२००८ - प्लेटफार्म पर आने वाला है

Dec 31, 2007





जाने वाला वर्ष सुनहरी स्मृतियाँ स्पर्श करे,
सबके मन में नई चेतना आने वाला वर्ष भरे,

वर्ष नया क्या सिर्फ कलैण्डर की तारीख नई सी है,
या जीवन के प्लेटफार्म से कोई रेल गई सी है,
कितने मित्र राह में चलते हुए नित्य बन जाते हैं,
उनमें से कितने ही तो सुख दुख में साथ निभाते हैं,
किंतु मित्रता की परिभाषा में परिवर्तन देखा है,
दूरी को कम ज़्यादा करती कोई नियति रेखा है,
मेरी अभिलाषा है जितने लोग दूर जा बैठे हैं,
मैं उन सबके पास कहीं जाऊँ जाकर के मुस्काऊँ,
और कहूँ नववर्ष तुम्हारे जीवन का उत्कर्ष करे,
सबके मन में नई चेतना आने वाला वर्ष भरे,

सात के साथ ज़रा देखो तो कितने साथी छूट गए,
कितने रिश्ते नए बने और कितने रिश्ते टूट गए,
माता सरस्वती नें अपने प्रिय पुत्र को मांग लिया,
श्री बृजेन्द्र अवस्थी के संग एक युग नें प्रस्थान किया,
जिनकी वाणी से पाए थे भजनों नें आयाम नए,
श्री हरि ओम शरण भी अंतर्ध्यान राम के धाम गए,
आदर्शों की कथा में अनुपम पृष्ठ जोड़ कर चले गए,
कमलेश्वर, त्रिलोचन, निर्मल कलम तोड़ कर चले गए,
जगमग जगमग गए हैं सूरज कई धरा के आंगन से,
आठ में गहरे अंधकार से जग मिलकर संघर्ष करे,
सबके मन में नई चेतना आने वाला वर्ष भरे,

गली गली में सजती दिखती अपराधों की झाँकी है,
आतंकी आंधी की जड़ में कितनी ताकत बाकी है,
नफरत के, कटुता के हामी कितने ऊँचे पर पर हैं,
कितने अणुबम लगे हुए न जाने किस सरहद पर हैं,
दिल रोता है जब नगरों में रोज़ धमाके होते हैं,
और धमाकों पर घर में ही खूब ठहाके होते हैं,
बिके हुए टीवी चैनल ख़बरों के दाम लगाते हैं,
और इलाके के गुण्डे सत्ता के जाम लगाते हैं,
ऐसे में जब कद के मापक बस विलास हो बैठे हैं,
जिन पथराई आंखों के सपने उदास हो बैठे हैं,
उन आंखों में भी सच्चाई का थोड़ा सा हर्ष भरे,
सबके मन में नई चेतना आने वाला वर्ष भरे।

एक और बम ब्लास्ट

Dec 29, 2007



नज़ीर का अर्थ होता है बराबर,
बेनज़ीर का मतलब हुआ जिसकी कोई बराबरी न कर सके,
जब उसके जाने की ख़बर सुनी तो दुःख हुआ,
ऐसा नही था की उसके होने या न होने से मुझे कोई फर्क पड़ता है,
फर्क तो पाकिस्तान को भी नही पड़ता है,
थोडी देर हाय हाय के नारे लगा कर थक जायेंगे,
दो चार दिन उछल कूद कर सब बैठ जायेंगे,
और तलाश करने लगेंगे किसी दूसरी बेनज़ीर में,
किसी शिया को, किसी सिन्धी को, या किसी मुहाजिर को,
क्या अचरज की कभी पाकिस्तान हमारे भारत का हिस्सा था,
इंसान में जाति धर्म क्षेत्र ढूँढने में कोई हमारी बराबरी कर सकता है क्या,
खैर, प्रतियोगिता परीक्षा हेतु एक नया प्रश्न तैयार हो गया है,
वाद विवाद को एक और विषय,
फिर,
एक और बम ब्लास्ट.

पारले-जी का पैकेट

Dec 7, 2007

जब मैं छोटा था,
तो घर पर पारले-जी का पैकेट आता था,
उसमें बारह बिस्कुट होते थे,
माँ, मुझे और मेरे छोटे भाई को,
चार चार बिस्कुट देती थी,
फिर जब हम जिद करते तो बाकी के दो दो भी मिल जाते थे,
उनको चाय में डुबो डुबो कर खाने में स्वर्ग का आनंद आता था,
अब में बड़ा हो गया हूँ,
मैं अपने माता पिता के साथ नही रहता हूँ,
अब मेरा भाई और मैं अलग अलग रहते हैं,
मेरी पत्नी को पारले जी पसंद नही हैं,
अब में सिएटल के इंडिया स्टोर से एक सौ बिस्कुट वाला पारले जी का पैकेट लाता हूँ,
पर वो स्वाद नही पा पता हूँ,
मैं उनमें स्वाद ढूँढने की कोशिश करता हूँ,
पर हार जाता हूँ,
शायद स्वर्ग बिस्कुट में नहीं,
किसी और चीज़ में ही होता था.

जब में छोटा था,
तब मेरे माता पिता,
दो कमरों के छोटे से घर में रहते थे,
आपस में बातें करते थे,
"देखो, तिवारीजी का लड़का,
इंजिनीयर बन कर अमेरिका चला गया है,
राजाजीपुरम मैं क्या बढ़िया घर बनवा रहे हैं,
हमारा शेर क्या कुछ कमाल दिखा पायेगा,
क्या अमेरिका जा पायेगा,
हमारे लिए स्वर्ग ला पायेगा."
आज वो सात कमरों के अपने घर में अकेले हैं,
फ़ोन के उस पार से आने वाली आवाजों में ही उनके मेले हैं,
बच्चे पहले रोज़ फ़ोन करते थे,
फिर दो तीन दिन में एक बार करने लगे,
अब सप्ताह में एक बार करते हैं,
कल महीने में एक बार करेंगे,
माँ जब परले जी का पैकेट देखती होगी,
तो सोचती होगी,
शायद स्वर्ग किसी और चीज़ में ही होता था.

६ दिसंबर - बाबर को नहीं देखा है मैंने

Dec 6, 2007













उलझा हुआ हूँ वक्त के बोझिल सवाल में,
पत्थर निकल रहे हैं बहुत आज दाल में,

गिद्धों को उसने टीम का सरदार कर दिया,
लो फंस गई भोली सी चिरइया भी जाल में,

बाबर को नहीं देखा है मैंने कभी मगर,
मस्जिद ज़रूर देखी है इक ख़स्ता हाल में,

मुद्दत से कह रहे हैं जो मंदिर बनाएँगे,
उनसे सड़क न एक बनी पाँच साल में।

नीरज त्रिपाठी नें सुनाईं सहज हास्य की बढ़िया कविताएं

Dec 3, 2007

इस शनिवार सिएटल में हैदराबाद से पधारे कवि नीरज त्रिपाठी के सम्मान में कवि गोष्ठी का आयोजन हुआ. शनिवार को खूब बर्फ भी पड़ी तो एक बार तो लगा की शायद कार्यक्रम न हो पाये पर अंततः कुछ काव्य प्रेमी जुट ही गए और बढ़िया काव्य धारा बही. ये देखिये कुछ चित्र.



यहाँ गोष्ठी वाले दिन खूब बर्फ पड़ी, हम लोग फोटो खिचाने बाहर आए, ज़रा संभाल कर कही फिसल जाएँ


राहुल उपाध्याय, अभिनव शुक्ल, नीरज त्रिपाठी तथा जेरेड शोक्ले


कविता सुनते समय श्रोताओं के साथ ठहाका लगाते हुए कवि नीरज त्रिपाठी



भोलू वाली कविता सुनते हुए कवि नीरज त्रिपाठी


कविता सुन कर मुस्कुराते हुए कवि नीरज त्रिपाठी


कवि गोष्ठी के बाद का एक चित्र



एक और समूह चित्र

अभिनव शुक्ल, नीरज त्रिपाठी तथा जेरेड शोक्ले

कनाडा (वेंकूवर) में कवि सम्मेलन

Dec 1, 2007

इधर २४ नवंबर २००७ के दिन वेंकूवर, कनाडा में एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था. हम भी अपने मित्र राहुल उपाध्याय जी के साथ वहां गए थे. कार्यक्रम में देखने वाली बात यह रही कि इसमें हिंदी के अतिरिक्त उर्दू और पंजाबी के कवियों नें भी अपनी रचनाएँ पढ़ीं।

आचार्य श्रीनाथ प्रसाद द्विवेदी नें कार्यक्रम का कुशल संचालन किया। उनके द्वारा सुनाए गए मुक्तक सुन कर बच्चन जी, रमानाथ जी और नीरज जी की स्मृतियाँ ताजा हो गईं। कर्यक्रम इस आशा के साथ संपन्न हुआ कि आने वाले समय में यू एस ए तथा कनाडा में अनेक संयुक्त साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा। इस सप्ताह नीरज त्रिपाठी जी सिएटल आए हैं अतः कल उनके सम्मान में आयोजित गोष्ठी की तस्वीरें लेकर उपस्थित होऊंगा. आज इस छोटी सी रिपोर्ट के साथ कुछ चित्र देखिये.



हरदेव सोढी 'अश्क' की पुस्तक 'समय के साए' का विमोचन


कार्यक्रम के बाद का सामूहिक फोटो सेशन १


कार्यक्रम के बाद का सामूहिक फोटो सेशन २



सुबह सवेरे नाश्ते की मेज़ पर आचार्य श्रीनाथ प्रसाद द्विवेदी एवं उनकी जीवन संगिनी श्रीमती कांति द्विवेदी


आचार्य द्विवेदी, श्रीमती द्विवेदी तथा श्रीमती दीप्ति शुक्ला


कनाडा में आचार्य जी सर्व धर्म समभाव हेतु होने वाली गोष्ठीयों में नियमित जाते हैं, सुबह सुबह अल्पहार के समय उन्होंने बताया की ऐसे स्थानों पर पहली शर्त ये होती है की आपको अपने ग्रंथों का ज्ञान भली भांति होना चाहिए तथा केवल मेरा मार्ग सही है बाकी सबका ग़लत है वाली भावना नही होनी चाहिए.


आचार्य श्रीनाथ प्रसाद द्विवेदी तथा अबोश उपाध्याय


आशुकविता लिखने में तल्लीन राहुल उपाध्याय


आचार्य जी के मधुर कंठ से सुंदर गीत सुनकर रमानाथ अवस्थी जी की स्मृतियाँ पुनर्जीवित हो उठीं


कविता पढ़ते हुए अभिनव शुक्ला

कृपया इसको देखिए और मुस्कुराइए

Nov 7, 2007


http://www.youtube.com/watch?v=-tDTOPa3reQ

सुनिए कवितांजलि - रेडियो सलाम नमस्ते - १४ अक्टूबर २००७

Oct 15, 2007

रेडियो सलाम नमस्ते पर प्रत्येक रविवार को कवितांजली नामक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है। आप इसे आनलाईन भी सुन सकते हैं। इस सप्ताह प्रसारित हुए कार्यक्रम के एक अंश को आप यहाँ सुन सकते हैं।

program_14Oct-2007...

कार्यक्रमः कवितांजलि
समयः प्रत्येक रविवार शाम ९ बजे (डालस टाईम) - (भारत के समयानुसार सोमवार सुबह साढ़े सात बजे)
मुख्य प्रस्तुतकर्ताः आदित्य प्रकाश सिंह
आयोजकः डा नन्दलाल सिंह (अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, डालस)
इस अंश का संचालनः अभिनव शुक्ल

इस अंश के कविः
**** ज्ञानचन्द 'मर्मज्ञ' (बैंगलूरू, भारत)

नोटः आपको यदि लगता है कि आपकी कविता को भी इसमें शामिल किया जा सकता है तो कृपया अपनी कविता किसी भी आडियो/वायस फारमैट में shukla_abhinav at yahoo.com पर भेज दीजिए। यदि आपको ऐसा लगता है कि आपके पास कोई ऐसी रिकार्डिंग है जिसे इस कार्यक्रम में शामिल किया जा सकता है तो कृपया उसे भी आप इसी ईमेल पर भेज सकते हैं।

रावण लिखा - पत्थर तैर गया

Oct 10, 2007


राम नाम लिख कर पाहन भी तैर रहे,
सुन हुआ असुरों के मन में भरम है,
रावण नें निज नाम लिखा शिलाखण्ड पर,
सागर में तैर गया भ्रम हुआ कम है,
यह देख चकित हो पूछा मंदोदरी नें,
"कैसी है ये माया भला कौन सा नियम है,"
दशानन बोला "मैंने छोड़ते हुए ये कहा,
तैर जा ओ शिला तुझे राम की कसम है।"



नोटः
१ - यह दन्त कथा हमें वीर रस के सुप्रसिद्ध कवि श्री गजेन्द्र सोलंकी नें सुनाई थी। हमने मात्र उस कथा को छन्दबद्ध करने का प्रयास किया है।
२ - श्री राम का यह सुन्दर चित्र बाबा सत्यनारायण मौर्य नें बनाया है।
३ - श्री उदय प्रताप सिंह जी के राम छन्द यहाँ क्लिक कर के पढ़ें-सुनें।
४ - राम नाम में बड़ा दम है, चाहे पत्थर पर लिखो चाहे मन पर, सब तर जाता है।

सुनिए कवितांजलि - रेडियो सलाम नमस्ते - ७ अक्टूबर २००७

Oct 8, 2007

रेडियो सलाम नमस्ते पर प्रत्येक रविवार को कवितांजली नामक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है। आप इसे आनलाईन भी सुन सकते हैं। इस सप्ताह प्रसारित हुए कार्यक्रम के एक अंश को आप यहाँ सुन सकते हैं।

program_oct072007....

कार्यक्रमः कवितांजलि
समयः प्रत्येक रविवार शाम ९ बजे (डालस टाईम) - (भारत के समयानुसार सोमवार सुबह साढ़े सात बजे)
मुख्य प्रस्तुतकर्ताः आदित्य प्रकाश सिंह
आयोजकः डा नन्दलाल सिंह (अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, डालस)
इस अंश का संचालनः अभिनव शुक्ल
इस अंश के कविः
**** डा वागीश दिनकर (पिलखुआ, भारत) और
**** अनूप भार्गव (न्यू जर्सी, यू एस ए)



नोटः आपको यदि लगता है कि आपकी कविता को भी इसमें शामिल किया जा सकता है तो कृपया अपनी कविता किसी भी आडियो/वायस फारमैट में shukla_abhinav at yahoo.com पर भेज दीजिए। यदि आपको ऐसा लगता है कि आपके पास कोई ऐसी रिकार्डिंग है जिसे इस कार्यक्रम में शामिल किया जा सकता है तो कृपया उसे भी आप इसी ईमेल पर भेज सकते हैं।

ये ग़ज़लें अपनी दुनिया में हमें यूँ खींच लेती हैं

Oct 6, 2007

ये ग़ज़लें अपनी दुनिया में हमें यूँ खींच लेती हैं,
ज्यों माएँ अपने कमबख़्तों को बाँहों भींच लेती हैं,

कभी तो गाते गाते फूट कर हम रोने लगते हैं,
ये आँखें दिल की मुरझाती सी बगिया सींच लेती हैं,

ये ज़्यादा रोशनी बर्दाश्त तो कर ही नहीं पातीं
ज़रा तुम सामने आती हो खुद को मींच लेती हैं।

गुलाम नबी का बयान और रवि रतलामीजी की न्यूज़

Oct 5, 2007

आज ये समाचार (ग़ुलाम नबी के बयान पर विवाद) पढ़े। कुछ पंक्तियाँ बनीं,

जब हमको ज़िन्दगी के खेल में ग़म मात देते हैं,
न हिन्दू साथ देते हैं न मुस्लिम साथ देते हैं,

वो बूढ़ा आज तक हमको पढ़ाने पर उतारू है,
मगर हम पढ़ नहीं पाते हैं केवल दाद देते हैं,

बड़ी मुश्किल से नेता कोई अच्छी बात करता है,
मगर ये धर्म के पिट्ठू उसे भी काट देते हैं,

साथ में सुनिए एक बहुत अच्छी ख़बर - आज ही हमनें यूट्यूब पर महान ब्लागर रवि रतलामी जी पर समाचार देखने को मिले। आप भी यहाँ क्लिक कर के देख-सुन सकते हैं।

फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं - रहबर जौनपुरी

Oct 3, 2007

इधर यूट्यूब पर एक नज़्म सुनने को मिली। रहबर जौनपुरी साहब की 'आवाज़-ए-जंज़ीर'। मैं कुछ पंक्तियाँ समझ नहीं पाया, कुछ का ओवरहेड ट्राँसमिशन हो गया, पर जो कुछ भी लिख पाया यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ। अभी इसमें कई त्रुटियाँ होंगी जो की मेरी अल्पज्ञता के कारण है अतः मुझे क्षमा करें। मुल्क के सभी मुसलमानों की वफादारी पर प्रश्नचिन्ह लगाने वालों से सामने यह नज़्म कई सवाल लेकर आती हुई दिखी। वीडियो भी अंत में पेस्ट कर रहा हूँ, यदि आपकी नेट स्पीड इजाज़त दे तो देखें-सुनें, अन्यथा पढ़ें।

'आवाज़-ए-जंज़ीर'

हम हैं हिन्दी हमें इस बात से इंकार नहीं,
हम वतन-दोस्त हैं गै़रों के तरफ़दार नहीं,
हम हैं मंज़िल का निशाँ राह की दीवार नहीं,
हम वफादार हैं इस देश के ग़द्दार नहीं,
हम कोई फित्ना गरो गासिबो अगियार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

तुर्कियो शामो मराकश नहीं अपना मसकन,
सरज़मीं हिंद की सदियों से हमारा है वतन,
अपने अफसाने का उन्वाँ है यही गंगो जमन,
अब किसी और से कुछ हमको सरोकार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

हमने कब हिंद के ख्वाबों की तिजारत की है,
हमने कब मुल्क के ख्वाबों से बगावत की है,
हमने कब साज़िशी लोगों की हिमायत की है,
हमने हर हाल में दस्तूर की इज़्ज़त की है,
हम ज़माने की निगाहों में ख़तावार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

हिंद के सर की लगाई नहीं हमने बोली,
बेच कर राज़ नहीं हमनें भरी है झोली,
हमने खेली नहीं इंदिरा के लहू से होली,
हमने बापू पे चलाई नहीं हर्गिज़ गोली,
हम जफाकश है जफाकेशो जफाकार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

हमने इस देश को ज़िन्दा फन-ए-तामीर दिया,
हमने ही ताजमहल जल्वा-ए-कश्मीर दिया,
अकबरी जर्फ दिया हमने जहाँगीर दिया,
हम किसी दाम-ए-तास्सुब में गिरफ्तार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

हमसे ताबिंदा हुआ जज़्बए ईमान यहाँ,
शाह-ए-अजमेर की बाकी है अभी शान यहाँ,
हैं अमर जायसी औ' रहिमन-ओ-रसख़ान यहाँ,
अज़्मत-ए-हिंद पे रज़िया हुई कुर्बान यहाँ,
सर कटा देना हमारे लिए दुशवार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

की है भारत के हरीफों से लड़ाई हमनें,
की है ज़ुल्मात में भी राहनुमाई हमनें,
तख़्तए दार पे की‍नग़्मासराई हमने,
की है शाही पे भी तौकीरे गदाई हमने,
साहिबे अम्न हैं हम साहिबे पैकार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

सफ़ए हिन्द पे है टीपू-ए-जाँबाज़ का नाम,
था जो आज़ादी की तहरीक का सालारो ईमाम,
जिसने बरपा किया दुशमन की रगों में कोहराम,
जिसने इस देश की धरती को लिया हज्वे तमाम,
इससे बढ़कर तो कोई जज़्बए ईसार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

तख़्त-ए-दिल्ली का वो मज़लूम शहंशाह ज़फर,
क़ौमे-अफरंग पे जो बनके गिरा बर्को शरर,
जिसने इस देश पे कुर्बान किए अपने पिसर,
हिन्द की ख़ाक मयस्सर न हुई जिसको मगर,
उसकी खिदमात का अब कोई परस्तार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

गौस खाँ बन के दिखाई यहाँ ज़ुर्रत किसने,
जंग में फूँक दी तोपों से क़यामत किसने,
रानी झाँसी पे रखा दस्त-ए-हिफाज़त किसने,
जान पर खेल के फौजों की कयादत किसने,
हम किसी तौर भी रुसवा सरे बाज़ार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

अपनी सरहद के निगेहबान को क्यों भूल गए,
जंग-ए-कश्मीर की उस जान को क्यों भूल गए,
एक आहननुमा इंसान को क्यों भूल गए,
यानी ब्रिगेडियर उस्मान को क्यों भूल गए,
उसका कुछ ज़िक्र नहीं उसका कुछ इज़हार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

हमपे जब एक पड़ोसी नें किया हमाला शदीद,
क़ामयाबी की बहुत अपनी जिसे थी उम्मीद,
पास जिसके थे सभी असलहाए असरे जदीद,
दे गया मात का पैगाम उसे मर के हमीद,
इस हकीकत से किसी शख्स को इंकार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

खूब वाकिफ हैं सभी शौकतो जौहर से यहाँ,
थे जो तहरीके खिलाफत के कभी रूहे रवाँ,
जिनका हर गाम था दुशमन के लिए संगे गराँ,
जिनकी तकरीरों से दाकस्रे विलायत लरजाँ,
आज तारीख में वैसा कोई किरदार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

हमनें अहमद की रिफाकत का सिला कब माँगा,
हमने ज़ाकिर की मोहब्बत का सिला कब माँगा,
हमने आज़ाद की जुर्अत का सिला कब माँगा,
हमने किदवई की खिदमत का सिला कब माँगा,
हम किसी जुर्अत ओ शोहरत के तलबग़ार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

हमने बाज़ीचए आलम को किया ज़ेरो ज़बर,
हमने मुश्ताक औ पटौदी से दिए अहले हुनर,
किसकी मीरास हैं किरमानी सलीमो अज़हर,
क्या नहीं शाने वतन शाही जो ईनामो ज़फर,
बाइसे फक्र हैं हम बाईसे आज़ार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

हमने साईंस का शोबा किया आबाद यहाँ,
हमने मिज़इलो राकेट किए ईज़ाद यहाँ,
फौज को फिक्र से हमने किया आज़ाद यहाँ,
है कलाम ऐसा कोई ज़हने खु़दादाद यहाँ,
अग्नि औ पृथ्वी जैसा कोई शहकार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

परदए सिमी की तौकीर बना किसका ज़लाल,
किसने मौसीकी औ नग्मा को दिया सोज़े बिलाल,
है कोई यूसुफो नौशाद की साहिर की मिसाल,
हमसे बढ़कर कोई फनकारों में फनकार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

हमने हैं देखे हैं बदलते हुए हालात यहाँ,
हमने देखे हैं सिसकते हुए जज़्बात यहाँ,
हमने देखे हैं कयामत के फसादात यहाँ
हमने जलते हुए देखे हैं मकानात यहाँ,
जि़न्दगी कौन से दिन हमपे गला बार नहीं,
फिर भी हमसे ये गिला है कि वफादार नहीं।

--रहबर जौनपुरी


राजीव अंकल या सोनिया ताई - हैप्पी गाँधी डे

Oct 2, 2007


आप सभी को गाँधीजी के जन्मदिन की शुभकामनाएँ।


गांधी खो गया है

एक बार मेरे छोटा भाई आनंद नें,
अपने मस्तक के पटल पर कुछ तौला,
फिर हमसे आकर बोला,
इंदिरा दादी, प्रियंका दीदी,
राजीव अंकल या सोनिया ताई,
दो अक्टूबर को,
किसका जन्मदिन होता है भाई,

हमने उससे कहा कि,
गाँधी तो नेहरू परिवार के ताने बाने में,
कहीं खो गया है,
और महात्मा,
राजघाट के नीचे बनी,
किसी कंदरा में जाकर सो गया है,

तुमने जितने भी नाम गिनाए,
असलियत में,
उन सभी का जन्मदिन,
दो अक्टूबर को होता है,
और मोहनदास आज भी,
किसी प्लेटफार्म पर पड़ा,
अपनी आँखें भिगोता है।

एक सुलझी हुई पहेलीः
बोलो जी किस फिल्म नें तगड़ी करी कमाई,
गाँधी सपोर्टिंग एक्टर, हीरो मुन्ना भाई।

नोटः ये कविता अनुभूति पर भी पढ़ी जा सकती है।

ये लखनऊ की तहज़ीब नहीं है

Sep 26, 2007



जिनके अपनों की कब्रें हैं,
फूल चढ़ा लेने दो उनको,
जब झगड़ा था, तब झगड़ा था,
अब कोई टकराव नहीं है,
मौसम बदल चुका है सारा,
मज़ारों पर जूता चप्पल,
मेहमानों पर ईंटा पत्थर,
ये लखनऊ की तहज़ीब नहीं है।

सुनिए कवितांजलि - रेडियो सलाम नमस्ते - २३ सितंबर २००७

Sep 24, 2007

रेडियो सलाम नमस्ते पर प्रत्येक रविवार को कवितांजली नामक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है। आप इसे आनलाईन भी सुन सकते हैं। इस सप्ताह प्रसारित हुए कार्यक्रम के एक अंश को आप यहाँ सुन सकते हैं।

program_sep232007....

कार्यक्रमः कवितांजलि
समयः प्रत्येक रविवार शाम ९ बजे (डालस टाईम) - (भारत के समयानुसार सोमवार सुबह साढ़े सात बजे)
मुख्य प्रस्तुतकर्ताः आदित्य प्रकाश सिंह
आयोजकः डा नन्दलाल सिंह (अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, डालस)
इस अंश का संचालनः अभिनव शुक्ल
इस अंश के कविः
**** राकेश खण्डेलवाल (वाशिंगटन डीसी, यू एस ए) और
**** डा आदित्य शुक्ल (बैंगलूरू, भारत)

नोटः आपको यदि लगता है कि आपकी कविता को भी इसमें शामिल किया जा सकता है तो कृपया अपनी कविता किसी भी आडियो/वायस फारमैट में shukla_abhinav at yahoo.com पर भेज दीजिए। यदि आपको ऐसा लगता है कि आपके पास कोई ऐसी रिकार्डिंग है जिसे इस कार्यक्रम में शामिल किया जा सकता है तो कृपया उसे भी आप इसी ईमेल पर भेज सकते हैं।

सुनिए कवितांजलि - रेडियो सलाम नमस्ते - १६ सितंबर २००७

Sep 17, 2007

रेडियो सलाम नमस्ते पर प्रत्येक रविवार को कवितांजली नामक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है। आप इसे आनलाईन भी सुन सकते हैं। इस सप्ताह प्रसारित हुए कार्यक्रम के एक अंश को आप यहाँ सुन सकते हैं।

program_sep162007....


कार्यक्रमः कवितांजलि
समयः प्रत्येक रविवार शाम ९ बजे (डालस टाईम) - (भारत के समयानुसार सोमवार सुबह साढ़े सात बजे)
मुख्य प्रस्तुतकर्ताः आदित्य प्रकाश सिंह
आयोजकः डा नन्दलाल सिंह (अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, डालस)
इस अंश का संचालनः अभिनव शुक्ल
इस अंश के कविः
**** डा अंजना संधीर (न्यूयार्क, यू एस ए) और
**** डा सुनील जोगी (दिल्ली, भारत)

नोटः आपको यदि लगता है कि आपकी कविता को भी इसमें शामिल किया जा सकता है तो कृपया अपनी कविता किसी भी आडियो/वायस फारमैट में shukla_abhinav at yahoo.com पर भेज दीजिए। यदि आपको ऐसा लगता है कि आपके पास कोई ऐसी रिकार्डिंग है जिसे इस कार्यक्रम में शामिल किया जा सकता है तो कृपया उसे भी आप इसी ईमेल पर भेज सकते हैं।

रामरस - एक नया चिट्ठा

Sep 12, 2007

संतोषकुमार पाल जी नें "रामरस" नामक अपना हिंदी ब्लाग बनाया है।
संतोषजी को गीता का बड़ा ज्ञान है तथा भागवत सहित अन्य अनेक पुराणों का भी वे नित्य अध्ययन करते रहते हैं। वे प्रत्येक शुक्रवार अपने घर पर श्रीमद्भगवद्गगीता पर बड़ी सार्थक चर्चा का आयोजन करते हैं जिसमें अनेक लोग नियमित शामिल होते हैं। आशा है कि हमारा ब्लाग जगत उनके विचारों से नित्य लाभान्वित होता रहेगा।

कृपया यहाँ देखें ramras.blogspot.com

सुनिए कवितांजलि - रेडियो सलाम नमस्ते - ०९ सितंबर २००७

Sep 10, 2007

रेडियो सलाम नमस्ते पर प्रत्येक रविवार को कवितांजली नामक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है। आप इसे आनलाईन भी सुन सकते हैं। इस सप्ताह प्रसारित हुए कार्यक्रम के एक अंश को आप यहाँ सुन सकते हैं।

program_sep092007....


कार्यक्रमः कवितांजलि
समयः प्रत्येक रविवार शाम ९ बजे (डालस टाईम) - (भारत के समयानुसार सोमवार सुबह साढ़े सात बजे)
मुख्य प्रस्तुतकर्ताः आदित्य प्रकाश सिंह
आयोजकः डा नन्दलाल सिंह (अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, डालस)
इस अंश का संचालनः अभिनव शुक्ल

नोटः आपको यदि लगता है कि आपकी कविता को भी इसमें शामिल किया जा सकता है तो कृपया अपनी कविता किसी भी आडियो/वायस फारमैट में shukla_abhinav at yahoo.com पर भेज दीजिए। यदि आपको ऐसा लगता है कि आपके पास कोई ऐसी रिकार्डिंग है जिसे इस कार्यक्रम में शामिल किया जा सकता है तो कृपया उसे भी आप इसी ईमेल पर भेज सकते हैं।

विश्व हिन्दी सम्मेलन का अंग्रेज़ी प्रमाण पत्र - आज ही मिला

Aug 28, 2007

VHS_Certificate

एक अधूरा गीत भी पढ़ लीजिए।

आज कलाई फिर से सूनी

आज कलाई फिर से सूनी है इस रक्षा बन्धन पर,
भटक रहा है मन रह रह कर रोली चावल चन्दन पर,


स्मृतियों में त्योहारों की धुँधली रेखा बाकी है,
घूम घूम कर देखा सबकुछ पर अनदेखा बाकी है,
बचपन के किस्सों में बसते गाँव कई अनदेखे हैं,
मन के भीतर पलने वाले भाव कई अनदेखे हैं,
तन के सिंहासन पर बैठा अहंकार अनदेखा है,
अपनों के नयनों से बरस रहा प्यार अनदेखा है,
दुनिया देख रहे हो प्यारे, कभी इन्हें भी देखो रे,
बोझ व्यर्थ का क्यों ढोते हो इसको बाहर फेंको रे।

सुनिए कवितांजलि - रेडियो सलाम नमस्ते - २६ अगस्त २००७

Aug 27, 2007

रेडियो सलाम नमस्ते पर प्रत्येक रविवार को कवितांजली नामक कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है। आप इसे आनलाईन भी सुन सकते हैं। हम भी इसके एक भाग का संचालन करते हैं। इस सप्ताह प्रसारित हुए कार्यक्रम के अंश को आप यहाँ सुन सकते हैं।

Program_Aug262007....


कार्यक्रमः कवितांजलि
समयः प्रत्येक रविवार शाम ९ बजे (डालस टाईम) - (भारत के समयानुसार सोमवार सुबह साढ़े सात बजे)
प्रस्तुतकर्ताः आदित्य प्रकाश सिंह
आयोजकः डा नन्दलाल सिंह (अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति)

उदय प्रताप सिंह जी के अद्भुत श्रीराम छन्द सुनिए

Aug 18, 2007

आज "शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय का ब्लॉग" पर उदय प्रताप जी के कुछ छन्द पढ़े। आलोक जी की टिप्पणीनुसार यह लीजिए एक कवि सम्मेलन में उनके द्वारा पढ़े हुए छन्द, उनकी अपनी आवाज़ में।
मुझे ऐसा लगता है कि यदि कोई अरसिक व्यक्ति भी इनको सुनेगा तो उसको साहित्य के प्रति अनुराग हो जाएगा।




गवर्नर का फरमान - १५ अगस्त - वाशिंगटन प्रदेश में "इंडिया डे"

Aug 14, 2007



भारत माता की जय
इंकलाब ज़िन्दाबाद
वन्दे मातरम्
जय हिन्द
वसुधैव कुटुम्बकम्
सत्यमेव जयते

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हैप्पी स्वतंत्रता दिवस - अनुगूँज २२ - एक कवि सम्मेलन के कुछ अंश

Aug 13, 2007


इस अनुगूँज के आयोजन हेतु आलोकजी को अनेक शुभकामनाएँ एवं धन्यवाद।

कई साल पहले लिखी अपनी एक कविता इस अनुगूँज हेतु प्रेषित कर रहा हूँ। जिस समय ये रचना लिखी थी उस समय यूनीकोड देवता का पदार्पण पूरी तरह नहीं हुआ था। तब लोग देवनागरी में लिख कर उसे पिक्चर की तरह सेव करते थे तथा मित्रों को पढ़वाते थे। उसी प्रारूप में यह रचना संलग्न है।

न्यू जर्सी में सन २००५ में हुए एक कवि सम्मेलन में यह कविता पढ़ी थी, उसकी रिकार्डिंग आप सुन भी सकते हैं।



आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की बधाइयाँ।

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पंजाब केसरी - विश्व हिंदी सम्मेलन और प्रवासी साहित्यकार

Aug 6, 2007

मित्रों, इधर डा सुधा ओम ढ़ींगरा जी के दो लेख पंजाब केसरी में छपे हैं। सुधाजी पिछले कई वर्षों से अमेरिका में रहती हैं। बहुत अच्छी कवयित्री हैं। हिंदी साहित्य के प्रति आस्था उन्हें विरासत में मिली है, उपेन्द्रनाथ अश्क जी की भतीजी हैं।
http://www.vibhom.com, इस वेबसाइट पर जाकर आप उनके बारे में तथा उनकी पुस्तकों, एलबमों, संकलनों तथा लेखन के बारे में जान सकते हैं। आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन नें उन्हें भी आहत ही किया है, बाकी तो आप इन लेखों में पढ़ ही सकते हैं।

Punjab Kesari Article 1

Punjab Kesari Article 2

कैलीफोर्निया में कवि सम्मेलन - कुछ तस्वीरें तथा कुछ बातचीत

Jul 26, 2007

पिछले सप्ताहांत (२१ जुलाई २००७) हमें कैलीफोर्निया में आयोजित एक कवि सम्मेलन में जाने का अवसर मिला। भारतीय मूल के कुछ लोग मिल जुल कर कार्यक्रम कर रहे थे तथा कवि सम्मेलन द्वारा सात्विक आनंद की प्रप्ति करना चाहते थे। शनीवार की सुबह सुबह मैं और मेरी पत्नी सामान बांध कर सिएटल से सेंट फ्रांसिसको की ओर जाने वाला विमान पकड़ने चल पड़े। सुबह सुबह निकलने के कारण वह समय याद आ गया जब लखनऊ से दिल्ली जाने के लिए गोमती एक्सप्रेस पकड़ने भागते थे। सिएटल में गर्मियों के दिनों में सूर्य देव सुबह चार बजे करीब ही अपना जल्वा दिखाना प्रारंभ कर देते हैं तथा रात के नौ, सवा नौ बजे तक अपने होने का एहसास कराते रहते हैं। जब हम सोकर उठे तो सुबह हो चुकी थी और जब हम साढ़े छह बजे की फ्लाइट में बैठे तो धूप भी खिल आई थी।

कवि सम्मेलन अपने नियत समय से लगभग घंटा भर देरी से प्रारंभ हुआ। नगरी के प्रसिद्ध विद्वान श्याम नारायण शुक्ल जी नें श्रोताओं को हमारा परिचय दिया, उन्हीं के भाई श्री देवेन्द्र नारायण शुक्ल जो कि एक अच्छे कवि तथा कविता के मर्मज्ञ हैं, इस कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे। वहाँ पहली बार अर्चना पाँडा जी को सुनने का अवसर मिला। अपने भावों को शब्दों में ढाल कर बड़े सुंदर तरीके से अर्चनाजी नें प्रस्तुत किया। उनकी कविताएँ सुनकर बड़ा आनंद आया तथा यह देखकर भी अच्छा लगा की अपने आस पास होने वाली घटनाओं और गतिविधियों को उन्होंने अपनी कविताओं का विषय बनाया है। अर्चनाजी का विडियो आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं।

देवेन्द्र नारायण शुक्ल जी नें भी बढ़िया हास्य कविताएँ सुनाईं। सिएटल से चलते समय राहुल उपाध्यायजी नें हमसे कहा था कि देवेन्द्र जी से गेट्स वाली कविता अवश्य सुनना अतः हमने वह भी सुनी। कविता का मूल भाव था कि, गेट्स नाम होने के बावजूद बिल नें विन्डोज़ क्यों बनाई। नीलू गुप्ता जी नें भी बढ़िया रचनाएँ सुनाईं। उनकी कविताएँ हमनें विश्व हिंदी सम्मेलन में भी सुनी थीं तथा आनंदित हुए थे। यहाँ पुनः उनको सुनने का अवसर प्राप्त कर अच्छा लगा। उन्होंने अपनी कविताओं की पुस्तक, "जीवन फूलों की डाली" भी हमको भेंट करी।

यह हमारा पहला कवि सम्मेलन था जिसमें लोग गोल गोल टेबल्स के चारों ओर बैठे थे। हमनें टीवी पर बिज़नेस अवार्डस आदि में ऐसी कुर्सी मेज व्यवस्था देखी थी। पहले हमें लग रहा था कि कहीं किसी को रुचि न आई तो लोग कविताएँ सुनना छोड़ आपस में बतियाने लगेंगे। पर ऐसा नहीं हुआ और सबने बड़े मनोयोग से काव्य पाठ को सुना। कवि सम्मेलन के उपरांत स्टैंड अप कमेडी का कार्यक्रम हुआ जिसमें संस्था के एक कलाकार नें खूब चुटकुले सुनाए। यह तो अच्छा था कि कवियों में से किसी नें चुटकुलेबाज़ी नहीं करी अन्यथा कंपटीशन वाली बात हो जाती।

एक और आईटम पेश हुआ, कार्यक्रम के प्रारंभ में एक सज्जन नें हिंदी के लिए "डाईंग लैंग्वैज" संबोधन का प्रयोग किया था अतः उनसे मैंने कहा कि यदि किसी भाषा का हमारा ज्ञान कम हो रहा हो तो यह समझना चाहिए कि हमारी योग्यता में कमी आ रही है न कि भाषा की सांसे कम हो रही हैं। एक भाईसाहब बाद में मिले तो बोले कि वे अमेरिका के परिपेक्ष में बात कर रहे थे तो हमनें उन्हें समझाया कि आज से पचास वर्ष पहले क्या कोई अमेरिका में हिंदी कवि सम्मेलन सुनने की, फिल्में देखने की बात सोच सकता था। आज यह सब हो रहा है, अतः घबराएँ नहीं सकारात्मक सोच रखें और मस्त रहें। कुल मिला कर कार्यक्रम बढ़िया रहा तथा सब लोग हंसते हंसते अपने घर गए। कार्यक्रम के कुछ चित्र नीचे प्रेषित कर रहा हूँ।


काव्य पाठ करते हुए अभिनव तथा मंच पर उपस्थित नीलू गुप्ता, अर्चना पांडा एवं देवेन्द्र शुक्ल

कवि सम्मेलन के बाद की तस्वीर











हम पहली बार कैलीफोर्निया गए थे अतः अगले दिन सेंट फ्रांसिसको नगरी घूमने गए। घुमाई फिराई के कुछ चित्र नीचे प्रेषित कर रहा हूँ।


गोल्डेन ग्लोब का एक दृश्य (यह इमारत रोमन वास्तुकला के प्रभावित होकर बनाई गई लगती है।)






हम ज़रा ज़्यादा ही मुटा गए हैं, अब मुट्टम मंत्र की जगह पतलम मंत्र का पारायण करना चाहिए।

ये हैं हमारे मामाजी, मामीजी एवं उनकी पुत्री (फोटे देख कर वे बोले कि यह तो बिल्कुल जीवन बीमा के विज्ञापन की तस्वीर हो गई।)




ये मशीन चाकलेट बना रही है।



ढ़लान पर बनी टेढ़ी मेढ़ी सड़क पर कारों का कारवाँ।

हम, हिन्दी और सम्मेलन - कुछ तस्वीरें कुछ जज़्बात

Jul 19, 2007

प्रः सुनते हैं आप भी विश्व हिंदी सम्मेलन में गए थे, क्या किया वहाँ जाकर?
उः कई काम किए, जैसे;
१ - वहाँ प्रकाशित होने वाले सम्मेलन समाचारों में एक संवादाता की हैसियत से काम किया।
२ - अभिव्यक्ति पर व्यंग्य समाचारों का संपादन किया।
३ - अंतिम दिन हुई काव्य गोष्ठी में कविताएँ सुनाईं।
४ - रेडियो सलाम नमस्ते पर हुए लाईव कवि सम्मेलन का संचालन किया।
५ - बहुत से महान लोगों के दर्शन का लाभ प्राप्त किया। बात किसी से कुछ खास नहीं हो सकी। बात तो वन आन वन ही हो पाती है, भीड़ में नहीं। (कुछ के साथ फोटो अवश्य खिंचवाई।)
६ - आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन की चित्र प्रदर्शनी में हमारे पाँच छह चित्र लगे थे। (डा अंजना संधीर और रानी सरिता जी की टीम नें इस प्रदर्शनी के लिए बड़ी तैयारी करी थी, पूरे अमेरिका में होने वाले भाषा संबंधी कार्यक्रमों के चित्र इसमें लगाए गए थे। )
७ - हमारी पुस्तक 'अभिनव अनुभूतियाँ' का पुनः विमोचन हुआ। (जिस प्रकार यह हुआ उससे तो ना ही होता तो अच्छा था। मंत्री महोदय को कहीं जाने की जल्दी थी तथा उन्हे बीस पुस्तकों का विमोचन करना था, अतः उन्होंने आयोजकों को डाँटते हुए, लेखकों पर धौंस जमाते हुए, एहसान जताते हुए विमोचन का ड्रामा किया। हम तो भाई तुरंत मंच से उतर गए। लेखक अपनी पुस्तक कभी मंत्रियों के लिए नहीं लिखता है, वह लिखता है उनके लिए जो किसी को भी मंत्री बना सकते हैं, अतः हम भला क्यों किसी की धौंस देखें। खैर, अंत में फोटे सेशन हुतु हमको दुबारा बुला लिया गया तथा हमनें यह सौभाग्य उन्हें प्रदान कर दिया।

८ - जो सबसे अच्छी बात रही इस बार न्यूयार्क जाने की वह ये कि हमें अपने मित्र भारतभूषण से मिलने का अवसर मिला, तथा उनसे बढ़िया चर्चाएँ हुईं। अपने भाई रिपुदमन की कविताएँ सुनने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। अनूप भार्गव जी, राकेश खण्डेलवाल जी, लावण्या दीदी, घनश्याम गुप्ता जी, लक्ष्मण ठाकुर जी, राकेश भार्गव जी, अशोक व्यास जी, बालेन्दु जी, विजय कुमार मलहोत्रा जी, डा विनोद तिवारी, डा निखिल कौशिक तथा अन्य अनेक महानुभावों से मिलना भी आनंददायी अनुभव रहा।

प्रः क्या आप सरकारी खर्च पर गए थे?
उः नहीं, हम अपने ही खर्च पर गए थे। (अगली बार जुगाड़ भिड़ाने की कोशिश करेंगे।)

प्रः आपको क्या लगता है, कुछ लाभ हुआ है भाषा को इस सम्मेलन से?
उः पता नहीं।

प्रः क्या आप अगले सम्मेलन में भी जाना चाहेंगे।
उः हाँ

प्रः अपने वहाँ जाकर क्या ग्रहण किया?
उः मुख्य बिन्दु निम्न रहे;
१ - सत्रों में सुनने की इच्छा मन में लेकर कम लोग बैठते हैं। (हर आदमी बोलना चाहता है।)
२ - एक दो सत्रों को छोड़ दें तो बाकी में अच्छा संवाद नहीं हो पाया।
३ - कुछ सत्रों में संचालक को पता नहीं था कि कौन बोलने वाला है, कुछ में बोलने वाले गायब थे तो कुछ में संचालक स्वयं नदारद थे। कई बार ऐसा लगा मानो कर्ज़ा अदायगी हो रही है।
४ - फूल माला शाल धन्यवाद स्वागत आदि में बहुत समय व्यर्थ हुआ, इसका प्रयोग भली प्रकार हो सकता था।
५ - अंत में प्रस्ताव पास हुआ पर ऐक्शन आईटम्स और फौलो अप की व्यवस्था नहीं दिखी।
६ - राजनीतिक रंग भी रहा, कांग्रेस का बोलबाला और बीजेपी का मुँह काला टाईप। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम अनेक बार सुनाई पड़े। उपस्थित मंत्रियों की चापलूसी भी भर भर के मंच और बेमंच दोनो से हुई।
७ - कई बार लड़ाई झगड़े और मन मुटाव की स्थिति पैदा हुई। हिंदी वालों में जो एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या का भाव है वह अनेक स्थलों पर शब्दों के रूप में फूटा। कोल्ड वार्स की तो गिनती ही नहीं है (मुख्य कवि सम्मेलन में जब हमको कवि सम्मेलन में कविता पढ़ने हेतु नहीं बुलाया गया तो हमनें सोचा की बस हो गया अशोक चक्रधर जी के समाचार पत्र में कोई काम नहीं करेंगे। हम हभी गुस्सा होने ही जा रहे थे कि सामने अपने से दिग्गज लोगों को गुस्सा होते देखा और फिर स्वयं पर लज्जित हुए तथा मन को समझ में आया कि डेढ़ घंटे में चालिस कवियों को पढ़वाना आसान काम नहीं है। वैसे बड़े से बड़ा आदमी क्रोध करता हुआ अजीब लगता है, अतः यह शिक्षा भी ग्रहण कर ली कि क्रोध से नहीं बोध से मन पर विजय पाओ।)
८ - अभी ब्लाग को बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा है।
९ - कुछ लोग जो दूर से बहुत बड़े दिखते थे, वे पास से खाली घड़े दिखते थे। (पर कुछ बड़े ऐसे थे जो सचमुच बड़े थे, दर्शन और अनुभव के सूत्र जिनके चरणों में पड़े थे।)
१० - अनूप भार्गव जी का उद्बोधन अच्छा लगा। आप इस लिंक पर जाकर इसे देख और सुन सकते हैं।

प्रः क्या हमारे पाठकों को आप और कुछ सुनाना चाहेंगे।
उः सम्मेलन से पहले साहित्य अमृत के संपादक नें हमसे इसी में विमोचित होने वाली पत्रिका के लिए व्यंग्य मंगवाया था। वही प्रस्तुत करेंगे, पर पहले ये चित्र देख लीजिए।


संयुक्त राष्ट्र संघ के बाहर


अनौपचारिक काव्य गोष्ठी (जो जो कवि मुख्य कवि सम्मेलन में नहीं पढ़ पाए उनको यहाँ अवसर मिला।)


अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति की डेस्क


संयुक्त राष्ट्र संघ से फैशन इंस्टीट्यूट जाने वाली बस पर चढ़ने की तैयारी (एक अनार सौ बीमार)


अभिनव, राकेश पाण्डेय, बालेन्दु शर्मा 'दधीच' और पंकज दुबे


लाईव कवि सम्मेलन के बाद कवियों के संतुष्ट चेहरे


ज़बरदस्ती पकड़ कर खिंचवाई गई तस्वीरें


हम, हिन्दी और सम्मेलन (साभारः साहित्य अमृत)

जबसे हमें यह पता चला है कि यह लेख विश्व हिंदी सम्मेलन में विमोचित होने वाली पत्रिका के लिए लिखा जा रहा है, मन में एक विशेष प्रकार के उल्लास का संचार हो रहा है। सम्मेलन में जब संसार भर के ख्यात विख्यात जन हमारे लेख को पढ़ेगे तो पत्रिका का पन्ना फड़फड़ा-फड़फड़ा कर अपनी प्रसन्नता का इज़हार करेगा। मन में कहीं दबा छुपा यह भाव भी है कि, कोई हमें भी सम्मेलन में बुला ले, ये क्या कि बस पत्रिका का विमोचन होगा, बिना लेखकों का सम्मान किए, बिना शाल वाल पहनाए होने वाले विमोचन का क्या महत्व। फिर लगता है कि चलो लेख ही छप जाए, ये सम्मान वम्मान तो होता रहेगा, हम कहाँ भागे जा रहे हैं। सुनते हैं कि सम्मेलन में आने को लिए दिल्ली में साल भर पहले से लाईन लगनी शुरू हो गई थी। किसने लाईन लगाई तथा किसके सामने लगाई इसका कुछ पता नहीं चला। परंतु जिससे भी पूछते सब यही कहते कि हम कहाँ जा पाएँगे दिल्ली में तो साल भर से लाईन लग रही है।

वैसे मुझे सम्मेलनों का बहुत अधिक अनुभव नहीं है, मुझे कभी वक्ता के रूप में बुलाया नहीं गया और इससे कम में जाना अपने को जंचा नहीं। पर जो थोड़े बहुत सम्मेलन मैंने कवि के रूप में देखे हैं उनसे यही लगता है कि सब बड़ा मायाजाल है। ज्यादातर लोगों का सम्मेलन के मूल भाव से कोई सारोकार नहीं होता है तथा वे आम तौर पर घूमने फिरने तथा मंच पर बोलने तथा बैठने के लिए सम्मेलनों में जाते हैं। सुनने के लिए कम ही लोग जाते हैं। अब ये कोई ब्रिटनी स्पियर्स का नया पाप गीत तो है नहीं कि लोग सुनने जाएँ।

मान लीजिए मंच पर पाँच लोग बैठे हैं और एक सज्जन अपना आलेख पढ़ रहे हैं तो बाकी सबके मन में हलचल होती रहती है। पहले साहब अपने पड़ोसी से कहते हैं,
'महोदय पन्द्रह मिनट के लिए खड़े हुए थे, पच्चीस मिनट से बोले जा रहे हैं, यह नहीं सोच रहे हैं कि अगले को भी कुछ कहना है। सम्मेलन न हो मज़ाक हो।'
दूसरे साहब भी कम थोड़े ही हैं वे आनंदित होते हुए कहते हैं,
'अरे, पिछले कार्यक्रम में तो ये डेढ़ घंटे बाद बैठे थे, आज भी लगता है मूड में आ गए हैं।'
तीसरे साहब नेपथ्य में देख कर बड़बड़ाते हैं,
'अमाँ, मंच पर चाय पानी भिजवाओ। एक तो हिन्दी के कार्यक्रमों में सुंदर चेहरे भी नहीं आते हैं अब भला श्रोताओं में बैठे बुज़ुर्गों को कब तक कोई देखे।'
चौथे साहब पांचवे से कहते हैं,
"आपने सुना अपने हलधर साहब को पद्मश्री मिल रही है।"
पांचवे आह भरते हैं,
'हाँ भाई, हमें कौन पूछेगा। ये हलधर कल तक मेरे सामने हाथ जोड़े खड़ा रहता था, पर अब तो बड़ा आदमी बन गया है।'
बीच बीच में वक्ता विषेश रूप से मंच का ध्यान आकृष्ट करने हेतु दो चार पुछल्ले छोड़गा,
'मंच का विषेश ध्यान चाहूँगा', 'मेरे साथी जो मेरे साथ बैठे हैं वे सभी इससे सहमत होंगे कि हम समय बर्बाद कर रहे है' आदि इत्यादि। और सभी साथी हाँ हाँ में सिर हिलाते पाए जाएँगे। कवि जमात के हुए तो वाह वाह, बहुत बढ़िया भी बोल सकते हैं।

हम कोई सम्मेलनों के विरोधी नहीं हैं, परंतु मन में यह तो लगता ही है कि अनेक विषयों पर अनंत चर्चा के बाद भी कार्यक्रम के अंत में कार्य भी निर्धारित नहीं होते हैं, काम भी नहीं बाँटा जाता है, बस अचानक समाप्ति की घोषणा हो जाती है। अरे भाई, जब इतना बड़ा आयोजन किया है, इतने लोग एक जगह जुटाए हैं तो यह भी सोचना चाहिए कि विषय के परिपेक्ष में हम कहाँ हैं और आगे हमें कहाँ जाना है? कुछ 'ऐक्शन आईटम्स' भी निर्धारित होने चाहिए। उनकी ज़िम्मेदारी का भी विभाजन होना चाहिए तथा फिर यह भी देखना चाहिए कि जो निर्धारित हुआ था उस पर कुछ काम हुआ या नहीं। आम तौर पर सम्मेलनों का इन सबसे कोई मतलब नहीं होता है।

खैर, यह तो थी सम्मेलन की बात, पर शायद भाषा नदी की तरह होती है जो कि अपना रास्ता खुद बना लेती है। हम लोग कहीं बांध बनाते हैं तो कहीं फूल चढ़ाकर अपना रोल अदा करते हैं। हिन्दी की वृहदता के चलते इसके अनेक रूप भी प्रचलित हैं तथा हर रूप में एक विषेश प्रकार का आनंद समाहित है। विदेश में अच्छी हिंदी में बातचीत करने का अपना मज़ा है। कई बार तो लोग ऐसे घूर कर देखते हैं मानो किसी और गृह का प्राणी उनके बीच आ गया हो। जब हमसे कोई दक्षिण भारतीय मिलता है और कहता है कि, "आपका हिन्दी बहुत अच्छा है, कइसे।", तब हम उसे समझा देते हैं कि भाई लखनऊ में सब ऐसे ही बातचीत करते हैं। यह अच्छी नहीं साधारण भाषा है, अच्छी तो अज्ञेय जी की हिन्दी थी। वह समझ जाता है। पर जब हमसे कोई लखनऊ वाला अपने शब्दों में दया भाव भरता हुआ कहता है कि भाई, तुम्हारी लैंग्वेज बहुत बढि़या है, इट्स रियली नाईस, क्या यूपी बोर्ड से पढ़े हो। तब हम सोचते हैं कि इसे क्या समझाएँ। अगर भाषा का अच्छा होना किसी बोर्ड पर निर्भर होता तो ये जितने भी प्रवासी भारतीयों के बच्चे हैं, कोई भी हिन्दी न बोल पाता। भाषा का अच्छा या बुरा होना किसी भी व्यक्ति का अपना व्यक्तिगत चुनाव है।

वैसे अपनी भाषा का प्रसार भी नित नई सिंहगढ़ विजय कर रहा है, मेरे दफ्तर की टीम में इटली, आईरलैंड, इंगलैंड, कनाडा, चीन, भारत तथा अमेरिका के लोग हैं, हम सब एक जापानी मैनेजर को रिपोर्ट करते हैं। धीरे धीरे सबको हिन्दी फिल्मों का चस्का लगना प्रारंभ हो गया है। नमस्कार के चमत्कार से भी लगभग सब परिचित हो गए हैं। समय के साथ बात आगे ही बढ़नी चाहिए। हिंदी के साथ भी नित नए अभिव्यक्ति के माध्यम जुड़ते जा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में ब्लागजगत नें धूम मचा दी है। दुनिया भर के हिंदीभाषी अपनी कविताएँ, लेख तथा कहानियाँ ब्लाग के माध्यम से एक दूसरे को पढ़ा रहे हैं। आप में से जो लोग कभी नारद (ब्लाग पोर्टल - www.narad.akshargram.com) की गलियों से नहीं गुज़रे उन्हें बता दूँ कि बड़ी बहसबाजी चलती है वहाँ। राजनीति, झगड़े, झंझट, गीत, ग़ज़ल सबकी एक अलग दुनिया बसी हुई है। कोई बड़ी बात नहीं है कि कल ये ब्लाग वाले अपने आपको हिंदी का पैरोकार बताते हुए ऐसे सम्मेलनों पर कब्ज़ा करने का प्रयास करें। परंतु मुझे पूरा विश्वास है कि उनकी कोशिशों को नाकाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी।

इधर हम भी एक विशुद्ध अमेरिकन को हिंदी पढ़ा कर कृतकृत्य हो रहे हैं।
एक दिन हमारी शिष्या नें हमसे प्रश्न पूछा कि 'धन्यवाद' तथा 'शुक्रिया' में क्या फर्क है?,
हमनें उसे भाषा की प्रगाढ़ता और लोकतांत्रिकता समझाते हुए बतलाया कि, दोनो ठीक हैं कुछ लोग 'श' को 'स' बोलते हैं, अतः वे 'सुक्रिया' की जगह 'धन्यवाद' कहते हैं, तथा कुछ लोग 'व' को 'ब' उच्चारित करते हैं अतः वे 'धन्यबाद' की जगह 'शुक्रिया' कहते हैं।
इसपर उसने पूछा कि यदि कोई 'श' को 'स' तथा 'व' को 'ब' बोलता हो, डबल त्रुटियाँ हों, तो वो क्या कहता है।
हमने उसे बता दिया कि वो 'थैंक यू' बोल देता है।
वो बोली 'थैंक यू सर'।