जिनके अपनों की कब्रें हैं,
फूल चढ़ा लेने दो उनको,
जब झगड़ा था, तब झगड़ा था,
अब कोई टकराव नहीं है,
मौसम बदल चुका है सारा,
मज़ारों पर जूता चप्पल,
मेहमानों पर ईंटा पत्थर,
ये लखनऊ की तहज़ीब नहीं है।
ये लखनऊ की तहज़ीब नहीं है
Sep 26, 2007
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 प्रतिक्रियाएं:
हमको तहज़ीब सिखा रहे हो बरखुर्दार, ये बताओ जब इंग्लैंड और अमेरिका नें ईराक पर हमला किया था तो क्या उनको भी यही पाठ पढ़ाया था। दूर बैठकर ऐसी बातें बनाना बहुत सरल है।
सच में मुझे भी समझ नहीं आया कि इन अंग्रेजों का विरोध प्रदर्शन कर क्या मिलने वाला था/है.
तहज़ीब से जोड़कर अपनी बातों को बड़ी ही ख़ूबसूरती के साथ स्तूत किया है.
अच्छी लगी कविता कहीं की भी ऐसी तहजीब नहीं होनी चाहिए
Post a Comment