भला लिखूं बुरा लिखूं,
ये न सोचूं कि क्या लिखूं,
उजालों को लिखूं दहशत,
अंधेरों को ख़ुदा लिखूं,
ये न सोचूं कि क्या लिखूं,
उजालों को लिखूं दहशत,
अंधेरों को ख़ुदा लिखूं,
बस इतनी सी तमन्ना है ज़रा सा काम हो जाए,
बड़े कवियों की टोली में मेरा भी नाम हो जाए,
लगें कविताएँ मेरी सारी कोरस की किताबों में,
बहुत से पत्र आयें मेरी रचना के जवाबों में,
मुझे कविता सुनानी है बड़े से मंच पे चढ़ कर,
गले का हार लेना है ज़रा रुक कर ज़रा बढ़ कर,
रहूं शामिल प्रपंचों और शब्दों की कुटाई में,
मेरी तो जान अटकी है लिफाफे की मुटाई में,
यदि मुझको मिले दौलत तो मैं ये काम भी कर दूं,
करूं तेज़ाब शबनम को,
ज़हर को ही दवा लिखूं,
उजालों को लिखूं दहशत,
अंधेरों को ख़ुदा लिखूं,
बड़े कवियों की टोली में मेरा भी नाम हो जाए,
लगें कविताएँ मेरी सारी कोरस की किताबों में,
बहुत से पत्र आयें मेरी रचना के जवाबों में,
मुझे कविता सुनानी है बड़े से मंच पे चढ़ कर,
गले का हार लेना है ज़रा रुक कर ज़रा बढ़ कर,
रहूं शामिल प्रपंचों और शब्दों की कुटाई में,
मेरी तो जान अटकी है लिफाफे की मुटाई में,
यदि मुझको मिले दौलत तो मैं ये काम भी कर दूं,
करूं तेज़ाब शबनम को,
ज़हर को ही दवा लिखूं,
उजालों को लिखूं दहशत,
अंधेरों को ख़ुदा लिखूं,
पढूं दिनकर को बच्चन को ज़रूरत क्या भला मुझको,
शरद, परसाई का कूड़ा क्या देगा हौसला मुझको,
अमां कोहली को पढ़ कर क्या मुझे श्री राम बनना है,
पढूंगा सिर्फ़ वो जिससे की मेरा काम बनना है,
अगर ग़लती हो छंदों में तो चलती है नया युग है,
बहर टूटी भी गज़लों में मचलती है नया युग है,
मेरे गीतों को फिल्मों में जगह मिल जाए जल्दी से,
पुरुस्कारों की देवी भी इधर मुस्काय जल्दी से,
इशारा तो करें सम्मान कोई मुझको देने का,
लिखूं चालीसा नेताजी की,
थु थू को वाह वा लिखूं,
भला लिखूं बुरा लिखूं,
ये न सोचूं कि क्या लिखूं,
उजालों को लिखूं दहशत,
अंधेरों को ख़ुदा लिखूं.
शरद, परसाई का कूड़ा क्या देगा हौसला मुझको,
अमां कोहली को पढ़ कर क्या मुझे श्री राम बनना है,
पढूंगा सिर्फ़ वो जिससे की मेरा काम बनना है,
अगर ग़लती हो छंदों में तो चलती है नया युग है,
बहर टूटी भी गज़लों में मचलती है नया युग है,
मेरे गीतों को फिल्मों में जगह मिल जाए जल्दी से,
पुरुस्कारों की देवी भी इधर मुस्काय जल्दी से,
इशारा तो करें सम्मान कोई मुझको देने का,
लिखूं चालीसा नेताजी की,
थु थू को वाह वा लिखूं,
भला लिखूं बुरा लिखूं,
ये न सोचूं कि क्या लिखूं,
उजालों को लिखूं दहशत,
अंधेरों को ख़ुदा लिखूं.
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Abhinav Shukla
206-694-3353 | www.kaviabhinav.com
P Please consider the environment.
3 प्रतिक्रियाएं:
अभिनव जी,
बहुत सुन्दर। आपकी इस रचना को पढ़कर लगभग इसी भाव-भूमि पर मेरी एक पुरानी रचना के कुछ अंश इस प्रकार हैं-
कमी बहुत श्रोताओं की है वक्ताओं की नहीं कमी।
लिखने वाले भरे पडे हैं फिर भी मैं क्यों लिखता हूँ?
प्यास है लेखक बन जाने की, लिप्सा है कवि कहलाने की।
किंचित स्थापित कवियों संग, अवसर मिल जाये गाने की।
धीरे धीरे नाम बढेगा, कवियों सा सम्मान मिलेगा।
पाठ्य पुस्तकों में रचना को, निश्चित ही स्थान मिलेगा।
हँसने वाले हँसा करें, पर बात यही दुहराऊँगा।
दिवा स्वप्न साकार हुआ तो, राष्ट्रकवि बन जाऊँगा।
सार्थक इसी भाव को करने, रोज नया मैं सिखता हूँ।
इसीलिये मैं लिखता हूँ।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
बहुत अच्छी रचना ।मजा आ गया। बधाई
mazedaar hai!
sahee bhi hai!
hum sabko intzaar hai,
sir main bhara communism hai
haathon main kiraana udhaar hai.
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