लखनऊ से गुज़रे हैं लोग तो बहुत से मगर...

May 23, 2009

श्रद्धेय पंकज 'सुबीर' जी द्वारा आयोजित तरही मुशायरे हेतु यह ग़ज़ल नुमा रचना लिखी थी, आप भी पढिये. मिसरा था, "कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी".
 
रहगुज़र की खामोशी हमसफ़र की खामोशी
कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी,
 
हिंदी और उर्दू में सिर्फ़ फ़र्क इतना है,
ये नगर की खामोशी वो शहर की खामोशी,
 
और क्या कहूँगा मैं और क्या सुनोगे तुम,
सब तो बोल देती है इस नज़र की खामोशी,
 
हम करीब होकर भी दूर दूर रहते हैं,
जाने किस सफ़र पर है मेरे घर की खामोशी,

लखनऊ से गुज़रे हैं लोग तो बहुत से मगर,
साथ सिर्फ़ कुछ के है उस डगर की खामोशी.
 
_______________________
Abhinav Shukla
206-694-3353
P Please consider the environment.

एक और जन्मदिवस

May 17, 2009

एक और जन्मदिवस आ गया है द्वार पर,
 
सूर्य की परिक्रमाएं तीस कर चुका है तन,
व्योम में भटक भटक के लक्ष्य ढूंढता है मन,
ज़िम्मेदारियों की झील धीरे धीरे भर गई,
केशराशि कुछ जगह और खाली कर गई,

लो अधेड़ उम्र की तरफ चली नई नदी,
लग रहा है मानो कुछ बुढा गई नई सदी,
रंग कितने आये गए ज़िन्दगी के फूल में,
कितनी ग़लतियां हुई हैं हमसे भूल भूल में,

मित्र कितने खो गए हैं रस्ते के मोड़ पर,
कितनी बार दो को घटाया है एक जोड़ कर,
अंकगणित, बीजगणित, भौतिकी, त्रिकोणमति,
अभियांत्रिकी बनी काव्य की अजस्र गति,

अगले प्लेटफार्म की और चले कोच पर,
थोडी देर बैठते हैं आज यही सोच कर,
क्या ग़लत किया है हमनें और क्या सही किया,
क्या जो करना चाहिए था आज तक नहीं किया,

आस्था के आसमान उड़ रही पतंग की,
डोर थाम कर चलें संभल संभल के धार पर,
एक और जन्मदिवस आ गया है द्वार पर.

_______________________
Abhinav Shukla
206-694-3353
P Please consider the environment.

भाषा और मौन

May 3, 2009

मौन की भाषा को समझना,
फिर भी सरल है,
कठिन तो होता है,
शब्दों के वास्तविक अर्थ को जानना,
भाषा में छिपे मौन को पहचानना.

 

- अभिनव