वैलेंटाइन और भाईसाहब!

Feb 12, 2017



भाईसाहब सड़क किनारे के ढाबे पर बैठे बन बटर समोसा चबा रहे थे, हाथ में चाय का गिलास था, गिलास में उतनी ही चाय थी जिसके आधार पर ये कहा जा सके कि यह गिलास अभी खाली नहीं हुआ है और एक अंतिम चुस्की अभी और मारी जा सकती है। मुख के एक कोने में विल्स फ़िल्टर ब्रांड की सिगरेट भी शोभायमान हो रही थी। सिगरेट जल रही थी और उसके धुंए नें भाईसाब के चेहरे पर एक कोहरा सा मचा रखा था। भाईसाहब फोन पर किसी से बतिया भी रहे थे अथवा कोई फ़िल्मी गीत या अपने 'मन की बात' सुन रहे थे, क्योंकि काले काले चश्मे के पीछे से एक सफ़ेद सफ़ेद तार उनके कानों में जा रहा था। इन सभी गतिविधियों के साथ उनका चौकस ध्यान सड़क पर गुज़रने वाले प्रत्येक सजीव निर्जीव तत्व पर था। उनके चरण कमल किसी ड्रम बजाने बाले के पैरों की भांति एक लय में  धरती को ठकठका रहे थे। उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था मानो वैज्ञानिकों को मल्टी-प्रसेसिंग प्रणाली का विचार उनकी छवि निहार कर ही आया हो। तभी अचानक दूर से एक पीले सूट की झलक देख कर भाई साहब का पुर्जा पुर्जा टेस्ला मोटर हो गया, एक कौर में बचा हुआ बन मुंह में ठूंसा गया, एक घूँट में चाय गटकी गई, सिगरेट बुझी, कान से तार निकले, चरण थपथपावन बंद हुआ और झट से पैंट की जेब से कंघी निकाल कर उन्होंने अपनी ज़ुल्फ़ सँवारी। पीले सूट में व आ रही थीं जिन्हें भाई साहब पिछले वैलेंटाइन से अपने वैलेंटाइन के रूप में मान चुके थे। हांलाकि यह बात उनके कुछ घनिष्ठ मित्रों के अलावा किसी को पता नहीं थी। आज पुनः वैलेंटाइन डे था, भाईसाहब गुलाब का फूल भी लाये थे, करीने से अपनी टीशर्ट के ऊपर के बटन में फंसा रखा था, ताकि निकाल कर देने में आसानी हो।  वे निकट आ रही थीं, और भाईसाहब की हृदय गति, अच्छे दिनों में बनने वाली बुलेट ट्रेन की गति से भी ज़्यादा तेज़ हो चुकी थी। "यदि आज न हुआ तो कभी न हो पाई" वाली तर्ज पर उन्हें ये कदम उठाना ही था। और उन्होंने उठाया भी, वे कदम उठा कर देवीजी के सम्मुख पहुंचे और हड़बड़ाते हुए सीधे "आई लव यू" नामक मन्त्र जप दिया। देवी जी के हाव भाव से ऐसा लगा मानो उन्हें भी इस बात का अंदाजा था। उन्होंने बड़े परिष्कृत अंदाज़ में इस प्रेम प्रस्ताव को मित्रता प्रस्ताव में बदलते हुए पुष्प स्वीकार कर लिया। उस दिन के बाद से भाईसाहब कभी कार्ड के स्टोर में, कभी नकली गूची के शोरूम में, कभी टिकटों की लाइन में और कभी ग़ालिब की ग़ज़लों के साथ पाए जाते हैं। अब वे ढाबे पर चाय पीते नहीं दिखते। हमारे मंचों के प्रिय व्यंग्यकार माननीय संपत सरल जी ने ठीक ही कहा है कि, "वैलेंटाइन डे सोने का वो हिरन है जिसे तीर बेचने वाली कंपनी नें मार्किट में छोड़ रखा है'।

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