नेहरू जी के निधन पर अटल जी के श्रद्धासुमन।

Aug 18, 2018

नेहरू जी के निधन पर अटल जी के श्रद्धासुमन।
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अध्यक्ष महोदय,
एक सपना था जो अधूरा रह गया। एक गीत था जो गूँगा हो गया। एक लौ थी जो अनन्त में विलीन हो गयी। सपना था, एक ऐसे संसार का, जो भय और भूख से रहित होगा। गीत था, एक ऐसे महाकाव्य का, जिसमें गीता की गूँज और गुलाब की गन्ध थी। लौ थी, एक ऐसे दीपक की, जो रात भर जलता रहा, हर अँधेरे से लड़ता रहा और हमें रास्ता दिखाकर, एक प्रभात में निर्वाण को प्राप्त हो गया।
मृत्यु ध्रुव है। शरीर नश्वर है। कल, कंचन की जिस काया को हम चंदन की चिता पर चढ़ाकर आये, उसका नाश निश्चित था। लेकिन क्या यह ज़रूरी था कि मौत इतनी चोरी छिपे आती? जब संगी-साथी सोये पड़े थे, जब पहरेदार बेख़बर थे, तब हमारे जीवन की एक अमूल्य निधि लुट गयी। भारत माता, आज शोकमग्ना है - उसका सबसे लाड़ला राजकुमार खो गया। मानवता, आज खिन्नमना है - उसका पुजारी सो गया। शान्ति, आज अशान्त है - उसका रक्षक चला गया। दलितों का सहारा छूट गया। जन-जन की आँख का तारा टूट गया। यवनिका पात हो गया। विश्व के रंगमंच का प्रमुख अभिनेता अपना अन्तिम अभिनय दिखाकर अन्तर्ध्यान हो गया।
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भगवान राम के सम्बन्ध में कहा है कि वे असम्भवों के समन्वय थे। पंडितजी के जीवन में महाकवि के उसी कथन की एक झलक दिखाई देती है। वह शान्ति के पुजारी, किन्तु क्रान्ति के अग्रदूत थे; वे अहिंसा के उपासक थे, किन्तु स्वाधीनता और सम्मान की रक्षा के लिए हर हथियार से लड़ने के हिमायती थे। वे व्यक्तिगत स्वाधीनता के समर्थक थे किन्तु आर्थिक समानता लाने के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने समझौता करने में किसी से भय नहीं खाया, किन्तु किसी से भयभीत होकर समझौता नहीं किया। पाकिस्तान और चीन के प्रति उनकी नीति इसी अद्भुत सम्मिश्रण की प्रतीक थी। उसमें उदारता भी थी, दृढ़ता भी थी। यह दुर्भाग्य है कि इस उदारता को दुर्बलता समझा गया, जबकि कुछ लोगों ने उनकी दृढ़ता को हठवादिता समझा।
मुझे याद है, चीनी आक्रमण के दिनों में जब हमारे पश्चिमी मित्र इस बात का प्रयत्न कर रहे थे कि हम कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान से कोई समझौता कर लें, तब एक दिन, मैंने उन्हें बड़ा क्रुद्ध पाया। जब उनसे कहा गया कि कश्मीर के प्रश्न पर समझौता नहीं होगा तो हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा तो वो बिगड़ गये और कहने लगे कि अगर आवश्यकता पड़ेगी तो हम दोनों मोर्चों पर लड़ेंगे। किसी दबाव में आकर वो बातचीत करने के खिलाफ़ थे।
महोदय,
जिस स्वतंत्रता के वे सेनानी और संरक्षक थे, आज वह स्वतंत्रता संकटापन्न है। सम्पूर्ण शक्ति के साथ हमें उसकी रक्षा करनी होगी। जिस राष्ट्रीय एकता और अखंडता के वे उन्नायक थे, आज वह भी विपदग्रस्त है। हर मूल्य चुकाकर हमें उसे कायम रखना होगा। जिस भारतीय लोकतंत्र की उन्होंने स्थापना की, उसे सफल बनाया, आज उसके भविष्य के प्रति भी आशंकाएँ प्रकट की जा रही हैं। हमें अपनी एकता से, अनुशासन से, आत्म-विश्वास से, इस लोकतंत्र को सफल करके दिखाना है। नेता चला गया। अनुयायी रह गये। सूर्य अस्त हो गया। तारों की छाया में हमें अपना मार्ग ढूँढना है। यह एक महान परीक्षा का काल है। यदि हम सब अपने को समर्पित कर सकें, एक ऐसे महान उद्देश्य के लिए जिसके अन्तर्गत भारत सशक्त हो, समर्थ और समृद्ध हो और स्वाभिमान के साथ विश्व शांति की चिरस्थापना में अपना योग दे सके तो हम उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करने में सफल होंगे। संसद में उनका अभाव कभी नहीं भरेगा। शायद, तीन मूर्ति को उन जैसा व्यक्ति कभी भी अपने अस्तित्व से सार्थक नहीं करेगा। वह व्यक्तित्व, वह ज़िन्दादिली, विरोधी को भी साथ लेकर चलने की वह भावना, वह सज्जनता, वह महानता शायद निकट भविष्य में देखने को नहीं मिलेगी। मतभेद होते हुए भी उनके महान आदर्शों के प्रति, उनकी प्रमाणिकता के प्रति, उनकी देशभक्ति के प्रति, और उनके अटूट साहस के प्रति हमारे हृदय में आदर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
इन्हीं शब्दों के साथ मैं उस महान आत्मा के प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
- अटल बिहारी वाजपेयी, 29 मई 1964, लोकसभा

भीड़तंत्र

Aug 14, 2018

जात पात है स्वतंत्र,
नफरतें स्वतंत्र हैं,
छद्म वेष में स्वतंत्र,
दुष्टता के मंत्र हैं,
यत्र तत्र क्रूरता है,
धूर्तता स्वतंत्र है,
कहो! क्या राष्ट्र देवियों की,
अस्मिता स्वतंत्र है,
जंग खा रहा हमारी,
एकता का यंत्र है,
लोकतंत्र है बँधा,
स्वतंत्र भीड़तंत्र है,
जो भीड़तंत्र से इसे स्वतंत्र न कराओगे,
स्वतंत्रता दिवस अधिक समय नहीं मनाओगे।
© अभिनव शुक्ल

हुई गा प्रेम

Feb 14, 2017

'प्रेम लेऊ जी प्रेम लेऊ', मचल हौ चीख़ पुकार,
प्रेम सहज विस्तार है, प्रेम दिवस बाज़ार,
प्रेम दिवस बाज़ार, माँगती पत्नी छल्ला,
फूल लिए गलियन में घूमें लल्ली लल्ला,
कह अभिनव कविराय आज कल किस पे टेम,
कार्ड धरो, चकलेट चरो, बस हुई गा प्रेम।

वसंत आया

Feb 12, 2017

वसंत आया तो उसके आते ही फ़ेसबुक पर उसका ज़ोरदार स्वागत होने लगा। मेरे प्यारे प्यारे सहेले - सहेलियाँ अपनी अपनी वाल पर ऋतुराज की उपाधि को जस्टिफाई करने लगे। और इधर ट्रंप बाबू भी अपने द्वारा बनाई जाने वाली वॉल को बसंती रंग में रंगने पर सहमत हो गए। ट्रंप के विरोधी भी बसंती चोला धारण कर सड़कों पर उतर पड़े। टीवी चैनलों के ढपोरसंख पत्रकार चीख़ चिल्ला कर जब थक गए, तब बसंत पर होने वाले कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग कर वासंती अनुभव करने लगे। धार्मिक एकता के बचे खुचे पैरोकार अमीर खुसरो का नाम ले सबको बरगलाने में तत्पर हो गए कि बसंत हिंदू मुस्लिम एकता के लिए आया है। वामपंथ की फिसलौंध भरी गलियों के वासी, बसंत को मिली ऋतुराज की उपाधि को अन्य ऋतुओं का षड्यंत्र बताते हुए इसके विरोध में अपने पुरुस्कार लौटा कर कृतकृत्य होने लगे। कामदेव इस सोच में व्यस्त हो गए कि इस बसंत कौन से प्रोडक्ट द्वारा अपना प्रचार बढ़ाया जाए। चिड़िया सरसों के खेत में उड़ते हुए भोजन हेतु केंचुओं का शिकार करने लगी। माँ शारदा के भक्त पंचम स्वर में सरस्वती वंदना गाने लगे। ऐसे में अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया राज्य के मध्य बसे फोलसम नगर में वास करने वाले एक नितांत मासूम से भोले भाले प्रवासी भारतीय ने फ़ेसबुक पर बसंत के स्वागत में बनने वाले मीठे पीले ड्राई फ़्रूट एवं नरियर मिक्स चावलों का वर्णन पढ़ अपनी पत्नी से उन चावलों को पकाने हेतु आवेदन दिया। पत्नी ने भी तुरंत ऐसी किसी भी वस्तु के संसार में पकने की बात से अनभिज्ञता ज़ाहिर करते हुए उसकी रेसिपी न जानने की बात करते हुए आवेदन निरस्त कर दिया। इसके उपरांत बड़ी मेहनत और अनेक क्लिक के उपरांत वसंत के पीले चावलों की विधि अंतर्जाल पर ढूँढ कर पति ने स्वयं उन्हें बना कर अपना वसंत मनाया। ज्ञानीजन ठीक ही कह गए हैं कि वसंत आता नहीं उसे पकड़ के लाना पड़ता है। तभी एक नन्हें देवदूत को वाट्स अप पर निम्न कविता पढ़ते देखा तो लगा सचमुच बसंत आ गया।
ओढ़ दुसाला चंदा मामा, ठिठुर ठिठुर कर भए पजामा,
मौसम बदलावा जाई, बसंत का लावा जाई,
मामा का बचावा जाई, कविता रचावा जाई,
बढ़ियाँ से गावा जाई, नई नई दुल्हिन लावा जाई,
दुल्हिन का समुझावा जाई, चावल बनवावा जाई,
हम तुम खावा जाई, केहुक न खेवावा जाई।

वैलेंटाइन और भाईसाहब!



भाईसाहब सड़क किनारे के ढाबे पर बैठे बन बटर समोसा चबा रहे थे, हाथ में चाय का गिलास था, गिलास में उतनी ही चाय थी जिसके आधार पर ये कहा जा सके कि यह गिलास अभी खाली नहीं हुआ है और एक अंतिम चुस्की अभी और मारी जा सकती है। मुख के एक कोने में विल्स फ़िल्टर ब्रांड की सिगरेट भी शोभायमान हो रही थी। सिगरेट जल रही थी और उसके धुंए नें भाईसाब के चेहरे पर एक कोहरा सा मचा रखा था। भाईसाहब फोन पर किसी से बतिया भी रहे थे अथवा कोई फ़िल्मी गीत या अपने 'मन की बात' सुन रहे थे, क्योंकि काले काले चश्मे के पीछे से एक सफ़ेद सफ़ेद तार उनके कानों में जा रहा था। इन सभी गतिविधियों के साथ उनका चौकस ध्यान सड़क पर गुज़रने वाले प्रत्येक सजीव निर्जीव तत्व पर था। उनके चरण कमल किसी ड्रम बजाने बाले के पैरों की भांति एक लय में  धरती को ठकठका रहे थे। उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था मानो वैज्ञानिकों को मल्टी-प्रसेसिंग प्रणाली का विचार उनकी छवि निहार कर ही आया हो। तभी अचानक दूर से एक पीले सूट की झलक देख कर भाई साहब का पुर्जा पुर्जा टेस्ला मोटर हो गया, एक कौर में बचा हुआ बन मुंह में ठूंसा गया, एक घूँट में चाय गटकी गई, सिगरेट बुझी, कान से तार निकले, चरण थपथपावन बंद हुआ और झट से पैंट की जेब से कंघी निकाल कर उन्होंने अपनी ज़ुल्फ़ सँवारी। पीले सूट में व आ रही थीं जिन्हें भाई साहब पिछले वैलेंटाइन से अपने वैलेंटाइन के रूप में मान चुके थे। हांलाकि यह बात उनके कुछ घनिष्ठ मित्रों के अलावा किसी को पता नहीं थी। आज पुनः वैलेंटाइन डे था, भाईसाहब गुलाब का फूल भी लाये थे, करीने से अपनी टीशर्ट के ऊपर के बटन में फंसा रखा था, ताकि निकाल कर देने में आसानी हो।  वे निकट आ रही थीं, और भाईसाहब की हृदय गति, अच्छे दिनों में बनने वाली बुलेट ट्रेन की गति से भी ज़्यादा तेज़ हो चुकी थी। "यदि आज न हुआ तो कभी न हो पाई" वाली तर्ज पर उन्हें ये कदम उठाना ही था। और उन्होंने उठाया भी, वे कदम उठा कर देवीजी के सम्मुख पहुंचे और हड़बड़ाते हुए सीधे "आई लव यू" नामक मन्त्र जप दिया। देवी जी के हाव भाव से ऐसा लगा मानो उन्हें भी इस बात का अंदाजा था। उन्होंने बड़े परिष्कृत अंदाज़ में इस प्रेम प्रस्ताव को मित्रता प्रस्ताव में बदलते हुए पुष्प स्वीकार कर लिया। उस दिन के बाद से भाईसाहब कभी कार्ड के स्टोर में, कभी नकली गूची के शोरूम में, कभी टिकटों की लाइन में और कभी ग़ालिब की ग़ज़लों के साथ पाए जाते हैं। अब वे ढाबे पर चाय पीते नहीं दिखते। हमारे मंचों के प्रिय व्यंग्यकार माननीय संपत सरल जी ने ठीक ही कहा है कि, "वैलेंटाइन डे सोने का वो हिरन है जिसे तीर बेचने वाली कंपनी नें मार्किट में छोड़ रखा है'।

#व्यंग्यकीजुगलबंदी, #व्यंग्य, #vyangy

पुनः ब्याह रचाओगी

Jan 31, 2017

बीस बरस तक़रार के, एक सदी का प्यार,
यह अपने संबंध के, सब वर्षों का सार।
ग्यारह वर्ष हुए किन्तु ये लगता है,
मानो ग्यारह माह मात्र ही बीते हों,
ग्यारह माह भी कुछ ज्यादा ही लगते हैं,
मानो ग्यारह दिवस मात्र ही बीते हों,
ग्यारह दिवस न न न चंद घंटे केवल,
या मानो कि मिनट ग्यारह बीते हों,
ग्यारह सेकेंडों की ही गाथा लगती है,
जब तुमने अपनी वरमाला डाली थी,
लेकर हाथों में एक ताज़ा सुर्ख गुलाब,
अब भी मेरा मन करता है, मैं बोलूँ,
ओ मेरे बच्चों की प्यारी सी मम्मी,
क्या तुम मुझसे पुनः ब्याह रचाओगी।

भस्मासुर

पूरे छब्बीस साल से मौन बैठे हैं,
वे सभी,
जिन्हें ज़रा सी आहट पर,
सताने लगती है वैचारिकता की कब्ज़,
किसी के छींकने पर,
होने लगता है असहिष्णुता का भ्रम,
अग्रवाल कालेज में नहीं पढ़वाते हैं अपने बच्चों को,
न ही रुकते हैं महाराजा अग्रसेन के नाम पर बनी किसी धर्मशाला में,
योगा को जो समझते हैं,
ब्राह्मणों की साज़िश,
राम को समझते हैं,
सिर्फ क्षत्रियों का राजा,
बाबा रामदेव के हर उत्पाद को,
जो मिटा देना चाहते हैं उसकी जड़ से,
हाय जाति, हाय जाति करते इन लोगों को,
दिखाई नहीं देती,
अपने घर में रहने वाले,
कश्मीरी शरणार्थियों की पीड़ा,
उफ़! ये बुद्धिजीवी, वामपंथी और महान विचारक,
इस गर्त के ज़िम्मेदार ये भी हैं,
दलितों और मुसलामानों को चारा समझने वाले ये लोग,
मानव के रूप में साक्षात भस्मासुर हैं।