मुशर्रफ नें लिखी किताब, किताब पे कविता सुनो,
करना तो पड़ेगा हिसाब, हिसाब पे कविता सुनो,
हमनें भी दिए हैं जवाब, जवाब पे कविता सुनो,
कहते हैं करगिल से पहले भारत में चिंगारी थी,
पाकिस्तान पे हमला करने की पूरी तैयारी थी,
भारत नें तो युगों युगों से युद्ध किसी से नहीं किया,
युद्ध तो छोड़ो मार पीट का बदला तक भी नहीं लिया,
अपने भारत के पी एम जब प्यार की बस लेकर आए,
पीठ पे गहरे घाव उन्होंने धोखेबाज़ी के खाए,
युद्ध हुआ कितने बच्चे अपनी माओं से छूट गए,
जाने कितने दिल टूटे और कितने रिश्ते टूट गए,
तुमने ही समझौता कर के समझौतों को तोड़ दिया,
स्वयं बनाया तालिबान को फिर मरने को छोड़ दिया,
जाने कितनी बार खुद ही अपनी वाणी से पलटे हो,
इससे ये साबित होता है गलत राह पर चलते हो,
आज यही आवाज़ गूंजती है इस कवि के अन्तर से,
तुम्हें कुटिलता संस्कार में मिली है अपने ऊपर से,
ऊपर भी सब थे खराब, खराब पे कविता सुनो,
मुशर्रफ नें लिखी किताब, किताब पे कविता सुनो,
करना तो पड़ेगा हिसाब, हिसाब पे कविता सुनो,
हमनें भी दिए हैं जवाब, जवाब पे कविता सुनो,
लिखते हैं परमाणु सीखा है भारत नें पाक से,
संघ सोवियत के टुकड़े सब निकले उनकी नाक से,
लिखते हैं कि पाकिस्तानी सेना उनके साथ,
काशमीर की गड़बड़ में बस भारत का ही हाथ है,
बिना बात के यूँ हीं मासूमों की बलि चढ़ाते हो,
करगिल की चोटी पर अपनी कब्र खोदने जाते हो,
अपने सैनिक की लाशों को लावारिस बतलाते हो,
कैसे जनरल हो जो अपनी थूक चाटते जाते हो,
वैसे तो तुम खुद को बुश का मित्र महान बताते हो,
ओसामा की थाली में अमरीकन रोटी खाते हो,
अपने देश के वैज्ञानिक को तुमने जी भर कोसा है,
तुमने खुद बेचा है बम को सबको यही भरोसा है,
सच बतलाऊँ मुझे तुम्हारी पुस्तक कैसी लगती है,
हैरी पाटर की गाथा पर दस्तक जैसी लगती है,
पृष्ठ पृष्ठ पर तुमने अपने मन से गाथा डाली है,
पुस्तक लिखने के पीछे भी कोई मंशा काली है,
काली मंशा आखिर कब परदे के पीछे रहती है,
मैं भी बस वो कहता हूं जो सारी दुनिया कहती है,
झूठ बोलते हैं जनाब, जनाब पे कविता सुनो,
मुशर्रफ नें लिखी किताब, किताब पे कविता सुनो,
करना तो पड़ेगा हिसाब, हिसाब पे कविता सुनो,
हमनें भी दिए हैं जवाब, जवाब पे कविता सुनो,
मुशर्रफ नें लिखी किताब
Sep 30, 2006
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5 प्रतिक्रियाएं:
बढ़िया मुशर्रफ़ी कविता लिखी है. परंतु बाद में मुशर्रफ की तरह मुकर न जाना.
बहुत खूब.
बहुत बढिया, अभिनव. बहुत वजन के साथ भाव आये हैं.
भाई अभिनव
भूल गये जो कुछ तुम लिखना, वह आगे बतलाता हूँ
नाम मुशर्रफ़ है मेरा, कुछ ही तलवे सहलाता हूँ
हाथों में तस्बीह लिये हूँ आस्तीन में हैं खंज़र
और अलिफ़-लैला के किस्से सत्य बताता आता हूँ
दूध धुला हूँ मैं तुम करते इल्जामों की बरसातें
सौंपी सदा प्रजा को अपनी मैने पूनम की रातें
दूध छटी का पिया,घुला था धिखा औ' फ़रेब उसमें
मेरी बचपन से आदत है पल पल पर करना घातें
अब उतर रहा नकाब, नकाब पे कविता सुनो
Mazaa aa gaya bhai;-)
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