दिवाली पर दिल्ली के बाज़ारों और
होली पर बनारस के संकट मोचन मंदिर,
में हुए धमाकों के बाद,
पाकिस्तान में बैठा,
एक ओसामा अपने शागिर्दों में बड़बड़ाया,
"हिन्दुओं के भरोसे बैठने से कुछ नहीं होगा,
ये लोग ऐसे नहीं लड़ेंगे,
अबकी बार हम ईद पर,
जामा मस्जिद में धमाके करेंगे।"
सब शागिर्द एक साथ बोले,
"आमीन"।
महा लिख्खाड़
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नाप तोल
आमीन
Apr 30, 2006प्रेषक: अभिनव @ 4/30/2006 2 प्रतिक्रियाएं
Labels: कविताएं
गर्मियाँ, गर्मियाँ, गर्मियाँ, गर्मियाँ।
जलती बुझती हुई आ गई गर्मियाँ,
चलती रुकती हुई आ गई गर्मियाँ,
धूप लोगों के सिर पर उबलने लगी,
गर्मियाँ, गर्मियाँ, गर्मियाँ, गर्मियाँ।
वो ठेले वाला,
जो गर्मियों में,
लोगों को लू से बचाने के लिए,
सबको पना पिलाता था,
लू लगने से मर गया है,
हिन्दी अखबार के तीसरे पन्ने पर,
नाम कर गया है,
हम कूलर के आगे मुँह घुसाए,
गर्मी से लड़ रहे हैं,
और उसी अखबार के टुकड़े पर,
चबेना चबाते हुए,
यह खबर पढ़ रहे हैं।
गर्मियाँ, गर्मियाँ, गर्मियाँ, गर्मियाँ।
प्रेषक: अभिनव @ 4/30/2006 0 प्रतिक्रियाएं
Labels: कविताएं
भाई नें भाई को गोली मारी है
Apr 26, 2006हमने अपना भेष बदल कर देख लिया,
सच्चाई की राह पे चल कर देख लिया,
भाई नें भाई को गोली मारी है,
अपना घर चुपचाप संभल कर देख लिया,
अच्छी खासी कनफ्यूज़िंग सामग्री है,
सभी धर्म ग्रन्थों को पढ़ कर देख लिया,
रात और दिन को कैसे जुदा करें बोलो,
हमने फिर सपने में दफ्तर देख लिया,
लगता है माडर्न आर्ट सा जीवन है,
दुनिया के नक्शे पर कढ़ कर देख लिया,
'अभिनव' अनुबंधों के नव संबंधों में,
झूठी मुस्कानों को भर कर देख लिया।
प्रेषक: अभिनव @ 4/26/2006 4 प्रतिक्रियाएं
Labels: गीतिका
SC, ST, BC अब बन्द कीजिए
Apr 14, 2006देश की प्रगति का प्रबन्ध कीजिए,
SC, ST, BC अब बन्द कीजिए,
गाँव गाँव जाके स्कूल खोलिए,
वोटरों को पढ़ने के लिए बोलिए,
सबको बराबरी से दक्ष कीजिए,
प्रतियोगिताएँ निष्पक्ष कीजिए,
धावकों को बैसाखियाँ ना थमाइए,
प्रतिभा को यूँ ना खण्ड खण्ड कीजिए,
उन्नति की गति को ना मन्द कीजिए,
SC, ST, BC अब बन्द कीजिए,
मुट्ठियाँ ये यूँ ही आज भींची नहीं हैं,
जाति कोई ऊँची कोई नीची नहीं है,
तथ्य मात्र एक सत्य के करीब है,
है अमीर कोई और या गरीब है,
ऐसे में विभाजनों को ठीक कीजिए,
सबको समान सुविधाएँ दीजिए,
खत्म भेदभाव के ये द्वन्द कीजिए,
SC, ST, BC अब बन्द कीजिए,
भारत में शिक्षा के जो प्रतिमान हैं,
नालन्दा औ' तक्षशिला के समान हैं,
धरा पे जो ज्ञान के भगीरथों से हैं,
मन्दिरों से हैं पवित्र तीरथों से हैं,
इनसे तो खिलवाड़ छोड़ दीजिए,
राजनीतियों की राह मोड़ लीजिए,
योग्यता के सुमनों को छन्द कीजिए,
SC, ST, BC अब बन्द कीजिए
देश की प्रगति का प्रबन्ध कीजिए,
SC, ST, BC अब बन्द कीजिए।
प्रेषक: अभिनव @ 4/14/2006 6 प्रतिक्रियाएं
Labels: कविताएं
अनुगूँज १८ - धर्म, फुटबाल, देवपुरुष और मैं
Apr 6, 2006
मेरे जीवन में धर्म का महत्व तो है, क्या है ये बताना ज़रा कठिन है। दिमाग पर ज़रा ज़ोर डालने पर ऊट पटांग विचार तो मन में आते हैं जैसे -
१ धर्म का अर्थ है, धनवान का मर्म, धनिया की शर्म, धनुष का कर्म और धतूरे का चर्म।
२ हमारे समाज में अनेक एसे महानुभाव हैं जो धर्म को अपनी जेब में लिए फिरते हैं। मैं भी उनमें से एक हूँ।
३ धर्म धर्म खेलकर कोई सरकार में आ गया तो कोई आने की कोशिश में है।
४ धर्म धनतेरस पर मिलने वाले उस बर्तन की भांति है जिसे हम खरीदना तो चाहते हैं पर जो हमारे बजट से अधिक मंहगा होता है।
५ समाज धर्म की खटिया पर पड़ा पड़ा अंगड़ाइयाँ लेता रहता है।
पर कोई ठोस तथ्य सामने नहीं आ पा रहा है। कभी कभी ऐसा लगता है मानो हमारे जीवन में धर्म का उतना ही महत्व है जितना कि फुटबाल के खिलाड़ी के जीवन में गोल पोस्ट का होता है। जैसे खिलाड़ी मैच भर गोल पोस्ट की ओर फुटबाल लेकर भागता रहता है और कुछ लोग उसे ऐसा करने रोकते रहते हैं वैसे ही हम भी धर्म की ओर भागते हैं और कुछ महानुभाव, कुछ वृत्तियाँ हमको रोकती रहती हैं। खिलाड़ी तो कभी कभी गोल कर भी लेता है पर अपन गेम छोड़ कर बाहर बैठ जाते हैं और इस तमाशे को देखते रहते हैं।
आपको अपना धर्म जनित ताज़ा अनुभव सुनाते हैं। पिछले सप्ताह राशन पानी लेने के लिए सिएटल के 'सेफ वे', नामक स्टोर पर गए थे। सामान बटोर कर बस स्टाप पर खड़े बस के आने का इंतज़ार कर रहे थे। सड़क सुनसान थी तथा दूर दूर तक कोई जानवर भी नहीं दिख रहा था। तभी एक लगभग साढ़े छह फुट ऊँचा, श्यामवर्णी, गजबदनी, लच्छेदार केशराशि वाला साक्षात लफाड़ी टाइप देवपुरुष हमारे निकट आकर खड़ा हो गया। हमको देख कर ऐसे मुस्कुराया जैसे हम लखनऊ के चिड़ियाघर में हुक्कू बंदर को देख कर मुस्कुराते हैं तथा फिर हैलो का कैचम कैच खेला।
फिर बोला, "क्या तुम पाकिस्तानी हो।"
हमनें कहा, "नहीं भारतीय हैं।"
"हमम्, भारतीय - अच्छा तुम्हारा रिलीजन क्या है, मुस्लिम हो क्या?"
हमारे मन में तो आया कि कह दें कि हाँ मुस्लिम हैं, और देखें कि आगे क्या होता है। पर इधर ज़रा डरपोक हो गए हैं, पंगा आदि लेने से बचते हैं। अब पहले जैसा नहीं रहा कि पंगे आगे आगे चलते थे और हम पीछे पीछे। खैर हम बोले,
"हम हिन्दू हैं, पर यह प्रश्न तुमने क्यों किया। यदि हम मुस्लिम होते तो क्या?"
"मैं नहीं चाहता कि कोई भी मुस्लिम अमेरिका में रहे, ये लोग अच्छे नहीं होते हैं।"
हमनें मन ही मन सोचा कि देखो ये व्यक्ति जिसकी जाति नें स्वयं कहीं ना कहीं रंग भेद की नीति को भोगा है आज मुसलमानों को अमेरिका से बाहर करना चाहता है। सोचा चुप रहें पर रह ना पाए तथा उससे बोले कि,
"देखो भाई, किसी भी व्यक्ति को तुम इस आधार पर किसी वर्ग विशेष में नहीं रख सकते कि वह किस रिलीजन का है। अच्छे और बुरे लोग हर जगह हैं और खूब हैं।"
अभी हम प्रवचन को आगे बढ़ाते कि हमारी पत्नी नें हमें बीच में ही रोक दिया। तथा हमसे धीरे से बोलीं कि इससे पंगा ना लो, अन्जान देश बिना मतलब के बात मत बढ़ाओ। इस पूरी घटना में वह देवपुरुष अपनी समझ में अपने राष्ट्र धर्म का पालन करते हुए अमेरिका से मुसलमानों को भगाना चाहता था। हम अपनी समझ में अपने कवि धर्म का पालन करते हुए उसे समझाने का प्रयास कर रहे थे और हमारी पत्नी अपने पत्नी धर्म का पालन करते हुए हमको टोक ही रही थीं कि बस धर्म का पालन करती हुई बस आई और ड्राइवर धर्म का पालन करते हुए ड्राइवर नें बस के द्वार खोल दिए तथा हम लोग यात्री धर्म का पालन करते हुए अपने बसेरे की ओर चल पड़े।
चलते चलते कुछ गज़ल जैसा बन पड़ा, इसे भी पढ़ लीजिए;
धर्म आंखों से बरसते प्यार की मुस्कान है,
धर्म जीवन में छिपे भगवान की पहचान है,
धर्म ही है योगियों की साधना के मूल में,
धर्म सक्षम बाजुओं में शक्ति का तूफान है,
सोचता हूँ देख कर गांधी की उस तस्वीर को,
धर्म से कितना बड़ा अब हो गया इंसान है,
मैं भी मानवता को तीर्थ मानता हूँ दोस्तों,
मुझको ये लगता है मेरा धर्म हिन्दोस्तान है।
अभिनव
प्रेषक: अभिनव @ 4/06/2006 4 प्रतिक्रियाएं
कृपया अपने विचार व्यक्त करें 'पूरब और पश्चिम' पर
Apr 3, 2006पिछले कुछ समय से भारतवासी संसार के कोने कोने में अपना बोरिया बिस्तरा लेकर पहुँच चुके हैं। पहले व्यक्ति जहां पैदा होता था, उसकी अनेक सन्ततियां भी वहीं डेरा जमाती थीं। लोग बाहर ना जा सकें इसके लिए समुद्र यात्रा पर जात बिरादरी से बाहर इत्यादि नियम भी बनाए गए थे। सुनते हैं कि अपने गांधीजी पर यह नियम लागू भी किया गया था। अभी भी ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी चारदीवारी से बाहर आने में कतराते हैं। परंतु प्रगति का एक अंश है गति, और गति हमें एक स्थान से दूसरे तक की दूरी तय करवाती है। यह भी सत्य है कि लोगों की बोलचाल, खानपान, चलना फिरना, नियम कानून और भी अनेक इस प्रकार की चीज़ें उसकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार बदलती रहती हैं। ऐसे में एक से अधिक संस्कृतियों में स्वयं को सहज कर पाने में किन विशेष योग्यताओं की आवश्यकता होती है। या फिर यूँ कह लें वो कौन सी समस्याएं हैं, अच्छाइयां हैं और कौन सी बुराइयाँ हैं जो व्यक्ति दो विरोधाभासी संस्कृतियों के संपर्क में ग्रहण करता है। मेरा आप सुधीजनों से अनुरोध हैं कि कृपया इस विषय पर अपने विचार व्यक्त करें। बात ज़रा पूरब और पश्चिम जैसी है, पर ज्वलंत है।
प्रेषक: अभिनव @ 4/03/2006 5 प्रतिक्रियाएं
उन बिखरे पंखों से उड़ने का दावा है।
Apr 1, 2006मन में जो आ रहा है, आप भी सुनिए;
पथरीले चेहरों पर मुस्कानों का खिलना,
जीवन की उलझन का अच्छा भुलावा है,
हिंदी अंग्रेज़ी में कौन बात करता है,
बहती तरंगों की भाषा तो जावा है,
ऐसे में अनुभूति नव चाहे अभिनव हो,
पुस्तक का छपना तो मात्र एक छलावा है,
जिन कोमल पंखों को बिखराया आंधी नें,
उन बिखरे पंखों से उड़ने का दावा है।
प्रेषक: अभिनव @ 4/01/2006 1 प्रतिक्रियाएं
Labels: गीतिका