मेरा कैलेण्डर बता रहा है,
नया साल आने वाला है,
साथ जो अब तक निभा रहा था,
वह पीछे जाने वाला है,
चलो उठें हम, पुनः अंगड़ाई लेकर कुछ संकल्प करें,
ये करना है, वो करना है, कहें अधिक पर अल्प करें,
फिर वापस पटरी पर आएँ, गीत पुराने सुर में गाएँ,
आलस का बादल भी हम पर,
कुछ दिन में छाने वाला है,
मेरा कैलेण्डर बता रहा है,
नया साल आने वाला है,
पिछले वर्ष भी सूरज कितने अंधकार से छले गए,
बिस्मिल्लाह शहनाई मधुर सी संग में लेकर चले गए,
गौतम गए प्रभु से मिलने, श्याम श्याम के आंगन खिलने,
मायाजाल बिछाती दुनिया,
सचमुच में गड़बड़झाला है,
मेरा कैलेण्डर बता रहा है,
नया साल आने वाला है,
मेरी विनति है ईश्वर से शुद्ध प्रेम की धारा हो,
मिले प्रमोशन सबको जग में सबके घर उजियारा हो,
शांति पताका जग पर फहरे, पत्नी का बेलन ना लहरे,
चटख़ चटाख़ा फटक फटाका,
कविताएँ लाने वाला है,
मेरा कैलेण्डर बता रहा है,
नया साल आने वाला है,
महा लिख्खाड़
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नाप तोल
आओ भाई २००७
Dec 30, 2006प्रेषक: अभिनव @ 12/30/2006 1 प्रतिक्रियाएं
Labels: कविताएं
बस है पन्द्रह आठ सैंतालिस नम्बर की
Dec 29, 2006लुटी फिर बस है पन्द्रह आठ सैंतालिस नम्बर की,
फटी सीटें हैं कुछ गायब हुए हैं पेंच पहियों के,
मैं सुनता हूँ कि जीडीपी बढ़ा सनसेक्स उछला है,
हमारे घर के अन्दर हाल हैं बेहाल कइयों के,
कोई कहता है बीमारू कोई पिछड़ा बताता है,
भला सुधरेंगे दिन कैसे मेरे भारत में भइयों के,
वो सूखा पेड़ मुझसे कह रहा था एक दिन प्यारे,
कभी मेरी भी शाखों पर घरौंदे थे चिर्इयों के,
प्रेषक: अभिनव @ 12/29/2006 2 प्रतिक्रियाएं
Labels: गीतिका
इलेक्शन आ रहे हैं दोस्तों
Dec 28, 2006करो मत व्यर्थ जीवन का प्रबल आधार हो जाओ,
ना बन पाओ यदि तुम गुल, नुकीले ख़ार हो जाओ,
सुबह उठ कर नहाते हो औ पूजा पाठ करते हो,
अमाँ तुम आदमी अब हो गए बेकार हो जाओ,
चिलम को हाथ में लेकर लगाओ कश पे कश प्यारे,
चलो मूँदो ये आँखें डूब जाओ पार हो जाओ,
ज़रा पेटी कसो बंदूक की गोली भी चेक कर लो,
इलेक्शन आ रहे हैं दोस्तों, तैयार हो जाओ,
प्रेषक: अभिनव @ 12/28/2006 5 प्रतिक्रियाएं
Labels: गीतिका
कविता और पब्लिक ओपिनियन
Dec 22, 2006एक लम्बे समय तक चले,
घनघोर शीतयुद्ध के बाद,
जब घर पर पिताजी नें हमें,
नालायक शिरोमणी की उपाधि करते हुए,
हमारे कवि हो जाने का ऐलान किया,
तब हमें अपना भविष्य बिल्कुल क्लियर दिखाई दिया,
दूर दूर तक कुछ भी नहीं था,
और जो दिख रहा था वह बिल्कुल सही था,
खैर, युद्ध विराम कि स्तिथि के कारण,
एल ओ सी पर शांति व्यवस्था बहाल हो गई थी,
हम और पिताजी आपस के बैर भुला कर,
कभी कभार,
एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा लेते थे,
पिताजी मुस्कुराते हुए सोचते होंगे कि,
'बच्चू, अभी दो ही दिन में आटे दाल का भाव मालूम पड़ जाएगा,'
हम ये सोचते थे कि,
जब कविता करके आदमी प्रधानमंत्री बन सकता है,
नोबल पुरुस्कार की दौड़ में शामिल हो सकता है,
मंच पर बातें बना कर अच्छे अच्छों को धो सकता है,
तो अपना भी झंडा किसी ऊँची चोटी पर जाकर गड़ जाएगा,
लेकिन अपना भविष्य ऐसे कैसे दांव पर लगा दिया जाए,
कविता के बारे में पब्लिक ओपिनियन क्या है पता किया जाए,
पिताजी तो अपनी राय पहले ही दे चुके थे,
कविता मात्र अमीरों का सौंदर्य प्रसाधन है,
समय नष्ट करने का एक निकृष्ट साधन है,
तुम्हे आई आई टी में सेलेक्ट हुए अपने मामा से कुछ ज्ञान लेना चाहिए,
केवल पढ़ाई की ओर ध्यान देना चाहिए।
मां नें कहा,
बेटा, बचपन में हम लोग कवि सम्मेलन सुनने जाते थे,
अपनी डायरियों में भी कविताएँ नोट करके लाते थे,
कवि वही है जो ह्रदय से सच्चा हो,
वैसे तुम भी लिखते अच्छा हो,
पर अब कविता में कुछ बचा नहीं है,
नए लोगों को ये सब जंचा नहीं है,
छोटे भाई नें कहा,
अबे, मेरे आयल फ्री पापड़ पर चुपड़े हुए मक्खन,
मिट्टी के तेल के पीपे के अन्दर वाले ढक्कन,
तू बड़ा महान है, वीर हनुमान है,
हम जैसे लोगों का राबिनहुड है,
याद रख तेरा लक्ष्य बालीवुड है,
तू वहां पहुँच कर गीतकार बन जा,
फिर मेरे वहां पहुँचने की बात चला,
वैसे कविता में लेना चाहिए नए शब्दों का सहारा,
जैसे कठफोड़वा, फड़फड़ाहट, लक्कड़हारा,
इस मामले में पत्नी से हमारी अच्छी निभ जाती है,
उसे हमारी भाषा समझ ही नहीं आती है,
वो कुछ भी कहती है तो हम हाँ में सिर हिलाते हैं,
हम कुछ भी कहते हैं तो वो ना में सिर हिलाती है।
हम फिर घर के बाहर आए,
अन्य लोगों नें भी अपने विचार बताए,
एक नें कहा, कविता का अर्थ, भूख, गरीबी, कमज़ोरी, कड़की है,
दूसरा नें कहा कि, मेरे पड़ोस में रहने वाले डाक्टर साहब की लड़की है,
तीसरे नें कहा खूबसूरत नायिका है,
चौथा बोला, फिल्मों में गायिका है,
पाँचवा बोला, रिसर्च आब्जेक्ट है,
छठा बोला, एम ए का एक सब्जेक्ट है,
सातवां बोला, प्रश्न गहरा है,
आठवां बोला, हमसे मत पूछो, अपन तो जन्मजात बहरा है,
नवाँ बोला, कविता नदी पर बने सुंदर पुल सी है,
दसवाँ बोला, सूर, कबीर, मीरा, तुलसी है,
कोई बोला, कविता देवी माता के आगे जलती ज्योत है,
कोई बोला, हम क्या जानी क्या होत है,
कोई बोला, कविता चार लाईना सुना रिया हूँ है,
कोई बोला, पुराने ज़माने में ही हुआ करती थी रै,
जब यह सवाल हमनें किया मंचों पर धूम धड़ाके से चलने वाले एक कवि से,
जिसकी प्रसिद्धि की तुलना की जा सकती थी रवि से,
तो वह ज़रा देर तक तो रहा विचारों में खोया,
फिर उसने अपनी भावनाओं को ईमानदारी के शब्दों में पिरोया,
फिर बोला,
जब मैंने लिखना शुरू किया था,
तब कविता मानव मन का सम्मान थी,
सरस्वती माता का अनमोल वरदान थी,
पर जब से मंचों के बाज़ार में आया हूँ,
मेरी आत्मा में एक मलाल बो गई है,
कविता, दुकान पर बिकने वाला माल हो गई है,
इन सब महानुभावों की राय के बाद,
जब हमने अपने हृदय से पूछा,
कि कविता क्या होती है उस्ताद,
तो उसने उत्तर दिया कि,
कविता है बच्चे की किलकारी,
महके हुए फूलों की क्यारी,
चिड़ियों की चहचहाट,
शब्दों की तुतलाहट,
जहाँ कहीं भी भावना है, संवेदना है,
पीड़ा है, वेदना है,
प्रसन्नता है, उल्लास है,
जज़्बात हैं, एहसास है,
और जो वहाँ पर भी है,
जहाँ कुछ भी नहीं है,
कविता वही है।
प्रेषक: अभिनव @ 12/22/2006 7 प्रतिक्रियाएं
Labels: मेरी पसंद, हास्य कविता
मुट्टम मंत्र
Nov 16, 2006
मित्रों यह मंत्र यहाँ पढ़ भी सकते हैं।
प्रेषक: अभिनव @ 11/16/2006 3 प्रतिक्रियाएं
Labels: हास्य कविता
सामयिक कवि की कथा
पहले तो बात सुन के ज़रा डोलते हैं हम,
फिर एक एक करके पर्त खोलते हैं हम,
कुछ मूल जानने की लगाते हैं हम जुगत,
कुछ उसमें छुपे सत्य को टटोलते हैं हम,
जब लगता है ये बात सुनाने के योग्य है,
भाषा की चाशनी में भाव घोलते हैं हम,
कसते हैं कसौटी पे हृदय के कलाम को,
तब जाके चार शब्द कहीं बोलते हैं हम।
प्रेषक: अभिनव @ 11/16/2006 6 प्रतिक्रियाएं
Labels: गीतिका
कवि सम्मेलन - भाग - १
Oct 22, 2006बफलो "नियाग्रा फाल्स" में हुए कवि सम्मेलन के कुछ अंश
कविः अनूप भार्गव, राकेश खण्डेलवाल, समीर लाल, घनश्याम गुप्त, अभिनव शुक्ल एवं लक्ष्मीनारायण गुप्त
प्रेषक: अभिनव @ 10/22/2006 2 प्रतिक्रियाएं
मुशर्रफ नें लिखी किताब
Sep 30, 2006मुशर्रफ नें लिखी किताब, किताब पे कविता सुनो,
करना तो पड़ेगा हिसाब, हिसाब पे कविता सुनो,
हमनें भी दिए हैं जवाब, जवाब पे कविता सुनो,
कहते हैं करगिल से पहले भारत में चिंगारी थी,
पाकिस्तान पे हमला करने की पूरी तैयारी थी,
भारत नें तो युगों युगों से युद्ध किसी से नहीं किया,
युद्ध तो छोड़ो मार पीट का बदला तक भी नहीं लिया,
अपने भारत के पी एम जब प्यार की बस लेकर आए,
पीठ पे गहरे घाव उन्होंने धोखेबाज़ी के खाए,
युद्ध हुआ कितने बच्चे अपनी माओं से छूट गए,
जाने कितने दिल टूटे और कितने रिश्ते टूट गए,
तुमने ही समझौता कर के समझौतों को तोड़ दिया,
स्वयं बनाया तालिबान को फिर मरने को छोड़ दिया,
जाने कितनी बार खुद ही अपनी वाणी से पलटे हो,
इससे ये साबित होता है गलत राह पर चलते हो,
आज यही आवाज़ गूंजती है इस कवि के अन्तर से,
तुम्हें कुटिलता संस्कार में मिली है अपने ऊपर से,
ऊपर भी सब थे खराब, खराब पे कविता सुनो,
मुशर्रफ नें लिखी किताब, किताब पे कविता सुनो,
करना तो पड़ेगा हिसाब, हिसाब पे कविता सुनो,
हमनें भी दिए हैं जवाब, जवाब पे कविता सुनो,
लिखते हैं परमाणु सीखा है भारत नें पाक से,
संघ सोवियत के टुकड़े सब निकले उनकी नाक से,
लिखते हैं कि पाकिस्तानी सेना उनके साथ,
काशमीर की गड़बड़ में बस भारत का ही हाथ है,
बिना बात के यूँ हीं मासूमों की बलि चढ़ाते हो,
करगिल की चोटी पर अपनी कब्र खोदने जाते हो,
अपने सैनिक की लाशों को लावारिस बतलाते हो,
कैसे जनरल हो जो अपनी थूक चाटते जाते हो,
वैसे तो तुम खुद को बुश का मित्र महान बताते हो,
ओसामा की थाली में अमरीकन रोटी खाते हो,
अपने देश के वैज्ञानिक को तुमने जी भर कोसा है,
तुमने खुद बेचा है बम को सबको यही भरोसा है,
सच बतलाऊँ मुझे तुम्हारी पुस्तक कैसी लगती है,
हैरी पाटर की गाथा पर दस्तक जैसी लगती है,
पृष्ठ पृष्ठ पर तुमने अपने मन से गाथा डाली है,
पुस्तक लिखने के पीछे भी कोई मंशा काली है,
काली मंशा आखिर कब परदे के पीछे रहती है,
मैं भी बस वो कहता हूं जो सारी दुनिया कहती है,
झूठ बोलते हैं जनाब, जनाब पे कविता सुनो,
मुशर्रफ नें लिखी किताब, किताब पे कविता सुनो,
करना तो पड़ेगा हिसाब, हिसाब पे कविता सुनो,
हमनें भी दिए हैं जवाब, जवाब पे कविता सुनो,
प्रेषक: अभिनव @ 9/30/2006 5 प्रतिक्रियाएं
Labels: कविताएं
अकेले रहते हैं हम लोग
Sep 21, 2006अकेले रहते हैं हम लोग,
साथ में लगा लिए हैं रोग,
फंस गए हैं जंजालों में,
रह पाएंगे आखिर कैसे हम घरवालों में,
कि बिछुड़े पंछी हैं।
आज हैं अपने घर से दूर,
भले कितने भी हों मश्हूर,
हो दौलत भले ज़माने की,
हैं खुशियां सिर्फ दिखाने की,
याद जब मां की आती है,
रात कुछ कह कर जाती है,
ह्रदय में खालीपन सा है,
लौट चलने का मन सा है,
मगर हैं घिरे सवालों में,
रह पाएंगे आखिर कैसे हम घरवालों में।
वहां पर लाइट जाती है,
काम वाली सिर खाती है,
गर्मी में बच्चे रोते हैं
वहां पर दंगे होते हैं,
वो ट्रैफिक कितना गन्दा है,
हर तरफ गोरख धन्धा है,
वहां सड़कों में नाली है,
वहां बातों में गाली है,
वहां गांधी हैं खादी है,
वहां कितनी आबादी है,
सभी दौलत के भूखे हैं,
लोग सब कितने रूखे हैं,
यहां मुस्काते मिलते हैं,
फूल सब सुंदर खिलते हैं,
यहां दिन रात सुहाने हैं,
और भी लाख बहाने हैं,
मन में पलते घोटालों में,
रह पाएंगे आखिर कैसे हम घरवालों में।
हमारे दिल का सपना है,
देश जैसा है अपना है,
भले तूफान हैं आंधी हैं,
बच्चों के दादा दादी हैं,
जहाँ परियों की कहानी है,
जहाँ गंगा का पानी है,
जहाँ केसर है घाटी में,
जहाँ खुशबू है माटी में,
जहाँ कोयल की कुहकू है,
आम का मीठा सा फल है,
जहाँ मन्दिर का पीपल है,
जहाँ मौसम में जादू है,
जहाँ रोटी है फूली सी,
जहाँ गलियां हैं भूली सी,
जहाँ पर रेल का फाटक है,
जहाँ खुशियाँ हैं नाटक है,
मोहब्बत का सावन सा है,
जहाँ पर अपनापन सा है,
मन से आवाज़ ये आती है,
चलो अब चलें कमालों में,
रहना सीख ही जाएँगे अपने घरवालों में।
अभिनव
प्रेषक: अभिनव @ 9/21/2006 7 प्रतिक्रियाएं
Labels: कविताएं
प्रेम नहीं वहशी दरिंदों के लिए
Jul 13, 2006बात प्रेम वाली सभी को सुहाती है,
किंतु जब रक्त वाली आँधी आती है,
तब उसी प्रेम की सुरक्षा के लिए,
रणचण्डी दुर्गा भवानी आती है,
प्रेम तो है उड़ते परिंदों के लिए,
प्रेम नहीं वहशी दरिंदों के लिए,
गोलियों से देना उन्हें भून चाहिए,
हमको आतंकियों का खून चाहिए,
शत्रुओं को ढूँढ पाना खेल नहीं है,
उनकी कुटिलता का मेल नहीं है,
चेहरे पर चेहरा लगाए हुए हैं,
देश की रगों में जो समाए हुए हैं,
उनके सफल उपचार के लिए,
असुरों के पूर्ण संहार के लिए,
आग बरसाता मानसून चाहिए,
हमको आतंकियों का खून चाहिए,
शाम को चले थे घर जाने के लिए,
मुन्ना मुन्नी गोद में खिलाने के लिए,
वो सदा के लिए आग में ही खो गए,
सुनने सुनाने की कहानी हो गए,
उनके परिजनों का ध्यान कीजिए,
मत सिर्फ झूठे अनुदान दीजिए,
आत्मा को थोड़ा सा सुकून चाहिए,
हमको आतंकियों का खून चाहिए।
रुपए ना मान ना सम्मान चाहिए,
हमको खु़दा ना भगवान चाहिए,
हल्दी ना तेल ना ही नून चाहिए,
हमको आतंकियों का खून चाहिए।
प्रेषक: अभिनव @ 7/13/2006 5 प्रतिक्रियाएं
Labels: कविताएं
हमको आतंकियों का खून चाहिए
रुपए ना मान ना सम्मान चाहिए,
हमको खु़दा ना भगवान चाहिए,
हल्दी ना तेल ना ही नून चाहिए,
हमको आतंकियों का खून चाहिए,
बार बार वार पर वार हुए हैं,
भयावाह तीज त्योहार हुए हैं,
मासूमों की चीखों से पटे हैं रास्ते,
आरती अजान हाहाकार हुए हैं,
टूटते समाज को बचाने के लिए,
दुष्टों को सबक सिखाने के लिए,
भाषणों का नहीं मजमून चाहिए,
हमको आतंकियों का खून चाहिए,
मुँह ढँक चुपचाप सोते रहे हैं,
झूठमूठ के विवाद ढोते रहे हैं,
आज भी यदि ना प्रतिकार करेंगे,
कल आप इसका शिकार बनेंगे,
शान्ति का व्रत तोड़ने के वास्ते,
भेड़ियों पे सिंह छोड़ने के वास्ते,
नई देशभक्ति का जुनून चाहिए,
हमको आतंकियों का खून चाहिए।
प्रेषक: अभिनव @ 7/13/2006 6 प्रतिक्रियाएं
Labels: कविताएं
ऐसे में, आप क्या कहते
Jun 13, 2006गांधीजी के अंतिम शब्दों पर हुए विवाद के चलते कुछ भाव मन में आए थे तथा प्रतिक्रिया स्वरूप इस तुकबंदी का सृजन हुआ। आशा है कि आपके विचार इस रचाना पर प्राप्त होंगे तथा कुछ अन्य प्रसंग भी इससे जुड़ेंगे।
बड़े बड़े सब लोग जो भारत आते हैं,
सबसे पहले राजघाट पर जाते हैं,
विश्व पुरुष के आशीषों से तरते हैं,
पुष्प चढ़ाते और नमन वे करते हैं,
शब्द अंत के जनमानस पर अंकित हैं,
राजघाट के शिला लेख पर टंकित हैं,
राम राम, हे राम राम, हे राम राम,
गांधीजी के अंतिम शब्दों को प्रणाम्,
पर सोचो यदि कुछ ऐसा हो जाता जो,
और कोई ही शब्द जो बाहर आता तो,
वही शिला का लेख बना बैठा होता,
अपने भाग्य की रेखा पर ऐंठा होता,
हमने सोचा चलो 'ओपिनियन पोल' करें,
नए विचारों की मदिरा का घोल करें,
"शब्द भला क्या श्रीमुख से बाहर होते,
गांधीजी जी की जगह आप नाहर होते?"
प्रश्न किया हमनें आलोकित जन जन से,
उत्तर सबने दिया बड़े अपनेपन से,
उत्तर विविध विविध भांति के प्राप्त हुए,
कहने को कुछ नहीं है भाव समाप्त हुए,
कोई बोला यदि उस जगह मैं होता,
सबसे पहले मम्मी मम्मी कर रोता,
सच्ची सच्ची बात बताएँ तो भइया,
अपने मुख से बाहर आता हाय दइया,
गांधीजी की सिचुएशन के जैसे में,
ऊप्पस निकलता मेरे मुख से ऐसे में,
अपने साथ यदि कुछ ऐसा हो जाता,
मुख से उड़ कर उड़िबाबा बाहर आता,
कोई बोला मैं कहता कि मार डाला,
किसी नें कहा मैं कहता अरे साला,
जितने मुख उतनी बातों का घोटाला,
दुनिया सचमुच में है इक गड़बड़झाला,
गांधी जी की मृत्यु के इतने वर्ष बाद,
उनके अंतिम शब्दों पर छिड़ता विवाद,
और बहुत से शब्द उन्होंने बोले थे,
राज़ सत्य और मानवता के खोले थे,
हरिजन और अहिंसा को पहचानो रे,
गांधीजी के आदर्शों को जानो रे,
पहले के शब्दों का समझो सार सार,
फिर जाना अंतिम शब्दों के आर पार,
मत केवल परपंचों का अभियान करो,
हैं विवाद कुछ सच्चे उनका ध्यान करो।
यदि आप गांधीजी की जगह होते तो क्या होते आपके आखिरी शब्द?
प्रेषक: अभिनव @ 6/13/2006 5 प्रतिक्रियाएं
Labels: कविताएं
दिनकर जी के काव्य 'रश्मि-रथी' के कुछ अंश
May 24, 2006मैंने दिनकर जी को खूब जी भर के पढ़ा है तथा 'रश्मि-रथी' मुझे सबसे अधिक प्रिय है। 'रश्मि-रथी' पढ़ते हुए कई बार मेरी आँखों के आगे महाभारत के दृश्य उभरे हैं। कई स्थानों पर ऐसा भी महसूस होता है जैसे हम आज भी उसी युग में जी रहे हों।
हिन्दी भाषा का प्रवाह अद्भुत है, बोलो ते ऐसा लगता है मानो कोई नदी सी बहती चली जा रही हो और सुनो तो ऐसा लगता है मानो किसी मंदिर के सामने से गुज़र रहे हों। दिनकर जी की यह रचना पढ़कर अपनी भाषा के माधुर्य का सुंदर बोध होता है।
यदि आपको इन पंक्तियों का संपूर्ण आनंद लेना है तो इन्हें बोल बोल कर पढ़ने का प्रयास कीजिएगा।
जय हो जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।
ऊँच नीच का भेद ना माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसकी पलना हुई धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण नें आप स्वयं सुविकास।
अलग नगर के कोलाहल से अलग पुरी-पुरजन से,
कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से।
निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,
वन्य कुसुम-सा खिला कर्ण जग की आँखों से दूर।
नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुन्ज कानन में।
समझे कौन रहस्य? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल।
जलद पटल में छिपा किंतु रवि कब तक रह सकता है?
युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है?
पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग,
फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पहली आग।
रंग भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे,
बढ़ा भीड़ भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे,
कहता हुआ - तालियों से क्या रहा गर्व में फूल?
अर्जुन, तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल।
तूने जो जो किया उसे मैं भी दिखला सकता हूँ,
चाहे तो कुछ नई कलाएँ भी सिखला सकता हूँ।
आँख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार,
फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।
इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की,
सभा स्तब्ध रह गई, गई रह आँख टँगी जन जन की,
मंत्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक जन का पारावार,
गूँज रही थी मात्र कर्ण के धन्वा की टंकार।
फिरा कर्ण त्यों 'साधु-साधु' कह उठे सकल नर नारी,
राजवंश के नेताओं पर पड़ी विपद अति भारी।
द्रोण, भीष्म, अर्जुन सब फीके, सब हो रहे उदास,
एक सुयोधन बढ़ा, बोलता हुआ - 'वीर, शाबाश।'
द्वन्द युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा,
अर्जुन को चुप ही रहने का गुरु नें किया इशारा।
कृपाचार्य नें कहा - "सुनो हे वीर युवक अन्जान,
भरत-वंश-अवतंस पाण्डु की अर्जुन है सन्तान।"
"क्षत्रिय है, राजपुरुष है, यों ही नहीं लड़ेगा,
जिस तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा।
अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,
नाम धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन?"
जाति, हाय री जाति, कर्ण का ह्रदय क्षोभ से डोला,
कपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला।
"जाति जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखंड,
मैं क्या जानूँ जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदण्ड।"
"ऊपर सिर पर कनक छत्र, भीतर काले के काले,
शरमाते हैं नहीं जगत में जाति पूछने वाले।
सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन,
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।"
"मस्तक ऊँचा किए, जाति का नाम लिए चलते हो,
मगर, असल में, शोषण के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर थर कांपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।"
"पूछो मेरी जाति शक्ति हो तो मेरे भुजबल से,
रवि समान दीपित ललाट से और कवच कुण्डल से।
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज प्रकाश,
मेरे रोम रोम में अंकित है मेरा इतिहास।"
"अर्जुन बड़ा वीर क्षत्रिय है तो वह आगे आवे,
क्षत्रियत्व का तेज़ ज़रा मेझको भी तो दिखलावे,
अभी छीन इस राज पुत्र के कर से तीर कमान,
अपनी महाजाति की दूँगा मैं तुमको पहचान।"
कृपाचार्य नें कहा - "वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,
साधारण सी बात उसे भी समझ नहीं पाते हो।
राज पुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,
अर्जित करना तुम्हें चाहिए पहले कोई राज।"
कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन ही मन कुछ भरमाया,
सह ना सका अन्याय, सुयोधन बढ़कर आगे आया।
बोला - "बड़ा पाप है करना इस प्रकार अपमान,
उस नर का, जो दीप रहा हो, सचमुच, सूर्य समान।"
"मूल जानना बड़ा कठिन है, नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का।
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
जाति जाति का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।"
"किसने देखा नहीं कर्ण जब निकल भीड़ से आया,
अनायास आतंक एक संपूर्ण सभा पर छाया।
कर्ण भले ही सूत पुत्र हो, अथवा श्वपच चमार,
मलिन, मगर, इसके आगे हैं सारे राजकुमार।"
"करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का,
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का।
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।"
"अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ,
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करत हूँ।"
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
गूँजा रंग भूमि में दुर्योधन का जय-जयकार।
प्रेषक: अभिनव @ 5/24/2006 5 प्रतिक्रियाएं
प्यारे
May 14, 2006कोई दरवाज़े पे देता नहीं दस्तक प्यारे,
अब कहाँ पाते हैं दिल खोल के हँस तक प्यारे,
ऐसा ईनाम मिला है ईमानदारी का,
एक कर्फ्यू है संभाले मेरा मस्तक प्यारे,
जब से आए हैं सफर इंतज़ार करता है,
कोई भी छोड़ने आएगा ना बस तक प्यारे,
कैसे बतलाएँ तुम्हें एक तुम्हारे जाने से,
मेरे भीतर कोई धरती गई धंस तक प्यारे,
पहले ये खून खौलता था कुछ सवालों पर,
अब फड़कती ही नहीं एक भी नस तक प्यारे।
प्रेषक: अभिनव @ 5/14/2006 4 प्रतिक्रियाएं
Labels: गीतिका
अनुगूँज १९ - "संस्कृतियाँ दो और आदमी एक"
May 1, 2006
पहले व्यक्ति जहां पैदा होता था, उसकी अनेक सन्ततियां भी वहीं डेरा जमाती थीं। लोग बाहर ना जा सकें इसके लिए समुद्र यात्रा पर जात बिरादरी से बाहर इत्यादि नियम भी बनाए गए थे। सुनते हैं कि अपने गांधीजी पर यह नियम लागू भी किया गया था। अभी भी ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी चारदीवारी से बाहर आने में कतराते हैं। परंतु प्रगति का एक अंश है गति, और गति हमें एक स्थान से दूसरे तक की दूरी तय करवाती है। यह भी सत्य है कि लोगों की बोलचाल, खानपान, चलना फिरना, नियम कानून और भी अनेक इस प्रकार की चीज़ें उसकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार बदलती रहती हैं। ऐसे में एक से अधिक संस्कृतियों में स्वयं को सहज कर पाने में किन विशेष योग्यताओं की आवश्यकता होती है। या फिर यूँ कह लें वो कौन सी समस्याएं हैं, अच्छाइयां हैं और कौन सी बुराइयाँ हैं जो व्यक्ति दो विरोधाभासी संस्कृतियों के संपर्क में ग्रहण करता है। कुछ ऐसा अनुरोध जब मैंने ब्लागजगत के सभी सुधीजनों से किया तब मुझे संजयजी, प्रतीकजी, पंकजजी और तरुणजी नें अनुगूँज का आयोजन करने के लिए प्रोत्साहित किया।
जैसा कि सर्व विदित है, संसार में भारतवासी किसी भी विषय पर कितनी भी देर तक कुछ भी बोल सकते हैं। जब हमारे आस पास बतियाने के लिए कोई नहीं होता तो हमारे मोबाइल फोन हमारे कानों से चिपक जाते हैं। हमको लगा कि अनुगूँज के लिए जो प्रथम प्रविष्टि हमको लिखनी है वह तो झटपट तैयार हो जाएगी। पर विचारों की कड़ियों को बाँध कर तथा एक समझदार साहित्यिक पर्सनाल्टी की तरह चिंतन कर के लिखना बड़ा ही कठिन काम बनकर सामने आया। पहले तो बड़े उपदेशात्मक तरीके से भारतीय संस्कृति की जय तथा अन्य की पराजय लिखने का प्रयास किया, इधर उधर से कुछ टीप टाप कर छापने की कोशिश की पर फिर भी मन में कुछ अटपटा सा लगता रहा, अन्तर्आत्मा से आवाज़ आती रही,
सच को झूठ और झूठ को सच बनाते हैं,
घिर के वादों में किताबों में पाए जाते हैं,
दिल की बातें तो छुपाए रखते हैं अपने दिल में,
बड़े ज्ञानी हैं ज़माने को ये जताते हैं,
हम ग्रेट हैं,
हिप्पोक्रेट हैं।
अतः फिर जो मन में आया उसे बहने दिया निर्बाध रूप से।
वो लोग जो आज से लगभग बीस पच्चीस वर्ष पहले भारत छोड़ विदेश में आ बसे थे उनमें से अनेक के मन में भारत आज भी बसता है। पिछले वर्ष हमको भी आदरणीय सोम ठाकुर जी एवं उदय प्रताप सिंह जी के संग कवि सम्मेलनों में कविता सुनाने के लिए बैंगलोर से अमेरिका बुलाया गया था। इस दौरान मुझे आमेरिका के चौदह नगरों में भ्रमण करने का आवसर प्राप्त हुआ। यहाँ मैंने अनेक आवसरों पर यह अनुभव किया कि इन लोगों में देश के प्रति एक ज़िम्मेदारी का भाव है, अपनी संस्कृति के प्रति एक अटूट लगाव है जिसे संभवतः शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। ऐसे ही कुछ लोगों के विषय में आपको बतलाने का प्रयास करता हूँ।
१. राले में रहने वाले पण्डित गंगाधर शर्मा एवं उनकी पत्नी भारतीयता के प्रचार प्रसार को नई ऊँचाइयाँ प्रदान कर रहे हैं। पण्डित जी बताते हैं कि आज से अनेक वर्ष पहले जब वे यहाँ आए थे तो स्तिथियाँ कैसी विषम थीं। निरामिष (शाकाहारी) भोजन मिलना दुष्कर था, भारत के विषय में अनेक भ्रांतियाँ प्रसिद्ध थीं और भी अनेक समस्याएँ थीं। एक मुख्य समस्या यह भी थी कि कोई ऐसा स्थान नहीं था जहाँ सभी लोग मिल सकें, शादी ब्याह आदि के लिए भवन नहीं मिलते थे। उन्होंने धीरे धीरे लोगों को जोड़ना प्रारंभ किया तथा आज राले में एक भव्य भवन तथा एक सौम्य मंदिर का निर्माण संपन्न हो चुका है। आप इनका जालघर यहाँ देख सकते हैं। राले में ही डा सुधा ढ़ीगरा हिन्दी साहित्यिक गतिविधियों में बढ़ चढ़ कर भाग लेती हैं। प्रवासी मन की सच्ची कहानी सुनाता सुधा जी का एलबम 'माँ ने कहा था' खासा लोकप्रिय हुआ है।
२. डा लक्षमण ठाकुर कनेक्टिकट विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। इनके गाँव की अनेक लड़कियाँ पास में कोई स्कूल ना होने के कारण पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर हो जाती थीं। इन्होंने अपने पैतृक गाँव तिवारीपुर, जिला फतेहपुर में "रामप्यारी काशीप्रशाद कन्या इंण्टर कालेज" खोला जो कि पिछले अनेक वर्षों से अनवरत चल रहा है। आस पास के अनेक गावों के बच्चे अब वहाँ पढ़ने आते हैं। ठाकुर साहब पिछले अनेक वर्षों से अमेरिका में हैं पर यदि उनसे बात करो तो ऐसा लगता है मानो अपनी माटी की गंध लिए कोई पवन का झोंका पास से गुज़र गया हो।
३. श्री पंकज कुमार डालास में रहते हैं तथा साफ्टवेयर का बिज़नेस करते हैं। उन्होंनें भारतवासियों के चरित्र निर्माण को अपने जीवन का ध्येय बना रखा है। पंकज कुमार जी से मिलकर ऐसा अनुभव हुआ मानो भारत के प्रति हमारी जागरुकता को नई परिभाषा प्रप्त हो गई हो। वे इतनी दूर बैठे हैं पर उन्हे सरकार की योजनाओं से लेकर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की अद्भुत समझ है। वैदिक संस्कृति के प्रति अटूट आस्था रखने वाले श्री पंकज कुमार नें सभी पुराणों को श्रव्य रूप में परिवर्तित किया है तथा वेदपुराण डाट काम नामक जालघर की रचना की है। आप सभी पुराणों को इस जालघर पर हिन्दी में सुन सकते हैं। डालस में ही पंकज जी के मित्र तथा अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति को पूर्व अध्यक्ष डा नन्दलाल सिंह भी सांस्कृतिक चेतना के विकास कार्य में अनवरत रूप से लगे हैं।
४. डेटन में रहने वाले डा रकेश गुप्ता ह्रदय रोग विशेषज्ञ हैं। वे आगरा में ह्रदय रोग का एक अस्पताल खोलना चाहते हैं। अपने इस स्वप्न को साकार करने हेतु उन्होंने अपने कुछ मित्रों के संग मिल कर वहाँ ज़मीन भी खरीदी थी। प्रापर्टी डीलर (स्थानीय एम एल ए का भतीजा) की धोखाधड़ी, ए डी एम की डबल रिश्वत, राजनैतिक उथल पुथल की मार और पंजीकरण की बेबुनियाद उठा पटक के बाद अंततः दो वर्ष पश्चात इन्हें ज़मीन का आवंटन हुआ। इतना सब होने के बाद भी जब कुछ अन्य अनुमति संबंधित समस्याएँ आगे आईं तो वे चीफ सेक्रेटरी समेत अनेक महत्वपूर्ण लोगों से व्यक्तिगत रूप से मिले। वहाँ इन्हें यह सलाह दी गई कि आप अस्पताल क्यों खोलना चाहते हैं मेडिकल स्कूल खोलिए तथा छात्रों से भारी डोनेशन वसूल कीजिए। उनका यह स्वप्न अभी अधूरा है पर उन्हें इस बात का संतोष अवश्य है कि उन्होंने अमेरिका से आगरा मेडिकल कालेज के लिए डायालिसिस मशीने भेजी हैं।पहली बार ये मशीनें उन्होंने अपनी धर्म पत्नी मंजू के साथ मिलकर अपने गैराज में स्वयं पैक करीं परंतु फिर भी आई सी एम आर (इन्डियन काउन्सिल आफ मेडिकल रिसर्च) से स्वीकृति ना मिलने के कारण ये विद्यार्थियों की प्रयोगशाला के बजाय महीनों उनके गैराज में ही पड़ी रहीं। इन मशीनों को भारत तक पहुंचनें में वर्षों का समय तथा तात्कालिक प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के एक परिजन के सहयोग का सहारा लेना पड़ा। दूसरी बार उन्होंने हमारे सरकारी तंत्र को अलविदा कहते हुए स्वयं अपने खर्च पर मशीनें भारत भेजीं जो कि समय पर पहुँच गईं। लाल फीताशाही की जय। डा साहब अपने मरीज़ों के अतिरिक्त साहित्य में भी रुचि रखते हैं तथा समय समय पर होने वाले भारतीय समाज के कार्यक्रमों में बढ़ चढ़ कर भाग लेते हैं।
५. शिकागो में रहने वाले डा सुभाष पाण्डे विश्व प्रसिद्ध न्यूरोलोजिस्ट हैं। उन्होंने अनुसंधान करके एक खोज की है जिसके अनुसार मानव के मदिरा के प्रति आसक्त होने के जीवाणुओं को जेनेटिक्स की सहायता से समझा जा सकता है। अभी इस विषय में उनका शोध जारी है तथा आने वाले समय में इसके और गहन होने की संभावना है। इस अनुसंधान के समाचार आप यहाँ क्लिक कर के देख सकते हैं। अपने कार्यों में अत्यधिक व्यस्त रहने के बावजूद वे साहित्यिक गतिविधियों का आयोजन करते रहते हैं। पिछले चार वर्षों से वे नियमित रूप से राम नवमी के अवसर पर शिकागो में अपने घर पर अखण्ड रामायण का पाठ करते हैं। लगभग चौबिस घंटे चलने वाले इस आयोजन में अनेक भारतीय परिवार सम्मलित होते हैं। हाल ही में उनके सद्प्रयासों के चलते शिकागो में एक भव्य रामायण मेले का आयोजन किया गया जिसमें नौ देशों के प्रतिभागियों नें हिस्सा लिया। उनसे प्रभावित होकर अन्य भारतीय जन भी इस प्रकार के आयोजनों से जुड़ रहे हैं तथा संस्कृति के अनेक पहलुओं से परिचित भी हो रहे हैं।
६. सिएटल के श्री राज झंवर नव युग के ऋषि हैं, गुरुकुल चलाते हैं जहाँ भारतीयों के सैकड़ों बच्चों के संग अनेक विशुद्ध अमेरिकन्स भी हिन्दी पढ़ने तथा भारत के विषय में सीखने आते हैं। उनकी सहधर्मिणी श्रीमती कविता झंवर गुरुकुल में पढ़ाने के साथ साथ व्यवस्था प्रबंधन संबंधी अनेक कार्यों में सक्रीय रूप से कार्यरत हैं। गुरुकुल को नियमित रूप से चलाने के लिए राज जी को अनेक स्थानीय भारतीयों का सहयोग भी प्राप्त हो रहा है। लोग गुरुकुल में स्वेच्छा से पढ़ाते हैं। बच्चों को भारतीय संस्कृति से परिचित करवाने हेतु कई सांस्कृतिक कर्यक्रमों का आयोजन भी गुरुकुल में होता है। गुरुकुल में एक पुस्तकालय भी है जिसमें बच्चों की सैकड़ों भारतीय पुस्तकें, अमर चित्र कथा आदि उपलब्ध हैं। आप गुरुकुल के जालघर को यहाँ देख सकते हैं। गुरुकुल के ही एक शिक्षक श्री अगस्तय कोहली सिएटल में हिन्दी नाटकों का आयोजन एवं निर्देशन करते हैं।
७. वाशिंगटन डी सी में रहने वाले श्री राकेश खण्डेलवाल गीतों में सोचते हैं। विश्वजाल पर भ्रमण करने वाले तथा कविताओं में रुचि रखने वाले हिन्दी जगत के निवासी उनके गीतों के माधुर्य से भली भांति परिचित हैं। हमको न्यूयार्क से वाशिंगटन जाना था। अमेरिका में यदि आपको कार से कहीं जाना होता है तो यात्रा का प्रथम नियम सामान्यतः यह होता है कि आप सड़कों पर अपनी यात्रा का मानचित्र निकालते हैं तथा फिर उसके अनुसार आगे बढ़ते हैं। यात्रा यदि लम्बी हो तो मानचित्र की महत्ता और बढ़ जाती है। यहाँ विशेष बात यह हुई कि राकेशजी नें अपने घर तक पहुँचने का मार्ग एक गीत के माध्यम से ई-मेल द्वारा बतलाया। हम सोच रहे थे कि हमारे सारथी अनूपजी इसके बावजूद 'याहू मैप्स' अथवा 'मैप क्वैस्ट' जालघरों का सहयोग लेंगे। परंतु हम मात्र यह गीत गुनगुनाते चार पाँच घण्टे की यात्रा पूरी कर वाशिंगटन पहुँच गए।
आप भी वह गीत पढ़िए।
साथ आपके सोम अगर हो, भला दिशा की क्या आवश्यकता,
उदय सूर्य जब अभिनव हो तो, कोई भी पथ पर चल दीजे,
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम सभी दिशा मिश्रित हो लेंगी,
जिधर चल पड़े गाड़ी प्रियवर, उसी तरफ़ को चलने दीजे,
वैसे टर्नपाईक पर दक्षिण दिशा आपको चलना होगा,
डैलावेयर और बाल्टीमोर पार फिर करना होगा,
कैलवर्टन का एक्जिट नंबर ट्वन्टी नाईन फिर ले लेना,
तीजा सिग्नल चैरी हिल का, उस पर आकर दायें मुड़ना,
पार कीजिये ट्वेन्टी नाईन यूएस का पुल, आगे बढ़ लें,
तीजा सिग्नल न्यू हैम्पशायर उससे भी आगे बढ़ लेना,
उसके बाद तीसरा सिग्नल, लेक टिवोली बुलेवार्ड का,
उसी मार्ग पर आकर प्रियवर, अपने दायें को मुड़ लेना,
पहला मोड़ बाँये को जो है,नाम वही विलकाक्स लेन है,
उस पर नंबर सत्रह तेरह,मेरी छोटी सी कुटिया का,
वहीं आप आ जायें, दुपहरी भर विश्रम करें भोजन कर,
संध्या को फ़हरानी होगी फिर भाषा की हमें पताका।
कविता का यह व्यवहारिक प्रयोग देख कर सोम जी बहुत प्रसन्न हुए तथा उन्होंने राकेश जी को अनेक आशीर्वाद दिए। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि राकेश जी पिछले काफी समय से अमेरिका में हैं तथा दफ्तर में ठेठ अंग्रेज़ी में बात करते हैं। संस्कृतियाँ दो हैं पर भावनाएँ तो एक ही हैं।
८. न्यू जर्सी के श्री अनूप भार्गव बड़े हिन्दीमय व्यक्तित्व हैं, सुबह उठ कर तुलसी का भजन गाते हैं, दोपहर में नए कवियों का हौसला बढ़ाते हैं और शाम होते होते गुलज़ार हो जाते हैं। उनकी जीवन संगिनी श्रीमती रजनी भार्गव कुशल गृह संचालन के संग बच्चों को हिन्दी पढ़ाती हैं। चिट्ठा जगत के अधिकतर लोग अनूपजी की रचनाओं तथा उनके संचालन में चल रहे याहू ग्रुप ई कविता से परिचित हैं। अनूप जी की इच्छा है कि मुशायरा डाट और्ग की तर्ज पर ही एक हिन्दी कवियों की साईट बनाई जाए, इसके लिए उन्होंने हिन्दीकविता डाट और्ग नाम का डोमेन बुक कर रखा है तथा अभी कच्चा माल जुटा रहे हैं। यदि आपके पास पुराने कवि सम्मेलनों की रिकार्डिंगस हैं तो आप भी इस यज्ञ में अपनी आहुति डाल सकते हैं (अनूप जी को anoop_bhargava at yahoo.com पर मेल कर सकते हैं।)।
९. नैशविल के श्री रवि प्रकाश सिंह हिन्दी के प्रचार प्रसार में अपने दिवंगत पिता श्री कुँवर चन्द्र प्रकाश सिंह की पुनरावृत्ति सी करते प्रतीत होते हैं। रवि प्रकाश जी नें अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति के विषय में अनेक बातें बताईं। आप अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति के जालघर पर यहाँ क्लिक कर के पँहुच सकते हैं।
१०. राकफोर्ड में रहने वाले डा अनुराग मिश्रा के बच्चे जिस प्रवाह से हिन्दी में बात करते हैं वह देखते ही बनता है। जब हमनें डा साहब से पूछा कि यहाँ पले बढ़े आपके बच्चे इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल लेते हैं तो वे बोले कि बच्चे वहीं ग्रहण करते हैं जो माता पिता उन्हें देना चाहते हैं। शायद यह बात भाषा के अतिरिक्त अन्य अनेक तथ्यों पर भी खरी उतरती है।
११. कोलम्बिया विश्व विद्यालय में हिन्दी पढ़ाने वाली श्रीमती अंजना संधीर नें हिन्दी फिल्मी गीतों को माध्यम बनाकर हिन्दी सीखने की एक अनोखी विधि खोज निकाली है जो कि बड़ी प्रसिद्ध हुई है।
यह सूची अभी और आगे बढ़ सकती है, परंतु जो बात मैं कहना चाह रहा हूँ वह यह है कि मानव कहीं भी रहे यदि वह चाहे तो अपनी ज़मीन से जुड़ा रह सकता है। संस्कृतियाँ चाहे कितनी भी क्यों ना हों पर मानव स्वभाव के मूल में जो अच्छाई है वह हर जगह किसी ना किसी रूप में उजागर हो ही जाती है। 'संस्कृतियाँ दो और आदमी एक' विषय शायद अभी और चिंतन चाहता है। कई घरों के बच्चे जो अपने रिश्तेदारों से मात्र इस वजह से कट गए हैं क्योंकि वो अपनी भाषा नहीं जानते हैं। अभी उनका समाधान नहीं हुआ है। एक ओर जहाँ ऐसे उदाहरण हैं कि लोग अनेक वर्षों बाद भी अपनी भाषा और संस्कृति से जुड़े हुए हैं, तो वहीं दूसरी ओर ऐसे साक्ष्य भी हैं जहाँ लोग स्वयं को भारत के साथ संबद्ध करने में हीनता का अनुभव करते हैं। वैसे भी यह धर्म और जातियों की नौटंकी कम नहीं है इसके ऊपर बंगाली, पंजाबी, गुजराती, मराठी और मद्रासी जैसी क्षेत्रवाद की छीछालेदर कुल मिला कर हमारी सामूहिक संगठनात्मकता को एक दहाई कर देती है। खैर, प्रश्न यह है कि जिन लोगों नें भारत को देखा है तथा जो लोग अभी तक वहाँ से प्रवाहित होने वाली विशेष तरंगों से स्वयं को विलग नहीं कर पाए हैं क्या उनकी सन्तति इन पूर्णतया भावनात्मक एवं सांस्कृतिक संबंधों का निर्वाह कर पाएगी।
मेरी दादी माँ नें अपने बच्चों को समझाया था,
भाषा, भेष, भजन और भोजन अपना हो तो अच्छा है,
महक नहीं निकली है अब तक मेरे घर से खुशबू की,
उनका आना लौट के जाना सपना हो तो अच्छा है,
सुनते हैं कि आने वाला समय भारत का होने वाला है तथा पुरातन काल में भारत ही संसार का अग्रणी राष्ट्र था, विश्व गुरू था। यदि ऐसा है तो हमारी संस्कृति में जो 'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः' वाला मूल तत्व है उसका प्रचार होना आवश्यक है। मेरा व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि संसार में इस समय जितनी भी अराजकता फैली है, संप्रदायों के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है उस सबका समाधान गांधी के मार्ग पर चलकर प्राप्त किया जा सकता है। पर उस मार्ग से भी कट्टरता के तत्व को निकाल कर मूल ग्रहण करना होगा। दिनकर जी के शब्दों में,
चलाओ बम, गोली दागो,
गांधी की रक्षा करने को,
गांधी से आगे भागो।
कभी कभी तो ऐसा लगता है मानो गब्बर सिंह अपने आदमियों से कह रहा हो,
गब्बरः "संस्कृतियाँ दो और आदमी एक, बहुत बेइन्साफी है।
अरे ओ सांभा, ज़रा बताना तो कितने कलचर हैं हमारी सल्तनत में।"
सांभाः सरदार, कलचर के नाम पर तो मात्र एग्रीकलचर है।
गब्बरः ठीक है, तो फिर हम कालिया की संस्कृतियों का एक कलचर बना लेते हैं तथा उसमें कट्टरता घोल कर उसका टीका इसे लगा देते हैं।
सांभाः उससे क्या होगा सरदार।
गब्बरः हा हा हा हा
कालियाः सरदार मैंने संस्कृतियाते हुए आपका बुद्धिवर्धक चूर्ण (तंबाकू) खाया है, तथा बाबा की धूनी का कश भी लगाया है।
गब्बरः कश लगाया है, तो ले अब गश लगा,
थोड़ी ही देर में तेरी सारी संस्कृतियों का कलचर हो जाएगा,
तथा कट्टरता की स्पेशल डोज़ के कारण,
तू पूरा वलचर हो जाएगा।
हा हा हा हा ।
कई बार लगता है मानो ऐसा ही हो रहा है, पर वह अपने आप में एक अलग विषय है। हम बात कर रहे थे विविधताओं की। भारत में हमें इन विविधताओं को देखने समझने तथा उनका आदर करने की शिक्षा स्वतः प्राप्त हो जाती है। जब हम एक प्रान्त से दूसरे का सफर करते हैं तो वास्तव में संस्कृतियों की दूरियाँ नाप रहे होते हैं। पर उन सबका मूल कहीं ना कहीं एक ही होता है। रामायण, महाभारत तथा अन्य गाथाएँ भी वही रहती हैं तथा भ्रष्टाचार और पदलोलुप राजनीति भी वही। अतः हम इस अन्तर की गहनता को महसूस नहीं कर पाते हैं। जब यह सफर दो देशों के मध्य होता है तो अन्तर स्पष्टता से दृष्टिगोचर होता है। यदि कोई दूसरे देश में पूरी तरह बस जाता है तो यह अन्तर बार बार सामने आता है। सबसे बुरी बेचारे बच्चों पर बीतती है क्योंकि उन्हें घर में कुछ सिखाने की कोशिश की जा रही होती है तथा वे बाहर कुछ सीख रहे होते हैं। यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जो माता पिता अपने बच्चों को सिखा रहे हैं क्या वे यह जानते हैं कि भारतीय संस्कृति के मूल में क्या है, या फिर वे अपने अधकचरे ज्ञान की शेखी बघार रहे हैं। जटिलताएँ बड़ी हैं तथा समाधान सरल, बस उस सरल समाधान को ढूँढने की आवश्यकता है। मैं मंच पर अब आप सबको आमंत्रित करता हूं कि आएँ तथा अपने विचारों की दिप्ति से इस अनुगूँज के आयोजन को जगमगा दें।
चलते चलते कुछ पंक्तियाँ बन पड़ी है, पढ़ने की कोशिश कर लीजिए।
चाहे जितने लोग हों,
चाहे जितनी संस्कृतियाँ,
इन्हें अलग अलग कर के देखना,
शायद हमारी ही भूल है,
यह तो एक नाटक है,
जिसकी यवनिका पर,
मानव से मानव के प्रेम का मूल है,
जीवन का आयोजन,
यूँ भी निरर्थक है,
इसके कर्तव्यों को खुश हो के पालिए,
रहिए कहीं भी पर,
मन के गलियारे में,
सपनों की छोटी सी,
दुनिया तो ढालिए।
प्रेषक: अभिनव @ 5/01/2006 6 प्रतिक्रियाएं
आमीन
Apr 30, 2006दिवाली पर दिल्ली के बाज़ारों और
होली पर बनारस के संकट मोचन मंदिर,
में हुए धमाकों के बाद,
पाकिस्तान में बैठा,
एक ओसामा अपने शागिर्दों में बड़बड़ाया,
"हिन्दुओं के भरोसे बैठने से कुछ नहीं होगा,
ये लोग ऐसे नहीं लड़ेंगे,
अबकी बार हम ईद पर,
जामा मस्जिद में धमाके करेंगे।"
सब शागिर्द एक साथ बोले,
"आमीन"।
प्रेषक: अभिनव @ 4/30/2006 2 प्रतिक्रियाएं
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गर्मियाँ, गर्मियाँ, गर्मियाँ, गर्मियाँ।
जलती बुझती हुई आ गई गर्मियाँ,
चलती रुकती हुई आ गई गर्मियाँ,
धूप लोगों के सिर पर उबलने लगी,
गर्मियाँ, गर्मियाँ, गर्मियाँ, गर्मियाँ।
वो ठेले वाला,
जो गर्मियों में,
लोगों को लू से बचाने के लिए,
सबको पना पिलाता था,
लू लगने से मर गया है,
हिन्दी अखबार के तीसरे पन्ने पर,
नाम कर गया है,
हम कूलर के आगे मुँह घुसाए,
गर्मी से लड़ रहे हैं,
और उसी अखबार के टुकड़े पर,
चबेना चबाते हुए,
यह खबर पढ़ रहे हैं।
गर्मियाँ, गर्मियाँ, गर्मियाँ, गर्मियाँ।
प्रेषक: अभिनव @ 4/30/2006 0 प्रतिक्रियाएं
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भाई नें भाई को गोली मारी है
Apr 26, 2006हमने अपना भेष बदल कर देख लिया,
सच्चाई की राह पे चल कर देख लिया,
भाई नें भाई को गोली मारी है,
अपना घर चुपचाप संभल कर देख लिया,
अच्छी खासी कनफ्यूज़िंग सामग्री है,
सभी धर्म ग्रन्थों को पढ़ कर देख लिया,
रात और दिन को कैसे जुदा करें बोलो,
हमने फिर सपने में दफ्तर देख लिया,
लगता है माडर्न आर्ट सा जीवन है,
दुनिया के नक्शे पर कढ़ कर देख लिया,
'अभिनव' अनुबंधों के नव संबंधों में,
झूठी मुस्कानों को भर कर देख लिया।
प्रेषक: अभिनव @ 4/26/2006 4 प्रतिक्रियाएं
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SC, ST, BC अब बन्द कीजिए
Apr 14, 2006देश की प्रगति का प्रबन्ध कीजिए,
SC, ST, BC अब बन्द कीजिए,
गाँव गाँव जाके स्कूल खोलिए,
वोटरों को पढ़ने के लिए बोलिए,
सबको बराबरी से दक्ष कीजिए,
प्रतियोगिताएँ निष्पक्ष कीजिए,
धावकों को बैसाखियाँ ना थमाइए,
प्रतिभा को यूँ ना खण्ड खण्ड कीजिए,
उन्नति की गति को ना मन्द कीजिए,
SC, ST, BC अब बन्द कीजिए,
मुट्ठियाँ ये यूँ ही आज भींची नहीं हैं,
जाति कोई ऊँची कोई नीची नहीं है,
तथ्य मात्र एक सत्य के करीब है,
है अमीर कोई और या गरीब है,
ऐसे में विभाजनों को ठीक कीजिए,
सबको समान सुविधाएँ दीजिए,
खत्म भेदभाव के ये द्वन्द कीजिए,
SC, ST, BC अब बन्द कीजिए,
भारत में शिक्षा के जो प्रतिमान हैं,
नालन्दा औ' तक्षशिला के समान हैं,
धरा पे जो ज्ञान के भगीरथों से हैं,
मन्दिरों से हैं पवित्र तीरथों से हैं,
इनसे तो खिलवाड़ छोड़ दीजिए,
राजनीतियों की राह मोड़ लीजिए,
योग्यता के सुमनों को छन्द कीजिए,
SC, ST, BC अब बन्द कीजिए
देश की प्रगति का प्रबन्ध कीजिए,
SC, ST, BC अब बन्द कीजिए।
प्रेषक: अभिनव @ 4/14/2006 6 प्रतिक्रियाएं
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अनुगूँज १८ - धर्म, फुटबाल, देवपुरुष और मैं
Apr 6, 2006
मेरे जीवन में धर्म का महत्व तो है, क्या है ये बताना ज़रा कठिन है। दिमाग पर ज़रा ज़ोर डालने पर ऊट पटांग विचार तो मन में आते हैं जैसे -
१ धर्म का अर्थ है, धनवान का मर्म, धनिया की शर्म, धनुष का कर्म और धतूरे का चर्म।
२ हमारे समाज में अनेक एसे महानुभाव हैं जो धर्म को अपनी जेब में लिए फिरते हैं। मैं भी उनमें से एक हूँ।
३ धर्म धर्म खेलकर कोई सरकार में आ गया तो कोई आने की कोशिश में है।
४ धर्म धनतेरस पर मिलने वाले उस बर्तन की भांति है जिसे हम खरीदना तो चाहते हैं पर जो हमारे बजट से अधिक मंहगा होता है।
५ समाज धर्म की खटिया पर पड़ा पड़ा अंगड़ाइयाँ लेता रहता है।
पर कोई ठोस तथ्य सामने नहीं आ पा रहा है। कभी कभी ऐसा लगता है मानो हमारे जीवन में धर्म का उतना ही महत्व है जितना कि फुटबाल के खिलाड़ी के जीवन में गोल पोस्ट का होता है। जैसे खिलाड़ी मैच भर गोल पोस्ट की ओर फुटबाल लेकर भागता रहता है और कुछ लोग उसे ऐसा करने रोकते रहते हैं वैसे ही हम भी धर्म की ओर भागते हैं और कुछ महानुभाव, कुछ वृत्तियाँ हमको रोकती रहती हैं। खिलाड़ी तो कभी कभी गोल कर भी लेता है पर अपन गेम छोड़ कर बाहर बैठ जाते हैं और इस तमाशे को देखते रहते हैं।
आपको अपना धर्म जनित ताज़ा अनुभव सुनाते हैं। पिछले सप्ताह राशन पानी लेने के लिए सिएटल के 'सेफ वे', नामक स्टोर पर गए थे। सामान बटोर कर बस स्टाप पर खड़े बस के आने का इंतज़ार कर रहे थे। सड़क सुनसान थी तथा दूर दूर तक कोई जानवर भी नहीं दिख रहा था। तभी एक लगभग साढ़े छह फुट ऊँचा, श्यामवर्णी, गजबदनी, लच्छेदार केशराशि वाला साक्षात लफाड़ी टाइप देवपुरुष हमारे निकट आकर खड़ा हो गया। हमको देख कर ऐसे मुस्कुराया जैसे हम लखनऊ के चिड़ियाघर में हुक्कू बंदर को देख कर मुस्कुराते हैं तथा फिर हैलो का कैचम कैच खेला।
फिर बोला, "क्या तुम पाकिस्तानी हो।"
हमनें कहा, "नहीं भारतीय हैं।"
"हमम्, भारतीय - अच्छा तुम्हारा रिलीजन क्या है, मुस्लिम हो क्या?"
हमारे मन में तो आया कि कह दें कि हाँ मुस्लिम हैं, और देखें कि आगे क्या होता है। पर इधर ज़रा डरपोक हो गए हैं, पंगा आदि लेने से बचते हैं। अब पहले जैसा नहीं रहा कि पंगे आगे आगे चलते थे और हम पीछे पीछे। खैर हम बोले,
"हम हिन्दू हैं, पर यह प्रश्न तुमने क्यों किया। यदि हम मुस्लिम होते तो क्या?"
"मैं नहीं चाहता कि कोई भी मुस्लिम अमेरिका में रहे, ये लोग अच्छे नहीं होते हैं।"
हमनें मन ही मन सोचा कि देखो ये व्यक्ति जिसकी जाति नें स्वयं कहीं ना कहीं रंग भेद की नीति को भोगा है आज मुसलमानों को अमेरिका से बाहर करना चाहता है। सोचा चुप रहें पर रह ना पाए तथा उससे बोले कि,
"देखो भाई, किसी भी व्यक्ति को तुम इस आधार पर किसी वर्ग विशेष में नहीं रख सकते कि वह किस रिलीजन का है। अच्छे और बुरे लोग हर जगह हैं और खूब हैं।"
अभी हम प्रवचन को आगे बढ़ाते कि हमारी पत्नी नें हमें बीच में ही रोक दिया। तथा हमसे धीरे से बोलीं कि इससे पंगा ना लो, अन्जान देश बिना मतलब के बात मत बढ़ाओ। इस पूरी घटना में वह देवपुरुष अपनी समझ में अपने राष्ट्र धर्म का पालन करते हुए अमेरिका से मुसलमानों को भगाना चाहता था। हम अपनी समझ में अपने कवि धर्म का पालन करते हुए उसे समझाने का प्रयास कर रहे थे और हमारी पत्नी अपने पत्नी धर्म का पालन करते हुए हमको टोक ही रही थीं कि बस धर्म का पालन करती हुई बस आई और ड्राइवर धर्म का पालन करते हुए ड्राइवर नें बस के द्वार खोल दिए तथा हम लोग यात्री धर्म का पालन करते हुए अपने बसेरे की ओर चल पड़े।
चलते चलते कुछ गज़ल जैसा बन पड़ा, इसे भी पढ़ लीजिए;
धर्म आंखों से बरसते प्यार की मुस्कान है,
धर्म जीवन में छिपे भगवान की पहचान है,
धर्म ही है योगियों की साधना के मूल में,
धर्म सक्षम बाजुओं में शक्ति का तूफान है,
सोचता हूँ देख कर गांधी की उस तस्वीर को,
धर्म से कितना बड़ा अब हो गया इंसान है,
मैं भी मानवता को तीर्थ मानता हूँ दोस्तों,
मुझको ये लगता है मेरा धर्म हिन्दोस्तान है।
अभिनव
प्रेषक: अभिनव @ 4/06/2006 4 प्रतिक्रियाएं
कृपया अपने विचार व्यक्त करें 'पूरब और पश्चिम' पर
Apr 3, 2006पिछले कुछ समय से भारतवासी संसार के कोने कोने में अपना बोरिया बिस्तरा लेकर पहुँच चुके हैं। पहले व्यक्ति जहां पैदा होता था, उसकी अनेक सन्ततियां भी वहीं डेरा जमाती थीं। लोग बाहर ना जा सकें इसके लिए समुद्र यात्रा पर जात बिरादरी से बाहर इत्यादि नियम भी बनाए गए थे। सुनते हैं कि अपने गांधीजी पर यह नियम लागू भी किया गया था। अभी भी ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपनी चारदीवारी से बाहर आने में कतराते हैं। परंतु प्रगति का एक अंश है गति, और गति हमें एक स्थान से दूसरे तक की दूरी तय करवाती है। यह भी सत्य है कि लोगों की बोलचाल, खानपान, चलना फिरना, नियम कानून और भी अनेक इस प्रकार की चीज़ें उसकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार बदलती रहती हैं। ऐसे में एक से अधिक संस्कृतियों में स्वयं को सहज कर पाने में किन विशेष योग्यताओं की आवश्यकता होती है। या फिर यूँ कह लें वो कौन सी समस्याएं हैं, अच्छाइयां हैं और कौन सी बुराइयाँ हैं जो व्यक्ति दो विरोधाभासी संस्कृतियों के संपर्क में ग्रहण करता है। मेरा आप सुधीजनों से अनुरोध हैं कि कृपया इस विषय पर अपने विचार व्यक्त करें। बात ज़रा पूरब और पश्चिम जैसी है, पर ज्वलंत है।
प्रेषक: अभिनव @ 4/03/2006 5 प्रतिक्रियाएं
उन बिखरे पंखों से उड़ने का दावा है।
Apr 1, 2006मन में जो आ रहा है, आप भी सुनिए;
पथरीले चेहरों पर मुस्कानों का खिलना,
जीवन की उलझन का अच्छा भुलावा है,
हिंदी अंग्रेज़ी में कौन बात करता है,
बहती तरंगों की भाषा तो जावा है,
ऐसे में अनुभूति नव चाहे अभिनव हो,
पुस्तक का छपना तो मात्र एक छलावा है,
जिन कोमल पंखों को बिखराया आंधी नें,
उन बिखरे पंखों से उड़ने का दावा है।
प्रेषक: अभिनव @ 4/01/2006 1 प्रतिक्रियाएं
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न्यूयार्क में 'अभिनव अनुभूतियाँ' का विमोचन
Mar 29, 2006
२५ मार्च २००६, न्यूयार्क, संयुक्त राज्य अमेरिका, अभिनव शुक्ल के काव्य संकलन 'अभिनव अनुभूतियाँ' का विमोचन 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति' के तात्वाधान में न्यूयार्क स्थित सत्यनारायण मंदिर सभागार में किया गया। पुस्तक का विमोचन समिति के सचिव श्री अनूप भार्गव, भारतीय संस्कृति एवं शिक्षा के काउन्सल श्री रविन्द्रनाथ पांडा एवं व्यंग्यकार श्री भारतभूषण तिवारी के कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ। विमोचन के उपरांत श्री अनूप भार्गव नें अभिनव की कविताओं को कवि सम्मेलनीय परंपरा को पुनर्स्थापित करने वाला बताया। उन्होंने यह भी कहा कि मंच पर अनर्गल चुटकुले सुनाने का समझौता अभिनव को नहीं करना पड़ता है यही उसकी शक्ति है। उन्होंने आगे कहा कि अभिनव की कविताओं में हास्य तथा जीवन मूल्यों का एक सामंजस्य देखने को मिलता है तथा संप्रेषण की दृष्टि से सरल भाषा में लिखी हुई रचनाएं पढ़ने के बाद कभी तो खिलखिला कर हंसने का मन करता है तो कभी मौन होकर विचार के पटल पर अंकित शब्दों को कुरेदने का। श्री पांडा नें पुस्तक के प्रकाशन पर अभिनव को शुभकामनाएं दीं तथा भविष्य में और भी संकलनों के प्रकाशित होने की आशा जताई। श्री भारतभूषण नें स्वयं को अभिनव की कविताओं का बड़ा प्रशंसक बतलाया तथा पुस्तक के प्रकाशन पर अभिनव को अपनी शुभकामनाएं दीं।
'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति' , न्यूयार्क शाखा के अध्यक्ष श्री शेर बहादुर सिंह नें अभिनव को धन्यवाद देते हुए कहा कि सहज हास्य के कुशल चितेरे अभिनव नें अपनी कविताओं के माध्यम से अनेक श्रोताओं के मन में घर बनाया है। इस अवसर पर बोलते हुए अभिनव नें कहा कि यह उनका सौभाग्य है कि उनकी पुस्तक का विमोचन ऐसे पवित्र स्थान पर हो रहा है। उन्होंने यह भी आशा जताई कि अन्य युवा कवियों को भी समिति की ओर से वही स्नेह और समर्थन प्राप्त होगा जो कि उन्हें प्राप्त हुआ है।
'अभिनव अनुभूतियाँ' में अभिनव की विविध भावों पर लिखी रचनाओं का समागम देखने को मिलता है। पुस्तक का प्रारंभ राष्ट्र भक्ति की भावना से ओत प्रोत कविताओं से होता है। दोहा, ग़ज़ल, छन्द आदि को समाहित करती हुई पुस्तक के अंत में विशुद्ध हास्य की रचनाओं को स्थान दिया गया है। पाण्डुलिपी प्रकाशन, दिल्ली, द्वारा प्रकाशित पुस्तक का मूल्य १५० रुपए है। पुस्तक के फ्लैप पर डा ब्रजेन्द्र अवस्थी, सोम ठाकुर, उदय प्रताप सिंह, डा अशोक चक्रधर, डा सुनील जोगी तथा प्रवीण शुक्ल के विचार दिए गए हैं। अभिनव का नाम पिछले कुछ समय से नई पीढ़ी के अत्यंत संभावनाशील कवियों में लिया जा रहा है। देश विदेश के अनेक मंचों पर काव्य पाठ कर चुके अभिनव भारत के एक प्रतिष्ठित साफ्टवेयर प्रतिष्ठान में अभियंता के पद पर कार्यरत हैं।
विमोचन के उपरांत बच्चों नें रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किया तथा होली कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें डा लक्ष्मन ठाकुर, अनूप भार्गव, डा अंजना संधीर, देवी नागरानी, रामबाबू गौतम, बिंदू अग्रवाल, अशोक व्यास, अभिनव शुक्ल समेत अनेक कवियों नें अपनी कविताएं सुनाईं। कार्यक्रम का संचालन अशोक सिंह एवं रानी सरिता नें किया।
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चित्रः बाएं से दाएं, अनूप भार्गव, अभिनव शुक्ल, भारतभूषण तिवारी, डा रविनद्रनाथ पंडा एवं रानी सरिता
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प्रेषक: अभिनव @ 3/29/2006 5 प्रतिक्रियाएं
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भगत सिंह अमर रहें - इन्कलाब ज़िन्दाबाद
Mar 24, 2006पूरे देश के लहू में जोश की रवानी हेतु,
'इन्कलाब ज़िन्दाबाद' गाया है भगत नें,
लूट पाट कत्ल किसी धर्म के नहीं हैं अंश,
धर्म सिर्फ प्यार बतलाया है भगत नें,
जीते जी तो मरने की आदत है हमें पर,
मर कर जीना सिखलाया है भगत नें,
मन में हमारे इसी लिए आज स्थान,
देवताओं के समान पाया है भगत नें।
प्रेषक: अभिनव @ 3/24/2006 2 प्रतिक्रियाएं
पत्नी ये बोली एक बार अपने पति से,
Mar 23, 2006पत्नी ये बोली एक बार अपने पति से,
शादी योग्य हो गई है बिटिया तुम्हारी जी,
जल्दी से ब्याहो इसे और गंगा नहाओ,
पाप धो के करो चलने की तैयारी जी,
पति बोला जल्दी ना मचाओ मिलने तो देओ,
कोई अच्छा लड़का कोई योग्य अधिकारी जी,
पत्नी बोलीं,
सोचो मेरे पिताजी यदि कुछ ऐसा सोच लेते,
आज तक भी मैं बैठी होती रे कुँवारी जी।
प्रेषक: अभिनव @ 3/23/2006 2 प्रतिक्रियाएं
Labels: हास्य कविता
आप सबको होली की अनेक शुभकामनाएँ
Mar 15, 2006चुटकुले का कविताकरण
पत्नी जी बोलीं एक बार मेरे प्राणप्रिय,
कोई चीज़ सोने की तो हमको दिलाइए,
वैलेंटाइन डे की कविता तो हैं सुनाते आप,
होली पर ही सही वैलेंटाइन तो मनाइए,
जब तक आप नहीं देते सोने वाली चीज़,
तब तक बात नहीं करूँगी मैं जाइए,
अगले ही दिन उन्हें गिफ्ट दिया एवं कहा,
सोने की ये गोलियाँ हैं खाइए सो जाइए।
अभिनव
बुरा ना मानो होली है।
प्रश्नः क्या पति डरपोक होते है?
उत्तरः नहीं जो डरपोक होते हैं, वो कुँवारे रहते हैं।
प्रेषक: अभिनव @ 3/15/2006 1 प्रतिक्रियाएं
Labels: हास्य कविता
कैसी ये जिहाद और कैसा है ये ज्वार
Mar 10, 2006दिल्ली में दिवाली पे मचाया हाहाकार,
होली पे भी खून का दिया है उपहार,
धरती के नयनों में आंसुओं की धार,
कैसी ये जिहाद और कैसा है ये ज्वार,
जहाँ तुलसी ने बैठ ध्यान किया था,
रामचन्द्र जी का यशगान किया था,
हनुमान जी से वरदान लिया था,
मानस का अमृत दान किया था,
उसी पुण्य पावन धरा के खण्ड पर,
असुरों नें आकर किया है अत्याचार,
आत्मा से उठती है आह बार बार,
कैसी ये जिहाद और कैसा है ये ज्वार,
पतन के गर्त में बढ़ते रहें,
नफरतों के पर्वतों पे चढ़ते रहें,
हिंदू और मुस्लिम लड़ते रहें,
कोई चाहता है ये झगड़ते रहें,
रोटी पानी बिजली रोज़गार ना कहें,
बोलें शमशीर तिरशूल तलवार,
भूल जाएँ सारी तहज़ीब और प्यार,
कैसी ये जिहाद और कैसा है ये ज्वार,
उग्रवादियों का कोई धर्म नहीं है,
उनके हृदय में कोई मर्म नहीं है,
इनको खुदा से भी तो शर्म नहीं है,
दुष्टों का कत्ल नीच कर्म नहीं है,
आप बैठे रहिए कि राम आएगा,
रावण को करने तमाम आएगा,
घंटियां बजा के सुबह शाम आएगा,
टीवी चैनलों पर उसका नाम आएगा,
इन असुरों के संहार के लिए,
स्वयं का ही करना पड़ेगा विस्तार,
जय घोष तभी गूंजेगा द्वार द्वार,
रामजी की विजय और रावण की हार,
भोली जनता का उपहास देखिए,
खण्ड खण्ड होता विश्वास देखिए,
चोर और सिपाही आस पास देखिए,
भेड़िये को खाता हुआ घास देखिए,
दिल की नज़र ज़रा खोलिए हुज़ूर,
सूरज को रोशनी का दास देखिए,
मार काट वाले इस नए दौर में,
नदियों में सागर की प्यास देखिए,
काश ऐसा हो सुखी नदिया ही रहे,
प्यार वाले झरने को लेकर बहे,
धरती लुटाए हम सब पे दुलार,
रामजी की विजय और रावण की हार,
आदमी को आदमी से काट रहे हैं,
जात पात में जो देश बांट रहे हैं,
बाँट करके मलाई चाट रहे हैं,
राज करते हैं ठाठ बाट रहे हैं,
ऐसी कुप्रथाओं के हैं दोषी वे सभी,
जिनके भी चेहरे सपाट रहे हैं,
और हम लेकर मशाल हाथ में,
कलम से खाइयों को पाट रहे हैं,
ज़ुल्मों को चुपचाप कोई ना सहे,
जीवन में कोई भी ना पिछड़ा रहे,
सब जन गण मन मिल ये कहे,
जय जय जय जय जय जय हे,
रामजी की विजय और रामजी की जय।
प्रेषक: अभिनव @ 3/10/2006 3 प्रतिक्रियाएं
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वो भी क्या वक्त था जब होली मना लेते थे.
Mar 6, 2006वो भी क्या वक्त था जब होली मना लेते थे,
सबके चेहरों को रंगारंग बना लेते थे,
सारे मौसम की महक ही बदल सी जाती थी,
आत्मा पूरे शहर की मचल सी जाती थी,
फूल बगिया में अलग ही तरह के खिलते थे,
हर एक अन्जान आदमी से गले मिलते थे,
ऐसा लगता था कि बदल सा गया हो संसार,
पाँव छूते थे बड़ों के लुटाते जाते प्यार,
दुशमनी भूल के खुल जाते थे इस दिल के द्वार,
कहीं पर पेण्ट से होता था हमारा सात्कार,
साथ ले दोस्तों को घूमते थे सड़कों पर,
अपनी पिचकारियों से खुद ही नहा लेते थे,
वो भी क्या वक्त था जब होली मना लेते थे,
कृष्ण और राधा के हम गीत नहीं गाते थे,
किन्तु बदमाशियाँ कर कर के मुस्कुराते थे,
प्यार बहता था मोहल्ले की हसीं गलियों में,
कुछ शरम फूट रही थी वफा की कलियों में,
उनकी नज़रों के इशारों से रंगे जाने को,
उनके घर के करीब रुकने के बहाने को,
ढोल पर ताल बजा गीत नया गाने को,
याद करते हैं उन्हें रोज़ भूल जाने को,
ना कोई चिंता थी और ना थी कोई भी उलझन,
सब परेशानियों में आग लगा देते थे,
वो भी क्या वक्त था जब होली मना लेते थे,
रंग वंग खेल के जब बुद्धू लौट आते थे,
'भूत लगते हो पूरे', माँ की डाँट खाते थे,
ले के उबटन वहीं आंगन में बैठ जाते थे,
रंग गहरे ना थे फिर भी ना छूट पाते थे,
शाम यारों के यहाँ होली मिलने जाते थे,
और अपने भी घर में कितने लोग आते थे,
चिप्स पापड़ कचौड़ी मीठे खुरमे और मठरी,
मोटी गुझिया हो जैसे बड़े सेठ की गठरी,
दही बड़े, आलू, चावल की कचरी,
संग चलती थी बातों की चखरी,
पेट के हाल सदा गड़बड़ा ही जाते थे,
पूरे त्योहार में हम खूब सा खा लेते थे,
वो भी क्या वक्त था जब होली मना लेते थे,
और अब क्या कहें, जीवन के पड़ावों में बहें,
नई दुनिया के नए रंगों को हंस हंस के सहें,
अब तो, हाय कारपेट पे रंग ना गिर जाए कहीं,
किसी सिरफिरे का दिमाग ना फिर जाए कहीं,
मेरी स्किन को भाई सूट नहीं करता गुलाल,
वेट बढ़ जाएगा देखो शुगर और कौलैस्ट्राल,
पाँव में बेड़ियाँ डाले हैं अब तो कुछ फेरे,
अब तो चिंताएँ प्रमोशन की हैं हमें घेरे,
बने हर मोड़ पर प्रतिस्पर्धा के डेरे,
और वो दोस्त भी तो अब नहीं रहे मेरे,
लकड़ियाँ काट के सड़कों पे जला लेते थे,
रंग खुशबू में मिला कर के बहा देते थे,
तुम भी पढ़कर इसे सोचते होगे प्यारे,
वो भी क्या वक्त था जब होली मना लेते थे।
प्रेषक: अभिनव @ 3/06/2006 5 प्रतिक्रियाएं
Labels: गीत
ऊपर ऊपर से दुनिया को हंसता देख रहा हूँ मैं
Feb 16, 2006नमस्कार मित्रों,
इधर काफी समय से कलम चलने से मना कर रही है, उँगलियाँ कीबोर्ड तक आकर रुक सी जा रही हैं। मन कह रहा है कि लिखने का कुछ उद्देश्य होना आवश्यक है। मित्र भारतभूषण कहते हैं कि अच्छे शब्दों में मीठे भावों को पिरो कर एक अच्छी कलाकृति तो बन सकती है पर वह साहित्य नहीं है, कविता नहीं है। इस परिपेक्ष में आस पास जो दिख रहा है सो लिख रहा हूँ। जगह जगह गज़ल के नियमों का उल्लंघन हुआ है, साधना में कमी के कारण। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।
ऊपर ऊपर से दुनिया को हंसता देख रहा हूँ मैं,
नित्य गले में कोई फन्दा कसता देख रहा हूँ मैं,
जैसे कोई नाव भँवर में घिर घिर घिरती जाती है,
वैसे खुद को इस जीवन में फँसता देख रहा हूँ मैं,
अगर नया कुछ करना है तो जल्दी ही करना होगा,
बैठे बैठे जाने किसका रस्ता देख रहा हूँ मैं,
दो कौड़ी में इज्ज़त, चार में ईमाँ, छह में बाकी सब,
माल आज भी बाज़ारों में सास्ता देख रहा हूँ मैं,
जाने कैसी देखभाल करती हैं वो अपने घर में,
अब भी अपने दिल की हालत खस्ता देख रहा हूँ मैं,
हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई गीत भले ही गाओ तुम,
नफरत की बस्ती को पल पल बसता देख रहा हूँ मैं,
लकड़ी से लकड़ी का नाता कितना गहरा होता है,
तेज़ कुल्हाड़ी का छोटा सा दस्ता देख रहा हूँ मैं,
वो सोने और चाँदी को अब प्लैटिनम् करते होंगे,
कैसे करते हैं हीरे को जस्ता देख रहा हूँ मैं,
मुरझाने वाले असली रंगों का दौर पुराना था,
नकली फूलों का 'अभिनव' गुलदस्ता देख रहा हूँ मैं.
प्रेषक: अभिनव @ 2/16/2006 5 प्रतिक्रियाएं
Labels: गीतिका