जब मैं छोटा था,
तो घर पर पारले-जी का पैकेट आता था,
उसमें बारह बिस्कुट होते थे,
माँ, मुझे और मेरे छोटे भाई को,
चार चार बिस्कुट देती थी,
फिर जब हम जिद करते तो बाकी के दो दो भी मिल जाते थे,
उनको चाय में डुबो डुबो कर खाने में स्वर्ग का आनंद आता था,
अब में बड़ा हो गया हूँ,
मैं अपने माता पिता के साथ नही रहता हूँ,
अब मेरा भाई और मैं अलग अलग रहते हैं,
मेरी पत्नी को पारले जी पसंद नही हैं,
अब में सिएटल के इंडिया स्टोर से एक सौ बिस्कुट वाला पारले जी का पैकेट लाता हूँ,
पर वो स्वाद नही पा पता हूँ,
मैं उनमें स्वाद ढूँढने की कोशिश करता हूँ,
पर हार जाता हूँ,
शायद स्वर्ग बिस्कुट में नहीं,
किसी और चीज़ में ही होता था.
जब में छोटा था,
तब मेरे माता पिता,
दो कमरों के छोटे से घर में रहते थे,
आपस में बातें करते थे,
"देखो, तिवारीजी का लड़का,
इंजिनीयर बन कर अमेरिका चला गया है,
राजाजीपुरम मैं क्या बढ़िया घर बनवा रहे हैं,
हमारा शेर क्या कुछ कमाल दिखा पायेगा,
क्या अमेरिका जा पायेगा,
हमारे लिए स्वर्ग ला पायेगा."
आज वो सात कमरों के अपने घर में अकेले हैं,
फ़ोन के उस पार से आने वाली आवाजों में ही उनके मेले हैं,
बच्चे पहले रोज़ फ़ोन करते थे,
फिर दो तीन दिन में एक बार करने लगे,
अब सप्ताह में एक बार करते हैं,
कल महीने में एक बार करेंगे,
माँ जब परले जी का पैकेट देखती होगी,
तो सोचती होगी,
शायद स्वर्ग किसी और चीज़ में ही होता था.
महा लिख्खाड़
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पारले-जी का पैकेट
Dec 7, 2007प्रेषक: अभिनव @ 12/07/2007
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7 प्रतिक्रियाएं:
निश्चय ही वह स्वाद उस युग-काल में था। पर स्वाद तो तलाशना/बनाना पड़ता है सतत।
बहुत अच्छी कविता।
बहुत दिनों बाद किसी कविता को पढ़कर मेरी आंख की कोरें नम हो गईं हैं ये बात केवल इसलिये नहीं कह रहा हूं कि तुम मेरे शिष्य हो पर इसलिये क्योंकि ये ही सच है । तुमने मुझे बचपन में चाय में ड़बोकर खाई गई टोस्टों की याद दिला दी । अभिनव कविता यही होती है जो आदमी को अंदर तक हिला कर रख दे कविता वो होती हे तो हमें हिला देती है । जो हमें कही भी न छू पाए वो और कुछ भी हो पर कविता नहीं हो सकती हे । पहले ये कर लूं वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह वाह । फिर कहना चाहूंगा कि तुम कविता से कभी अलग मत होना क्योंकि तुम्हारे अंदर संवेदना है और जिसके अंदर संवेदना होती है वही कवि बन सकत है । नई कविता के नाम पर आजकल जो बकवास हो रही है उसको तुम्हारी कविता का अच्छा जवाब है । आंखों की कोरें नम हो जाएं जिससे वो कविता होती है, बरबस आंसू आ जाएं जिससे वो कविता होती है ।
मेरी एक ऐसी ही कविता है
मेरा घर बुढ़ाने लगा है
खांसती हैं आजकल दीवारें
रात भर
हालंकि डरती हैं
कि कहीं नींद न टूट जाए
मेरी
इसलिये शायद
लिहाफ में मुंह दबा कर खांसती हैं
फिर भी मैं सुन लेता हूं
और जान जाता हूं
कि मेरा घर
बूढ़ा होता जा रहा है
bhut khoob....sach dil ko chu gayi apki rachna
We certainly enjoyed your poety
with stomach full laugh when you were in Raleigh NC. WKNC sunday
coversation was very touching.
Hope we see you at the IIT campus again.We love you. We all admire Sudhaji's (poetess) work and love to the community.
Bye
Babubhai Patel
Morrisville NC 27560
Babu339@Hotmail.com
अभिनव भाई ... ढेरों भावनाएं समेटे एक सुंदर कविता के लिए बधाई
इसे भी पढ़ा जाए :-)
जब मैं छोटा था नासमझ था
सोचता था अपना सब कुछ देश हित में लगाऊँगा
अब मैं टैक्स की चोरी करता हूँ
अब मैं बड़ा हो गया हूँ समझदार हो गया हूँ
जब मैं छोटा था नासमझ था
लोग मेरा मन मेरी आंखों से पढ़ लेते थे
अब मैं काला चश्मा लगाता हूँ
अब मैं बड़ा हो गया हूँ समझदार हो गया हूँ
जब मैं छोटा था नासमझ था
लड़ता था खुट्टी होती थी फिर तुरंत मुच्ची हो जाती थी
अब मेरी याददाश्त बहुत अच्छी है छोटी सी बहस भी बरसों याद रहती है
अब मैं बड़ा हो गया हूँ समझदार हो गया हूँ
जब मैं छोटा था नासमझ था
माँ पापा जो सिखाते बताते थे वही मेरी दुनिया थी
अब सबके सामने पैर छूने में थोडी शर्म आती है
अब मैं बड़ा हो गया हूँ समझदार हो गया हूँ
जब मैं छोटा था नासमझ था
मन की बातों को कागज पर लिख देता था
अब लिखता हूँ ये सोचकर इसे कैसा लगेगा वो क्या काहेगा
अब मैं बड़ा हो गया हूँ समझदार हो गया हूँ
जब मैं छोटा था नासमझ था
सोचता था मैं और भाई राम लक्ष्मण की तरह रहेंगे
अब राम सीता माँ के और लक्ष्मण उर्वशी के साथ रहते हैं
अब मैं बड़ा हो गया हूँ समझदार हो गया हूँ
पता भी न चला कि कब मैं नासमझ से समझदार होता चला गया
कब अपनों से दूरियां बढ़ी कब सपनों की दुनिया छिनी
खुशकिस्मत होते हैं वो चन्द लोग
जो हमेशा नासमझ रहते हैं और जिनका बचपना कभी खोता नहीं
नीरज त्रिपाठी
नए साल में इतनी मर्मस्पर्शी कविता और उसके साथ साथ टिप्पणियों में आपकी कविता की प्रतिक्रिया के रूप में दो कविताएँ पढ़ने को मिलेगी.... सोचा नहीं था... दिल को गहरे तक छू गई..... अभिनव जी, पंकज जी और नीरज जी ... आपको ढेरो ढेरो शुभकामनाएँ ...नए साल में ऐसी ही और कविताएँ पढ़ने का अवसर मिले..यही कामना है.
Abhinav....perhaps u know me or not..I am Deepti's friend's husband. I came to know that u r a poet...I must say..the most touching poem till date if I have read or heard is only yours PARLEJI....Perfect...I am full to my throat and eyes..it touched my heart..really great and so touching....Keep it up Buddy
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