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दिया एक जला कर देखो
Oct 26, 2011अपने हाथों से दिया एक जला कर देखो.
ये है सच आज अंधेरों का बोल बाला है,
रोशनी पर लगा इलज़ाम भी निराला है,
पर अमावस में ही सजती हैं शहर की गलियां,
प्यासे सपनों में महकती हैं सुहानी कलियां,
कोई तुमसे कहे जीवन की रात काली है,
तुम दिया एक जलाकर कहो दिवाली है,
अपने हाथों से दिया एक जला कर देखो.
खेल मिटटी का दिखाया है दुबारा इसनें,
चाक पर घूम के है रूप संवारा इसनें,
आग में तपता रहा सिर्फ ज़माने के लिए,
आया बाज़ार में फिर बिकने बिकाने के लिए,
रोशनी देगा तो एहसान तेरा मानेगा,
वरना मिटटी से इसे फिर कुम्हार छानेगा,
अपने हाथों से दिया एक जला कर देखो.
फिर अयोध्या किसी मन की नहीं सूनी होगी,
फिर चमक वक्त के चेहरे पे भी दूनी होगी,
फिर से सरयू भी झूम झूम गीत गाएगी,
फिर से मुस्कान सितारों की झिलमिलाएगी
स्वर्ण मृग सीता को लंका में नहीं भाएंगे,
मन में विश्वास अगर हो तो राम आएंगे,
अपने हाथों से दिया एक जला कर देखो.
- अभिनव
प्रेषक: अभिनव @ 10/26/2011
Labels: कविताएं
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1 प्रतिक्रियाएं:
"स्वर्ण मृग सीता को लंका में नहीं भाएंगे,
मन में विश्वास अगर हो तो राम आएंगे"
kya baat hai... baDhiya
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