासन पर दिखता है,
जब खोटा पत्थर का टुकड़ा कनक कणी सा बिकता है,
जब शब्दों का मोल आँकने वाला मापक बहरा है,
जब असत्य परपंच अनर्गल संभाषण ही टिकता है,
मिलता है सम्मान उसी संभाषण को श्लोकों सा,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,

 

मैंने पहचाना फूलों को गंधों के व्याकरणों से,
और बाग को पहचाना है माली के आचरणों से,
बगिया की शोभा है रंग बिरंगो फूलों की क्यारी,
एक रंग के फूलों को जब अलग निकाला जाता है,
सिर्फ उन्हें जब राजकुमारों जैसे पाला जाता है,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,

 

मेरे नियम ग़लत थे जो मैं मानवता का हामी था,
सत्य बोलने को प्रस्तुत था भोलापन अनुगामी था,
अपने साथी के सिर पर मैं पाँव नहीं धर सकता था,
लाभ हानि की खातिर झूठी बात नहीं कर सकता था,
आज खेल में जब शकुनि के पासे रंग दिखाते हैं,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में,

 

जब पुस्तक की शोभा भर होती हों समता की बातें,
झूम नशे में जब मेहनत का मोल लगाती हों रातें,
आदर्शों के मूल धंसे हों येन केन और प्रकारेन में,
तब लगता है ठगा गया हूँ मैं जीवन के लेन देन में.


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Abhinav Shukla
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