मैंने दिनकर जी को खूब जी भर के पढ़ा है तथा 'रश्मि-रथी' मुझे सबसे अधिक प्रिय है। 'रश्मि-रथी' पढ़ते हुए कई बार मेरी आँखों के आगे महाभारत के दृश्य उभरे हैं। कई स्थानों पर ऐसा भी महसूस होता है जैसे हम आज भी उसी युग में जी रहे हों।
हिन्दी भाषा का प्रवाह अद्भुत है, बोलो ते ऐसा लगता है मानो कोई नदी सी बहती चली जा रही हो और सुनो तो ऐसा लगता है मानो किसी मंदिर के सामने से गुज़र रहे हों। दिनकर जी की यह रचना पढ़कर अपनी भाषा के माधुर्य का सुंदर बोध होता है।
यदि आपको इन पंक्तियों का संपूर्ण आनंद लेना है तो इन्हें बोल बोल कर पढ़ने का प्रयास कीजिएगा।
जय हो जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।
ऊँच नीच का भेद ना माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसकी पलना हुई धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण नें आप स्वयं सुविकास।
अलग नगर के कोलाहल से अलग पुरी-पुरजन से,
कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से।
निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,
वन्य कुसुम-सा खिला कर्ण जग की आँखों से दूर।
नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुन्ज कानन में।
समझे कौन रहस्य? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल।
जलद पटल में छिपा किंतु रवि कब तक रह सकता है?
युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है?
पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग,
फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पहली आग।
रंग भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे,
बढ़ा भीड़ भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे,
कहता हुआ - तालियों से क्या रहा गर्व में फूल?
अर्जुन, तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल।
तूने जो जो किया उसे मैं भी दिखला सकता हूँ,
चाहे तो कुछ नई कलाएँ भी सिखला सकता हूँ।
आँख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार,
फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।
इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की,
सभा स्तब्ध रह गई, गई रह आँख टँगी जन जन की,
मंत्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक जन का पारावार,
गूँज रही थी मात्र कर्ण के धन्वा की टंकार।
फिरा कर्ण त्यों 'साधु-साधु' कह उठे सकल नर नारी,
राजवंश के नेताओं पर पड़ी विपद अति भारी।
द्रोण, भीष्म, अर्जुन सब फीके, सब हो रहे उदास,
एक सुयोधन बढ़ा, बोलता हुआ - 'वीर, शाबाश।'
द्वन्द युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा,
अर्जुन को चुप ही रहने का गुरु नें किया इशारा।
कृपाचार्य नें कहा - "सुनो हे वीर युवक अन्जान,
भरत-वंश-अवतंस पाण्डु की अर्जुन है सन्तान।"
"क्षत्रिय है, राजपुरुष है, यों ही नहीं लड़ेगा,
जिस तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा।
अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,
नाम धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन?"
जाति, हाय री जाति, कर्ण का ह्रदय क्षोभ से डोला,
कपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला।
"जाति जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखंड,
मैं क्या जानूँ जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदण्ड।"
"ऊपर सिर पर कनक छत्र, भीतर काले के काले,
शरमाते हैं नहीं जगत में जाति पूछने वाले।
सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन,
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।"
"मस्तक ऊँचा किए, जाति का नाम लिए चलते हो,
मगर, असल में, शोषण के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर थर कांपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।"
"पूछो मेरी जाति शक्ति हो तो मेरे भुजबल से,
रवि समान दीपित ललाट से और कवच कुण्डल से।
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज प्रकाश,
मेरे रोम रोम में अंकित है मेरा इतिहास।"
"अर्जुन बड़ा वीर क्षत्रिय है तो वह आगे आवे,
क्षत्रियत्व का तेज़ ज़रा मेझको भी तो दिखलावे,
अभी छीन इस राज पुत्र के कर से तीर कमान,
अपनी महाजाति की दूँगा मैं तुमको पहचान।"
कृपाचार्य नें कहा - "वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,
साधारण सी बात उसे भी समझ नहीं पाते हो।
राज पुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,
अर्जित करना तुम्हें चाहिए पहले कोई राज।"
कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन ही मन कुछ भरमाया,
सह ना सका अन्याय, सुयोधन बढ़कर आगे आया।
बोला - "बड़ा पाप है करना इस प्रकार अपमान,
उस नर का, जो दीप रहा हो, सचमुच, सूर्य समान।"
"मूल जानना बड़ा कठिन है, नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का।
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
जाति जाति का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।"
"किसने देखा नहीं कर्ण जब निकल भीड़ से आया,
अनायास आतंक एक संपूर्ण सभा पर छाया।
कर्ण भले ही सूत पुत्र हो, अथवा श्वपच चमार,
मलिन, मगर, इसके आगे हैं सारे राजकुमार।"
"करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का,
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का।
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।"
"अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ,
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करत हूँ।"
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
गूँजा रंग भूमि में दुर्योधन का जय-जयकार।
महा लिख्खाड़
-
ऑडीबल पर अज़दक की किताब14 hours ago
-
बस एक पूड़ी और लीजिए हमारे कहने से3 days ago
-
-
बाग में टपके आम बीनने का मजा5 months ago
-
गणतंत्र दिवस २०२०4 years ago
-
राक्षस5 years ago
-
-
इंतज़ामअली और इंतज़ामुद्दीन5 years ago
-
कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण और अर्जुन7 years ago
-
Demonetization and Mobile Banking8 years ago
-
मछली का नाम मार्गरेटा..!!10 years ago
नाप तोल
1 Aug2022 - 240
1 Jul2022 - 246
1 Jun2022 - 242
1 Jan 2022 - 237
1 Jun 2021 - 230
1 Jan 2021 - 221
1 Jun 2020 - 256
दिनकर जी के काव्य 'रश्मि-रथी' के कुछ अंश
May 24, 2006प्रेषक: अभिनव @ 5/24/2006
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
5 प्रतिक्रियाएं:
अभिनव जी, आपने ठीक कहा... बहुत ही सरस और अद्भुत प्रवाह से युक्त कविता है। पढ़ कर आनन्द आ गया।
बहुत समय पहली पढी थी यह , एक बार फ़िर से पढ कर आनन्द आ गया । इस कालजयी कृति को हम सब तक पहुँचानें के लिये धन्यवाद
धन्यवाद अभिनव भाई. आपने एक अमर काव्य की स्मृति ताज़ा कर दी. मुझे ये पंक्तियां भी प्रिय हैं (जो स्वयं कर्ण ने कही हैं):
"मैं उनका आदर्श कभी जो, व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे
निखिल विश्व में जिनका कहीं, न कोई अपना होगा
मन में लिये उमंग जिन्हें, दिन-रात कलपना होगा."
इसके अलावा रश्मिरथी का अंतिम सर्ग और उसमें कर्ण की मृत्यु के पश्चात भगवान कृष्ण का यह कहना:
"उगी थी ज्योति, जग को तारने को
न जन्मा था पुरुष वह हारने को
मगर सब कुछ लुटा कर दान के हित
सुयश के हेतु नर कल्याण के हित"
तथा
"मनुज-कुल को बलहीन करके
गया है कर्ण भू को दीन करके"
कर्ण के चरित्र को प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत करती हैं.
रश्मिरथी की अंतिम पंक्तियां हैं:
"समझकर द्रोण, मन में भक्ति भरिये
पितामह की तरह सम्मान करिये
जगत से ज्योति का जेता उठा है
मनुजता का नया नेता उठा है"
सचमुच दिनकर जी पर मां सरस्वती की विशेष कृपा थी. ऐसे साहित्यकार विरले ही पैदा होते है.
मज़ा आ गया एक बार फ़िर बहुत दिनों बाद दिनकर जी को पढकर.
बहुत धन्यवाद, अभिनव भाई.
समीर लाल
दिनकर जी हमारे भारत के महान कवि के रुप मे अमर रहेंगे। कविता के लिए धन्यवाद।
Post a Comment