मैंने दिनकर जी को खूब जी भर के पढ़ा है तथा 'रश्मि-रथी' मुझे सबसे अधिक प्रिय है। 'रश्मि-रथी' पढ़ते हुए कई बार मेरी आँखों के आगे महाभारत के दृश्य उभरे हैं। कई स्थानों पर ऐसा भी महसूस होता है जैसे हम आज भी उसी युग में जी रहे हों।
हिन्दी भाषा का प्रवाह अद्भुत है, बोलो ते ऐसा लगता है मानो कोई नदी सी बहती चली जा रही हो और सुनो तो ऐसा लगता है मानो किसी मंदिर के सामने से गुज़र रहे हों। दिनकर जी की यह रचना पढ़कर अपनी भाषा के माधुर्य का सुंदर बोध होता है।
यदि आपको इन पंक्तियों का संपूर्ण आनंद लेना है तो इन्हें बोल बोल कर पढ़ने का प्रयास कीजिएगा।
जय हो जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।
ऊँच नीच का भेद ना माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसकी पलना हुई धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण नें आप स्वयं सुविकास।
अलग नगर के कोलाहल से अलग पुरी-पुरजन से,
कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से।
निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,
वन्य कुसुम-सा खिला कर्ण जग की आँखों से दूर।
नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुन्ज कानन में।
समझे कौन रहस्य? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल।
जलद पटल में छिपा किंतु रवि कब तक रह सकता है?
युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है?
पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग,
फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पहली आग।
रंग भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे,
बढ़ा भीड़ भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे,
कहता हुआ - तालियों से क्या रहा गर्व में फूल?
अर्जुन, तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल।
तूने जो जो किया उसे मैं भी दिखला सकता हूँ,
चाहे तो कुछ नई कलाएँ भी सिखला सकता हूँ।
आँख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार,
फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।
इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की,
सभा स्तब्ध रह गई, गई रह आँख टँगी जन जन की,
मंत्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक जन का पारावार,
गूँज रही थी मात्र कर्ण के धन्वा की टंकार।
फिरा कर्ण त्यों 'साधु-साधु' कह उठे सकल नर नारी,
राजवंश के नेताओं पर पड़ी विपद अति भारी।
द्रोण, भीष्म, अर्जुन सब फीके, सब हो रहे उदास,
एक सुयोधन बढ़ा, बोलता हुआ - 'वीर, शाबाश।'
द्वन्द युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा,
अर्जुन को चुप ही रहने का गुरु नें किया इशारा।
कृपाचार्य नें कहा - "सुनो हे वीर युवक अन्जान,
भरत-वंश-अवतंस पाण्डु की अर्जुन है सन्तान।"
"क्षत्रिय है, राजपुरुष है, यों ही नहीं लड़ेगा,
जिस तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा।
अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,
नाम धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन?"
जाति, हाय री जाति, कर्ण का ह्रदय क्षोभ से डोला,
कपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला।
"जाति जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखंड,
मैं क्या जानूँ जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदण्ड।"
"ऊपर सिर पर कनक छत्र, भीतर काले के काले,
शरमाते हैं नहीं जगत में जाति पूछने वाले।
सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन,
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।"
"मस्तक ऊँचा किए, जाति का नाम लिए चलते हो,
मगर, असल में, शोषण के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर थर कांपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।"
"पूछो मेरी जाति शक्ति हो तो मेरे भुजबल से,
रवि समान दीपित ललाट से और कवच कुण्डल से।
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज प्रकाश,
मेरे रोम रोम में अंकित है मेरा इतिहास।"
"अर्जुन बड़ा वीर क्षत्रिय है तो वह आगे आवे,
क्षत्रियत्व का तेज़ ज़रा मेझको भी तो दिखलावे,
अभी छीन इस राज पुत्र के कर से तीर कमान,
अपनी महाजाति की दूँगा मैं तुमको पहचान।"
कृपाचार्य नें कहा - "वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,
साधारण सी बात उसे भी समझ नहीं पाते हो।
राज पुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,
अर्जित करना तुम्हें चाहिए पहले कोई राज।"
कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन ही मन कुछ भरमाया,
सह ना सका अन्याय, सुयोधन बढ़कर आगे आया।
बोला - "बड़ा पाप है करना इस प्रकार अपमान,
उस नर का, जो दीप रहा हो, सचमुच, सूर्य समान।"
"मूल जानना बड़ा कठिन है, नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का।
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
जाति जाति का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।"
"किसने देखा नहीं कर्ण जब निकल भीड़ से आया,
अनायास आतंक एक संपूर्ण सभा पर छाया।
कर्ण भले ही सूत पुत्र हो, अथवा श्वपच चमार,
मलिन, मगर, इसके आगे हैं सारे राजकुमार।"
"करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का,
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का।
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।"
"अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ,
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करत हूँ।"
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
गूँजा रंग भूमि में दुर्योधन का जय-जयकार।
महा लिख्खाड़
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नाप तोल
दिनकर जी के काव्य 'रश्मि-रथी' के कुछ अंश
May 24, 2006प्रेषक: अभिनव @ 5/24/2006 5 प्रतिक्रियाएं
प्यारे
May 14, 2006कोई दरवाज़े पे देता नहीं दस्तक प्यारे,
अब कहाँ पाते हैं दिल खोल के हँस तक प्यारे,
ऐसा ईनाम मिला है ईमानदारी का,
एक कर्फ्यू है संभाले मेरा मस्तक प्यारे,
जब से आए हैं सफर इंतज़ार करता है,
कोई भी छोड़ने आएगा ना बस तक प्यारे,
कैसे बतलाएँ तुम्हें एक तुम्हारे जाने से,
मेरे भीतर कोई धरती गई धंस तक प्यारे,
पहले ये खून खौलता था कुछ सवालों पर,
अब फड़कती ही नहीं एक भी नस तक प्यारे।
प्रेषक: अभिनव @ 5/14/2006 4 प्रतिक्रियाएं
Labels: गीतिका
अनुगूँज १९ - "संस्कृतियाँ दो और आदमी एक"
May 1, 2006
पहले व्यक्ति जहां पैदा होता था, उसकी अनेक सन्ततियां भी वहीं डेरा जमाती थीं। लोग बाहर ना जा सकें इसके लिए समुद्र यात्रा पर जात बिरादरी से बाहर इत्यादि नियम भी बनाए गए थे। सुनते हैं कि अपने गांधीजी पर यह नियम लागू भी किया गया था। अभी भी ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी चारदीवारी से बाहर आने में कतराते हैं। परंतु प्रगति का एक अंश है गति, और गति हमें एक स्थान से दूसरे तक की दूरी तय करवाती है। यह भी सत्य है कि लोगों की बोलचाल, खानपान, चलना फिरना, नियम कानून और भी अनेक इस प्रकार की चीज़ें उसकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार बदलती रहती हैं। ऐसे में एक से अधिक संस्कृतियों में स्वयं को सहज कर पाने में किन विशेष योग्यताओं की आवश्यकता होती है। या फिर यूँ कह लें वो कौन सी समस्याएं हैं, अच्छाइयां हैं और कौन सी बुराइयाँ हैं जो व्यक्ति दो विरोधाभासी संस्कृतियों के संपर्क में ग्रहण करता है। कुछ ऐसा अनुरोध जब मैंने ब्लागजगत के सभी सुधीजनों से किया तब मुझे संजयजी, प्रतीकजी, पंकजजी और तरुणजी नें अनुगूँज का आयोजन करने के लिए प्रोत्साहित किया।
जैसा कि सर्व विदित है, संसार में भारतवासी किसी भी विषय पर कितनी भी देर तक कुछ भी बोल सकते हैं। जब हमारे आस पास बतियाने के लिए कोई नहीं होता तो हमारे मोबाइल फोन हमारे कानों से चिपक जाते हैं। हमको लगा कि अनुगूँज के लिए जो प्रथम प्रविष्टि हमको लिखनी है वह तो झटपट तैयार हो जाएगी। पर विचारों की कड़ियों को बाँध कर तथा एक समझदार साहित्यिक पर्सनाल्टी की तरह चिंतन कर के लिखना बड़ा ही कठिन काम बनकर सामने आया। पहले तो बड़े उपदेशात्मक तरीके से भारतीय संस्कृति की जय तथा अन्य की पराजय लिखने का प्रयास किया, इधर उधर से कुछ टीप टाप कर छापने की कोशिश की पर फिर भी मन में कुछ अटपटा सा लगता रहा, अन्तर्आत्मा से आवाज़ आती रही,
सच को झूठ और झूठ को सच बनाते हैं,
घिर के वादों में किताबों में पाए जाते हैं,
दिल की बातें तो छुपाए रखते हैं अपने दिल में,
बड़े ज्ञानी हैं ज़माने को ये जताते हैं,
हम ग्रेट हैं,
हिप्पोक्रेट हैं।
अतः फिर जो मन में आया उसे बहने दिया निर्बाध रूप से।
वो लोग जो आज से लगभग बीस पच्चीस वर्ष पहले भारत छोड़ विदेश में आ बसे थे उनमें से अनेक के मन में भारत आज भी बसता है। पिछले वर्ष हमको भी आदरणीय सोम ठाकुर जी एवं उदय प्रताप सिंह जी के संग कवि सम्मेलनों में कविता सुनाने के लिए बैंगलोर से अमेरिका बुलाया गया था। इस दौरान मुझे आमेरिका के चौदह नगरों में भ्रमण करने का आवसर प्राप्त हुआ। यहाँ मैंने अनेक आवसरों पर यह अनुभव किया कि इन लोगों में देश के प्रति एक ज़िम्मेदारी का भाव है, अपनी संस्कृति के प्रति एक अटूट लगाव है जिसे संभवतः शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। ऐसे ही कुछ लोगों के विषय में आपको बतलाने का प्रयास करता हूँ।
१. राले में रहने वाले पण्डित गंगाधर शर्मा एवं उनकी पत्नी भारतीयता के प्रचार प्रसार को नई ऊँचाइयाँ प्रदान कर रहे हैं। पण्डित जी बताते हैं कि आज से अनेक वर्ष पहले जब वे यहाँ आए थे तो स्तिथियाँ कैसी विषम थीं। निरामिष (शाकाहारी) भोजन मिलना दुष्कर था, भारत के विषय में अनेक भ्रांतियाँ प्रसिद्ध थीं और भी अनेक समस्याएँ थीं। एक मुख्य समस्या यह भी थी कि कोई ऐसा स्थान नहीं था जहाँ सभी लोग मिल सकें, शादी ब्याह आदि के लिए भवन नहीं मिलते थे। उन्होंने धीरे धीरे लोगों को जोड़ना प्रारंभ किया तथा आज राले में एक भव्य भवन तथा एक सौम्य मंदिर का निर्माण संपन्न हो चुका है। आप इनका जालघर यहाँ देख सकते हैं। राले में ही डा सुधा ढ़ीगरा हिन्दी साहित्यिक गतिविधियों में बढ़ चढ़ कर भाग लेती हैं। प्रवासी मन की सच्ची कहानी सुनाता सुधा जी का एलबम 'माँ ने कहा था' खासा लोकप्रिय हुआ है।
२. डा लक्षमण ठाकुर कनेक्टिकट विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। इनके गाँव की अनेक लड़कियाँ पास में कोई स्कूल ना होने के कारण पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर हो जाती थीं। इन्होंने अपने पैतृक गाँव तिवारीपुर, जिला फतेहपुर में "रामप्यारी काशीप्रशाद कन्या इंण्टर कालेज" खोला जो कि पिछले अनेक वर्षों से अनवरत चल रहा है। आस पास के अनेक गावों के बच्चे अब वहाँ पढ़ने आते हैं। ठाकुर साहब पिछले अनेक वर्षों से अमेरिका में हैं पर यदि उनसे बात करो तो ऐसा लगता है मानो अपनी माटी की गंध लिए कोई पवन का झोंका पास से गुज़र गया हो।
३. श्री पंकज कुमार डालास में रहते हैं तथा साफ्टवेयर का बिज़नेस करते हैं। उन्होंनें भारतवासियों के चरित्र निर्माण को अपने जीवन का ध्येय बना रखा है। पंकज कुमार जी से मिलकर ऐसा अनुभव हुआ मानो भारत के प्रति हमारी जागरुकता को नई परिभाषा प्रप्त हो गई हो। वे इतनी दूर बैठे हैं पर उन्हे सरकार की योजनाओं से लेकर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की अद्भुत समझ है। वैदिक संस्कृति के प्रति अटूट आस्था रखने वाले श्री पंकज कुमार नें सभी पुराणों को श्रव्य रूप में परिवर्तित किया है तथा वेदपुराण डाट काम नामक जालघर की रचना की है। आप सभी पुराणों को इस जालघर पर हिन्दी में सुन सकते हैं। डालस में ही पंकज जी के मित्र तथा अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति को पूर्व अध्यक्ष डा नन्दलाल सिंह भी सांस्कृतिक चेतना के विकास कार्य में अनवरत रूप से लगे हैं।
४. डेटन में रहने वाले डा रकेश गुप्ता ह्रदय रोग विशेषज्ञ हैं। वे आगरा में ह्रदय रोग का एक अस्पताल खोलना चाहते हैं। अपने इस स्वप्न को साकार करने हेतु उन्होंने अपने कुछ मित्रों के संग मिल कर वहाँ ज़मीन भी खरीदी थी। प्रापर्टी डीलर (स्थानीय एम एल ए का भतीजा) की धोखाधड़ी, ए डी एम की डबल रिश्वत, राजनैतिक उथल पुथल की मार और पंजीकरण की बेबुनियाद उठा पटक के बाद अंततः दो वर्ष पश्चात इन्हें ज़मीन का आवंटन हुआ। इतना सब होने के बाद भी जब कुछ अन्य अनुमति संबंधित समस्याएँ आगे आईं तो वे चीफ सेक्रेटरी समेत अनेक महत्वपूर्ण लोगों से व्यक्तिगत रूप से मिले। वहाँ इन्हें यह सलाह दी गई कि आप अस्पताल क्यों खोलना चाहते हैं मेडिकल स्कूल खोलिए तथा छात्रों से भारी डोनेशन वसूल कीजिए। उनका यह स्वप्न अभी अधूरा है पर उन्हें इस बात का संतोष अवश्य है कि उन्होंने अमेरिका से आगरा मेडिकल कालेज के लिए डायालिसिस मशीने भेजी हैं।पहली बार ये मशीनें उन्होंने अपनी धर्म पत्नी मंजू के साथ मिलकर अपने गैराज में स्वयं पैक करीं परंतु फिर भी आई सी एम आर (इन्डियन काउन्सिल आफ मेडिकल रिसर्च) से स्वीकृति ना मिलने के कारण ये विद्यार्थियों की प्रयोगशाला के बजाय महीनों उनके गैराज में ही पड़ी रहीं। इन मशीनों को भारत तक पहुंचनें में वर्षों का समय तथा तात्कालिक प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के एक परिजन के सहयोग का सहारा लेना पड़ा। दूसरी बार उन्होंने हमारे सरकारी तंत्र को अलविदा कहते हुए स्वयं अपने खर्च पर मशीनें भारत भेजीं जो कि समय पर पहुँच गईं। लाल फीताशाही की जय। डा साहब अपने मरीज़ों के अतिरिक्त साहित्य में भी रुचि रखते हैं तथा समय समय पर होने वाले भारतीय समाज के कार्यक्रमों में बढ़ चढ़ कर भाग लेते हैं।
५. शिकागो में रहने वाले डा सुभाष पाण्डे विश्व प्रसिद्ध न्यूरोलोजिस्ट हैं। उन्होंने अनुसंधान करके एक खोज की है जिसके अनुसार मानव के मदिरा के प्रति आसक्त होने के जीवाणुओं को जेनेटिक्स की सहायता से समझा जा सकता है। अभी इस विषय में उनका शोध जारी है तथा आने वाले समय में इसके और गहन होने की संभावना है। इस अनुसंधान के समाचार आप यहाँ क्लिक कर के देख सकते हैं। अपने कार्यों में अत्यधिक व्यस्त रहने के बावजूद वे साहित्यिक गतिविधियों का आयोजन करते रहते हैं। पिछले चार वर्षों से वे नियमित रूप से राम नवमी के अवसर पर शिकागो में अपने घर पर अखण्ड रामायण का पाठ करते हैं। लगभग चौबिस घंटे चलने वाले इस आयोजन में अनेक भारतीय परिवार सम्मलित होते हैं। हाल ही में उनके सद्प्रयासों के चलते शिकागो में एक भव्य रामायण मेले का आयोजन किया गया जिसमें नौ देशों के प्रतिभागियों नें हिस्सा लिया। उनसे प्रभावित होकर अन्य भारतीय जन भी इस प्रकार के आयोजनों से जुड़ रहे हैं तथा संस्कृति के अनेक पहलुओं से परिचित भी हो रहे हैं।
६. सिएटल के श्री राज झंवर नव युग के ऋषि हैं, गुरुकुल चलाते हैं जहाँ भारतीयों के सैकड़ों बच्चों के संग अनेक विशुद्ध अमेरिकन्स भी हिन्दी पढ़ने तथा भारत के विषय में सीखने आते हैं। उनकी सहधर्मिणी श्रीमती कविता झंवर गुरुकुल में पढ़ाने के साथ साथ व्यवस्था प्रबंधन संबंधी अनेक कार्यों में सक्रीय रूप से कार्यरत हैं। गुरुकुल को नियमित रूप से चलाने के लिए राज जी को अनेक स्थानीय भारतीयों का सहयोग भी प्राप्त हो रहा है। लोग गुरुकुल में स्वेच्छा से पढ़ाते हैं। बच्चों को भारतीय संस्कृति से परिचित करवाने हेतु कई सांस्कृतिक कर्यक्रमों का आयोजन भी गुरुकुल में होता है। गुरुकुल में एक पुस्तकालय भी है जिसमें बच्चों की सैकड़ों भारतीय पुस्तकें, अमर चित्र कथा आदि उपलब्ध हैं। आप गुरुकुल के जालघर को यहाँ देख सकते हैं। गुरुकुल के ही एक शिक्षक श्री अगस्तय कोहली सिएटल में हिन्दी नाटकों का आयोजन एवं निर्देशन करते हैं।
७. वाशिंगटन डी सी में रहने वाले श्री राकेश खण्डेलवाल गीतों में सोचते हैं। विश्वजाल पर भ्रमण करने वाले तथा कविताओं में रुचि रखने वाले हिन्दी जगत के निवासी उनके गीतों के माधुर्य से भली भांति परिचित हैं। हमको न्यूयार्क से वाशिंगटन जाना था। अमेरिका में यदि आपको कार से कहीं जाना होता है तो यात्रा का प्रथम नियम सामान्यतः यह होता है कि आप सड़कों पर अपनी यात्रा का मानचित्र निकालते हैं तथा फिर उसके अनुसार आगे बढ़ते हैं। यात्रा यदि लम्बी हो तो मानचित्र की महत्ता और बढ़ जाती है। यहाँ विशेष बात यह हुई कि राकेशजी नें अपने घर तक पहुँचने का मार्ग एक गीत के माध्यम से ई-मेल द्वारा बतलाया। हम सोच रहे थे कि हमारे सारथी अनूपजी इसके बावजूद 'याहू मैप्स' अथवा 'मैप क्वैस्ट' जालघरों का सहयोग लेंगे। परंतु हम मात्र यह गीत गुनगुनाते चार पाँच घण्टे की यात्रा पूरी कर वाशिंगटन पहुँच गए।
आप भी वह गीत पढ़िए।
साथ आपके सोम अगर हो, भला दिशा की क्या आवश्यकता,
उदय सूर्य जब अभिनव हो तो, कोई भी पथ पर चल दीजे,
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम सभी दिशा मिश्रित हो लेंगी,
जिधर चल पड़े गाड़ी प्रियवर, उसी तरफ़ को चलने दीजे,
वैसे टर्नपाईक पर दक्षिण दिशा आपको चलना होगा,
डैलावेयर और बाल्टीमोर पार फिर करना होगा,
कैलवर्टन का एक्जिट नंबर ट्वन्टी नाईन फिर ले लेना,
तीजा सिग्नल चैरी हिल का, उस पर आकर दायें मुड़ना,
पार कीजिये ट्वेन्टी नाईन यूएस का पुल, आगे बढ़ लें,
तीजा सिग्नल न्यू हैम्पशायर उससे भी आगे बढ़ लेना,
उसके बाद तीसरा सिग्नल, लेक टिवोली बुलेवार्ड का,
उसी मार्ग पर आकर प्रियवर, अपने दायें को मुड़ लेना,
पहला मोड़ बाँये को जो है,नाम वही विलकाक्स लेन है,
उस पर नंबर सत्रह तेरह,मेरी छोटी सी कुटिया का,
वहीं आप आ जायें, दुपहरी भर विश्रम करें भोजन कर,
संध्या को फ़हरानी होगी फिर भाषा की हमें पताका।
कविता का यह व्यवहारिक प्रयोग देख कर सोम जी बहुत प्रसन्न हुए तथा उन्होंने राकेश जी को अनेक आशीर्वाद दिए। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि राकेश जी पिछले काफी समय से अमेरिका में हैं तथा दफ्तर में ठेठ अंग्रेज़ी में बात करते हैं। संस्कृतियाँ दो हैं पर भावनाएँ तो एक ही हैं।
८. न्यू जर्सी के श्री अनूप भार्गव बड़े हिन्दीमय व्यक्तित्व हैं, सुबह उठ कर तुलसी का भजन गाते हैं, दोपहर में नए कवियों का हौसला बढ़ाते हैं और शाम होते होते गुलज़ार हो जाते हैं। उनकी जीवन संगिनी श्रीमती रजनी भार्गव कुशल गृह संचालन के संग बच्चों को हिन्दी पढ़ाती हैं। चिट्ठा जगत के अधिकतर लोग अनूपजी की रचनाओं तथा उनके संचालन में चल रहे याहू ग्रुप ई कविता से परिचित हैं। अनूप जी की इच्छा है कि मुशायरा डाट और्ग की तर्ज पर ही एक हिन्दी कवियों की साईट बनाई जाए, इसके लिए उन्होंने हिन्दीकविता डाट और्ग नाम का डोमेन बुक कर रखा है तथा अभी कच्चा माल जुटा रहे हैं। यदि आपके पास पुराने कवि सम्मेलनों की रिकार्डिंगस हैं तो आप भी इस यज्ञ में अपनी आहुति डाल सकते हैं (अनूप जी को anoop_bhargava at yahoo.com पर मेल कर सकते हैं।)।
९. नैशविल के श्री रवि प्रकाश सिंह हिन्दी के प्रचार प्रसार में अपने दिवंगत पिता श्री कुँवर चन्द्र प्रकाश सिंह की पुनरावृत्ति सी करते प्रतीत होते हैं। रवि प्रकाश जी नें अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति के विषय में अनेक बातें बताईं। आप अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति के जालघर पर यहाँ क्लिक कर के पँहुच सकते हैं।
१०. राकफोर्ड में रहने वाले डा अनुराग मिश्रा के बच्चे जिस प्रवाह से हिन्दी में बात करते हैं वह देखते ही बनता है। जब हमनें डा साहब से पूछा कि यहाँ पले बढ़े आपके बच्चे इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल लेते हैं तो वे बोले कि बच्चे वहीं ग्रहण करते हैं जो माता पिता उन्हें देना चाहते हैं। शायद यह बात भाषा के अतिरिक्त अन्य अनेक तथ्यों पर भी खरी उतरती है।
११. कोलम्बिया विश्व विद्यालय में हिन्दी पढ़ाने वाली श्रीमती अंजना संधीर नें हिन्दी फिल्मी गीतों को माध्यम बनाकर हिन्दी सीखने की एक अनोखी विधि खोज निकाली है जो कि बड़ी प्रसिद्ध हुई है।
यह सूची अभी और आगे बढ़ सकती है, परंतु जो बात मैं कहना चाह रहा हूँ वह यह है कि मानव कहीं भी रहे यदि वह चाहे तो अपनी ज़मीन से जुड़ा रह सकता है। संस्कृतियाँ चाहे कितनी भी क्यों ना हों पर मानव स्वभाव के मूल में जो अच्छाई है वह हर जगह किसी ना किसी रूप में उजागर हो ही जाती है। 'संस्कृतियाँ दो और आदमी एक' विषय शायद अभी और चिंतन चाहता है। कई घरों के बच्चे जो अपने रिश्तेदारों से मात्र इस वजह से कट गए हैं क्योंकि वो अपनी भाषा नहीं जानते हैं। अभी उनका समाधान नहीं हुआ है। एक ओर जहाँ ऐसे उदाहरण हैं कि लोग अनेक वर्षों बाद भी अपनी भाषा और संस्कृति से जुड़े हुए हैं, तो वहीं दूसरी ओर ऐसे साक्ष्य भी हैं जहाँ लोग स्वयं को भारत के साथ संबद्ध करने में हीनता का अनुभव करते हैं। वैसे भी यह धर्म और जातियों की नौटंकी कम नहीं है इसके ऊपर बंगाली, पंजाबी, गुजराती, मराठी और मद्रासी जैसी क्षेत्रवाद की छीछालेदर कुल मिला कर हमारी सामूहिक संगठनात्मकता को एक दहाई कर देती है। खैर, प्रश्न यह है कि जिन लोगों नें भारत को देखा है तथा जो लोग अभी तक वहाँ से प्रवाहित होने वाली विशेष तरंगों से स्वयं को विलग नहीं कर पाए हैं क्या उनकी सन्तति इन पूर्णतया भावनात्मक एवं सांस्कृतिक संबंधों का निर्वाह कर पाएगी।
मेरी दादी माँ नें अपने बच्चों को समझाया था,
भाषा, भेष, भजन और भोजन अपना हो तो अच्छा है,
महक नहीं निकली है अब तक मेरे घर से खुशबू की,
उनका आना लौट के जाना सपना हो तो अच्छा है,
सुनते हैं कि आने वाला समय भारत का होने वाला है तथा पुरातन काल में भारत ही संसार का अग्रणी राष्ट्र था, विश्व गुरू था। यदि ऐसा है तो हमारी संस्कृति में जो 'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः' वाला मूल तत्व है उसका प्रचार होना आवश्यक है। मेरा व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि संसार में इस समय जितनी भी अराजकता फैली है, संप्रदायों के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है उस सबका समाधान गांधी के मार्ग पर चलकर प्राप्त किया जा सकता है। पर उस मार्ग से भी कट्टरता के तत्व को निकाल कर मूल ग्रहण करना होगा। दिनकर जी के शब्दों में,
चलाओ बम, गोली दागो,
गांधी की रक्षा करने को,
गांधी से आगे भागो।
कभी कभी तो ऐसा लगता है मानो गब्बर सिंह अपने आदमियों से कह रहा हो,
गब्बरः "संस्कृतियाँ दो और आदमी एक, बहुत बेइन्साफी है।
अरे ओ सांभा, ज़रा बताना तो कितने कलचर हैं हमारी सल्तनत में।"
सांभाः सरदार, कलचर के नाम पर तो मात्र एग्रीकलचर है।
गब्बरः ठीक है, तो फिर हम कालिया की संस्कृतियों का एक कलचर बना लेते हैं तथा उसमें कट्टरता घोल कर उसका टीका इसे लगा देते हैं।
सांभाः उससे क्या होगा सरदार।
गब्बरः हा हा हा हा
कालियाः सरदार मैंने संस्कृतियाते हुए आपका बुद्धिवर्धक चूर्ण (तंबाकू) खाया है, तथा बाबा की धूनी का कश भी लगाया है।
गब्बरः कश लगाया है, तो ले अब गश लगा,
थोड़ी ही देर में तेरी सारी संस्कृतियों का कलचर हो जाएगा,
तथा कट्टरता की स्पेशल डोज़ के कारण,
तू पूरा वलचर हो जाएगा।
हा हा हा हा ।
कई बार लगता है मानो ऐसा ही हो रहा है, पर वह अपने आप में एक अलग विषय है। हम बात कर रहे थे विविधताओं की। भारत में हमें इन विविधताओं को देखने समझने तथा उनका आदर करने की शिक्षा स्वतः प्राप्त हो जाती है। जब हम एक प्रान्त से दूसरे का सफर करते हैं तो वास्तव में संस्कृतियों की दूरियाँ नाप रहे होते हैं। पर उन सबका मूल कहीं ना कहीं एक ही होता है। रामायण, महाभारत तथा अन्य गाथाएँ भी वही रहती हैं तथा भ्रष्टाचार और पदलोलुप राजनीति भी वही। अतः हम इस अन्तर की गहनता को महसूस नहीं कर पाते हैं। जब यह सफर दो देशों के मध्य होता है तो अन्तर स्पष्टता से दृष्टिगोचर होता है। यदि कोई दूसरे देश में पूरी तरह बस जाता है तो यह अन्तर बार बार सामने आता है। सबसे बुरी बेचारे बच्चों पर बीतती है क्योंकि उन्हें घर में कुछ सिखाने की कोशिश की जा रही होती है तथा वे बाहर कुछ सीख रहे होते हैं। यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जो माता पिता अपने बच्चों को सिखा रहे हैं क्या वे यह जानते हैं कि भारतीय संस्कृति के मूल में क्या है, या फिर वे अपने अधकचरे ज्ञान की शेखी बघार रहे हैं। जटिलताएँ बड़ी हैं तथा समाधान सरल, बस उस सरल समाधान को ढूँढने की आवश्यकता है। मैं मंच पर अब आप सबको आमंत्रित करता हूं कि आएँ तथा अपने विचारों की दिप्ति से इस अनुगूँज के आयोजन को जगमगा दें।
चलते चलते कुछ पंक्तियाँ बन पड़ी है, पढ़ने की कोशिश कर लीजिए।
चाहे जितने लोग हों,
चाहे जितनी संस्कृतियाँ,
इन्हें अलग अलग कर के देखना,
शायद हमारी ही भूल है,
यह तो एक नाटक है,
जिसकी यवनिका पर,
मानव से मानव के प्रेम का मूल है,
जीवन का आयोजन,
यूँ भी निरर्थक है,
इसके कर्तव्यों को खुश हो के पालिए,
रहिए कहीं भी पर,
मन के गलियारे में,
सपनों की छोटी सी,
दुनिया तो ढालिए।
प्रेषक: अभिनव @ 5/01/2006 6 प्रतिक्रियाएं