चल पड़ा है नया साल घर से सुनो...

Dec 31, 2008

बहुत डरता हुआ,  सकपकाता हुआ,
थोड़ा चलता अधिक लड़खडाता हुआ,
अपने मुंह को ज़रा सा छुपाता हुआ,
चल पड़ा है नया साल घर से सुनो,
 
उसको मालूम हैं आठ के ठाठ भी,
बम से गोली तक उसने पढ़े पाठ भी,
हाथ में है लिए उल्लू भी काठ भी,
चल पड़ा है नया साल घर से सुनो,
 
तुम हंसो तालियां भी बजाओ ज़रा,
नाचो, फिल्मी वो गाना भी गाओ ज़रा,
फोटो खिंचनी है अब मुस्कुराओ ज़रा,
चल पड़ा है नया साल घर से सुनो,
 
नौ में नौ मन यहाँ तेल हो जायेगा,
राधा नाचेगी सब खेल हो जायेगा,
कृष्ण का विप्र से मेल हो जायेगा,
चल पड़ा है नया साल घर से सुनो...
 
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Abhinav Shukla
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बड़े दिन की शुभकामनाएं; लीजिये सिएटल से हिन्दी का गिफ्ट

Dec 25, 2008



आप इस लिंक पर जाकर यह वीडियो बनाने वालों को अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करा सकते हैं.

यह विडियो भेजने के लिए रिपुदमन जी को धन्यवाद्.



एक संस्मरण तथा ब्लॉग वार्ता

Dec 24, 2008

भाई गौतम राजरिशी जी नें ये सूचना दी की 'निनाद गाथा' पर प्रेषित एक कविता की चर्चा रवीश कुमार जी नें ब्लॉग वार्ता में करी है. उन्होंनें ही समाचार पत्र का यह भाग स्कैन कर के भेजा. अतः उनको धन्यवाद् देते हुए यह पोस्ट कर रहा हूँ.

अपना नाम समाचार पत्र में पढ़ना किसे अच्छा नहीं लगता है. मुझे याद है जब पहली बार बरेली के किसी पत्र में नाम छपा था तो कई दिनों तक हास्टल में भौकाल बना रहा था. बात ये थी की सुविधाओं की कमी के चलते छात्र हड़ताल पर थे और हमनें इसी पर एक कविता लिखी थी जिसको हमारे एक मित्र नें अपने सुंदर हस्तलेख में लिख कर उसकी बड़े साइज़ में फोटोकापी निकाली. फिर वह कविता पूरे विश्विद्यालय परिसर में चिपकाई गई थी. उस कविता की कुछ पंक्तियों का बैनर भी बना था. उस समय हमारा कवि मार सिहाया सिहाया घूम रहा था. सुरक्षा कारणों से कहीं भी कवि का नाम नहीं छापा गया था. पर न जाने समाचार पत्र वाले कहाँ से पता लगा लेते हैं. अखबार में छपा की, 'युवा छात्र नेता एवं कवि अभिनव शुक्ल की निम्न पंक्तियों का बैनर लिए हुए इंजीनिरिंग कालेज के छात्र हड़ताल कर रहे हैं.' अखबार देख कर हम अभी खुश होना शुरू ही हुए थे की थोडी ही देर में सारी खुशी हवा हो गई. डाइरेक्टर महोदय का बुलावा आ गया और कालेज से निकाले जाने की बात होने लगी. वो दिन और आज का दिन हमारी किसी और कविता का बैनर हड़ताल हेतु नहीं बनाया गया. इस घटना के चलते अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् एवं एन एस यु आई के लोग अलग अलग आकर हमसे मिले और छात्रों पर होने वाले अत्याचारों का बदला लेने हेतु हमें उनके झंडे तले आने को कहा. पर भाई वो तो घर की बात थी अतः बाहर के बड़े लोगों से दूर रहने में ही भलाई समझी गई. वो कविता पूरी याद नहीं है पर कुछ पंक्तियाँ ध्यान में आ रही हैं;

ज़िन्दगी के साथ ये दरियादिली काफ़ी हुयी,
अब तमाशों में तमाशा बन के रहना छोड़ दो,
जंग का ऐलान करने का समय है दोस्तों,
इस तरह हर ज़ुल्म को चुपचाप सहना छोड़ दो.

खैर, रवीशजी तो बढीया लिखते ही हैं और उन्होंनें हमारी इस कविता को ब्लॉग वार्ता में स्थान दिया ये देख कर हर्ष हुआ. आशा है की आगे भी इसी प्रकार हमारी कविताओं को उनके कालम में, चिटठा चर्चा में और भी जहाँ जहाँ कुछ लिखा जा रहा है वहां वहां जगह मिलती रहेगी. इसी शुभ भावना के साथ फिर मिलेंगे, नमस्कार. ;-)

हिमपात हो रहा है - एक तुकबंदी

Dec 23, 2008

इधर सिएटल में खूब बरफ पड़ी है. सारा माहौल हिममय हो गया है. इसी पर कुछ तुकबंदी हुयी है;
 
अपने इधर के मौसम, कुछ यूँ बदल रहे हैं,
हिमपात हो रहा है, आलाव जल रहे हैं,
 
बादल नें बिजलियों से अपनी कमर कसी है,
सूरज के सातों घोड़े बच कर निकल रहे हैं,
 
सड़कों पे चल रही है, दुनिया संभल संभल कर,
ज़्यादा संभलने वाले, ज़्यादा फिसल रहे हैं,
 
उजली सफ़ेद चादर, हर और बिछ गई है,
पेडों की पत्तियों के, आंसू निकल रहे हैं,
 
कमरे के हीटरों की औकात बढ़ गई है,
चाय की प्यालियों के किस्से उबल रहे हैं,
 
कल ये बरफ गलेगी, कल ये उगेगा सूरज,
कल ठीक होगा सबकुछ, अरमान पल रहे हैं.
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Abhinav Shukla
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अरुंधती पर लिखी कविता पर कविवर राकेश खंडेलवाल एवं भारतभूषण की प्रतिक्रियाएं

Dec 22, 2008

अरुंधती पर लिखी कविता पर मुझे अनेक टिप्पणियां प्राप्त हुयीं. प्रिय मित्र भारतभूषण नें तथा कविवर राकेश खंडेलवाल जी नें अपनी टिप्पणियां व्यक्तिगत मेल द्वारा भेजीं. मुझे दोनों टिप्पणियां रोचक लगीं अतः उन्हें यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ.

राकेश जी नें कविता की निम्न पंक्ति को रेखांकित करते हुए अपने विचार व्यक्त किए हैं;
'अभी मेरे पास तुम्हारे सवालों का जवाब नहीं है'

आज तुम्हारे पास प्रश्न का उत्तर नहीं ? कहो कल था क्या,
आज नाम जो देते मुझको, क्या ये सब कल कहा नहीं था,
कहते हो तुम जानते सभी कुछ, तो क्यों महज भुलावा देते,
और आज यह पक्ष बताना, कल भी कहो नहीं था यह क्या,

भ्रांति तुम्हें है तुम सशक्त हो, भीरु मगर हो अंन्तर्मन में,
केवल बातें कर सकते हो, कब तलवार उठी है कर में,
बातों के तुम रहे सूरमा, चलो और कुछ भाषण दे लो,
लहरें नहीं उठा करती हैं, सूखे हुए कुंड के जल में.

- राकेश खंडेलवाल
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भारतभूषण नें अपने क्लासिक अंदाज़ में टांग खींचने का प्रयास किया है;

सुनो अभिनव
तुम मेरे दोस्त हो
हमने काफी समय साथ गुज़ारा है
और
कुछ मतभेदों के बावजूद
मैं तुम्हारी काव्य-प्रतिभा
का कायल हूँ
अरुंधती के बारे में
हमने कई बार बहस की है
उसके निष्कर्षों से सहमत न होना
नितांत स्वाभाविक है
मेनस्ट्रीम के कहकहों में
हाशिये का रोना भी क्या रोना
डैम और बम के विरोध का क्लासिफिकेशन=सेडिशन
आई एस आई की एजेन्सी
या डीलरशिप मिले बिना
मुंबई,गुजरात और कश्मीर का त्रिकोण
भला कौन खींचेगा
और पिट्ठू द्वारा पश्चिम के गढ़ में
स्तुति-सुमनों का वर्षाव भी क्या खूब!
बुकर पुरस्कार, लानन फाउंडेशन पुरस्कार
और पुस्तकों की रायल्टी से अर्जित
लगभग दो करोड़ रुपयों की राशि को
संगठनों, संस्थाओं, आन्दोलनों, व्यक्तिओं,नाट्य समूहों
यानी दीगर देशद्रोहियों , पश्चिम के पिट्ठूओं और एजेंटों
में बाँट देना
लालच की पराकाष्ठा है!
'आर्म-चेयर' साहित्य सृजन
के दौर में
एक्टिविस्ट-लेखक होना
सचमुच वल्गर है
और हाँ, अरुंधती की भाषा,
उसकी शैली
इन्सिडेन्टल है
जिसके प्रभाव से मुक्त होने में
तुम्हें ज्यादा देर नहीं लगेगी.

- भारतभूषण तिवारी
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और भी अनेक टिप्पणियां प्राप्त हुयी हैं कुछ में गुस्सा है तो कुछ में समर्थन. सभी का धन्यवाद् देते हुए मैं बस इतना कहना चाहूँगा की;

लिखा वही है जो कुछ मेरे इस मन नें महसूस किया है,
सीधी सरल बात बोली है कोई लाग लपेट नहीं है,
अपनी कमियों का अंदाजा है इस 'आर्म-चेयर' कवि को,
पर भावों के ऊपर रखा कोई पेपर वेट नहीं है.

अरुंधती, तुम मुझे बुरी नहीं लगती हो

Dec 19, 2008


सुनो अरुंधती,
तुम मुझे बुरी नहीं लगती हो,
बल्कि, एक समय तो मैं तुम्हारा फैन भी रहा हूँ,
तुम्हारी भाषा,
तुम्हारी शैली,
तुम्हारे निबंध,
उन निबंधों में प्रस्तुत तथ्य,
उन तथ्यों में छिपा हुआ सत्य,
उन सत्यों का विवेचन,
निष्कर्षों तक पहुँचने का तुम्हारा तरीका,
सब मुझे भाता है,
पर क्या करुँ,
मेरा मन तुम्हारे निष्कर्षों से मेल नहीं खाता है,
मेरा विश्वास है,
की आज नहीं तो कल,
मैं नहीं तो कोई और,
तुम्हारी ही भाषा में,
तुम्हारी ही शैली में,
उन्हीं तथ्यों, सत्यों और विवेचनों के साथ,
तुम्हे उत्तर देगा,
और तुम वो लिखने लगोगी,
जो और अधिक सत्य हो,
पर,
अभी मेरे पास तुम्हारे सवालों का जवाब नहीं है,
अतः, मैं तुमको देशद्रोही,
पश्चिम का पिट्ठू,
लालची,
आई एस आई की एजेंट,
और भी बहुत कुछ कह कर,
अपनी भड़ास निकाल रहा हूँ,
आशा है तुम स्वस्थ्य एवं प्रसन्न होगी,
अपने सभी मित्रों से मेरा नमस्कार कहना,
सुनो अरुंधती,
तुम मुझे बुरी नहीं लगती हो.

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जूता ऑन बुश, दुनिया खुश - एक जूतात्मक लेख

Dec 17, 2008


एक इराकी पत्रकार नें बुश पर जूता चला कर भले ही अचानक संसार का ध्यान अपनी और आकर्षित कर लिया हो परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि जूता चलाने कि कला पर इराक वालों का पेटंट हो गया हो.  हम भी जूता चलाना जानते हैं. अभी कुछ दिनों पहले ही हमने जूते मार मार कर तसलीमा नसरीन को देश से बाहर कर दिया था. ये अलग बात है की हम जूते के साथ कुर्सी मेज़ और गुलदान भी फ़ेंक रहे थे, क्योंकि तसलीमा का अपराध बुश से अधिक जघन्य था.
 
कोई बड़ी बात नहीं है की बुश के समर्थन में भी भारत में कोई बैठक हो जिसमें उनके जूते से बचने की फुर्ती का श्रेय जेम्स बांड की फिल्मों को दिया जाए. एक मिनट को सोचिये की यदि यह जूता बुश की बजाय अपने किसी बड़े नेता पर चला होता तो कैसा दृश्य होता.  जूता हमारे मान्य मंत्री महोदय को मिस न कर पाता, शरीर के किसी न किसी भाग को तो छू ही जाता. हमारी पुरातन संस्कृति के विस्तार की ही भांति हमारे शरीरों का विस्तार भी दूर दूर तक है..  जूता खाने के बाद या तो मंत्री बेहोश हो जाता या फिर ऐसा आचरण करता की मानो कुछ हुआ ही न हो. यह मंत्री महोदय का पहला जूता न होता अतः उनके पास जूते से निपटने का प्लान पहले से तैयार होता. यदि चुनाव पास होते तो जूता मारने वाले को मंच पर बुला कर उसका स्वागत भी किया जा सकता था. अगले दिन समाचार पत्र में जूता मारने वाले के साथ गले में बाहें डाले मंत्री जी का चित्र छपता.  आवश्यकता पड़ने पर जूता खाने के बाद एक जूता समिति का गठन होता जिसकी जांच लंबे समय तक चलती.
 
खैर, बुश के जूता खाने से सभी खुश हैं. जिन्होंने मारा वो इसलिए खुश हैं की देखो मारा, और बाकी इसलिए खुश हैं की देखो बच गए, लगा ही नहीं.
 
जब जूते की चर्चा चल ही रही है तो गुरु मन तो हमारा भी है कि चित्रकार एम् ऍफ़ हुसैन को दो जूते सम्मानपूर्वक धर दिए जाएँ. सुना है वो नंगे पैर रहते हैं, इस बहाने उनको जूते मिल भी जायेंगे और हमको भी तसल्ली हो जायेगी की हमने भी दिल की भड़ास निकाल ली.  वैसे जूते से न तो बुश सुधरेंगे और न ही हुसैन.
 
अच्छी कोशिश थी,
मगर चलो कोई बात नहीं,
गैंडे की खाल पे,
जूतों का असर क्या होगा.
 
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रिश्तों का रीचार्ज

Dec 11, 2008



सुबह उठे,
सन्डे का दिन था,
पत्नी बोली अपना कमरा साफ़ करो तुम,
ऐसा लगता है मानो ये,
किसी कबाडी का कमरा हो,
या फिर मानो ग्रीन रूम हो,
किसी पुराने से थिएटर का,
मेरी चाचीजी कल घर आने वाली हैं,
उनके आगे कह देती हूँ,
सुन लो ये सब नहीं चलेगा,
गृह मंत्री का उद्बोधन सुन,
अलसाते से उठे,
किताबें ज़रा समेटीं,
कागज़ पत्तर हिला दुला कर,
इस कोने से उन्हें उठा कर,
उस कोने पर रखा और फिर,
उन पर एक सुंदर सा डिब्बा,
डिब्बे पर सुंदर सी चादर,
चादर पर गुलदान सुनहरा,
जिसमें नारंगी काग़ज़ के,
सुंदर सुंदर फूल लगाये,
ये कोना तो ठीक हो गया.
 
लेकिन अब ये अलमारी है,
अलमारी क्या पूरी दुनिया बसी हुयी है,
तरह तरह की इसमें चीज़ें ठुंसी हुयी हैं,
चलूँ ज़रा इनको भी देखूं,
अभी, पाँच बरस पहले ही तो इस अलमारी को साफ़ किया था,
अरे ये क्या!
ये तो बहुत पुराना फ़ोन है मेरा,
आन करुँ और देखूं इसको,
मैंने दोनों फ़ोन उठाये,
एक हाथ में नया फ़ोन,
और एक हाथ में फ़ोन पुराना,
एक एक कर मैंने दोनों फोनों के सब नंबर देखे,
नए फ़ोन में जो नंबर हैं उनका मुझको अंदाजा है,
कुछ नंबर हैं उनके जिनसे काम पड़ा था,
कुछ नंबर हैं उनके जिनसे काम पड़ेगा,
कुछ नंबर तो बड़े ही नामी और गिरामी लोगों के हैं,
जिनका नंबर होने भर से फ़ोन की इज्ज़त बढ़ जाती है,
कुछ उन कवियों के नंबर हैं,
जिनको लगता है की मैं कोई आयोजक हूँ,
और हैं कुछ उन कवियों के,
जो मुझको आयोजक लगते हैं.

नंबर नंबर देख लिया है,
नंबर के इस सागर में केवल,
तीन चार नंबर ऐसे हैं,
जो दोनों ही फोनों में हैं,
एक मेरी पत्नी का नंबर,
एक है माता और पिता का,
एक मेरे छोटे भाई का,
फ़ोन न हो तो ये नंबर भी दूर ही रहते,
क्योंकि मुझको इनके नंबर याद नहीं हैं,
मुझको ऐसा लगता है की,
अब उनको भी,
मेरा नंबर याद नहीं है.
 
मेरे पुराने फ़ोन के भीतर,
बहुत दोस्तों के नंबर थे,
दोस्त तो मेरे अपनों से ज़्यादा अपने थे,
दोस्त वो जिनके साथ कभी देखे सपने थे,
उनमें से तो एक भी नंबर,
नए फ़ोन के पास नहीं है,
शायद धीरे धीरे करके सबके नंबर बदल गए हों,
कुछ कुछ मैं भी बदल गया हूँ,
कुछ कुछ वो भी बदल गए हों.
मेरा पुराना फ़ोन नोकिया का था,
सबसे सस्ता माडल,
मेरे पास अब आई फ़ोन है,

चलूँ एक दो नंबर डायल कर के देखूं,
शायद कोई फ़ोन उधर से उठ ही जाए,
शायद कोई पहचाने और मुझे बताये,
उसके नए फ़ोन में मेरा नंबर है क्या,
उसने फ़ोन पुराना कभी टटोला है क्या,
उसने भी क्या रिश्तों को रीचार्ज किया है,
या उसने भी जीवन मेरी तरह जिया है.
 
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Abhinav Shukla
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एक स्वाभिमानी गीत - भला लिखूं बुरा लिखूं

Dec 10, 2008

भला लिखूं बुरा लिखूं,
ये न सोचूं कि क्या लिखूं,
उजालों को लिखूं दहशत,
अंधेरों को ख़ुदा लिखूं,
बस इतनी सी तमन्ना है ज़रा सा काम हो जाए,
बड़े कवियों की टोली में मेरा भी नाम हो जाए,
लगें कविताएँ मेरी सारी कोरस की किताबों में,
बहुत से पत्र आयें मेरी रचना के जवाबों में,
मुझे कविता सुनानी है बड़े से मंच पे चढ़ कर,
गले का हार लेना है ज़रा रुक कर ज़रा बढ़ कर,
रहूं शामिल प्रपंचों और शब्दों की कुटाई में,
मेरी तो जान अटकी है लिफाफे की मुटाई में,
यदि मुझको मिले दौलत तो मैं ये काम भी कर दूं,
करूं तेज़ाब शबनम को,
ज़हर को ही दवा लिखूं,
उजालों को लिखूं दहशत,
अंधेरों को ख़ुदा लिखूं,
 
पढूं दिनकर को बच्चन को ज़रूरत क्या भला मुझको,
शरद, परसाई का कूड़ा क्या देगा हौसला मुझको,
अमां कोहली को पढ़ कर क्या मुझे श्री राम बनना है,
पढूंगा सिर्फ़ वो जिससे की मेरा काम बनना है,
अगर ग़लती हो छंदों में तो चलती है नया युग है,
बहर टूटी भी गज़लों में मचलती है नया युग है,
मेरे गीतों को फिल्मों में जगह मिल जाए जल्दी से,
पुरुस्कारों की देवी भी इधर मुस्काय जल्दी से,
इशारा तो करें सम्मान कोई मुझको देने का,
लिखूं चालीसा नेताजी की,
थु थू को वाह वा लिखूं,
भला लिखूं बुरा लिखूं,
ये न सोचूं कि क्या लिखूं,
उजालों को लिखूं दहशत,
अंधेरों को ख़ुदा लिखूं.
 

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बहुत पानी बरसने से नदी में बाढ़ आती है

Dec 7, 2008

तुम्हारे प्यार की बरसात भी मुझको डराती है,
बहुत पानी बरसने से नदी में बाढ़ आती है,
 
शराफत नें हमारा साथ कुछ ऐसे ही छोड़ा है,
कोई बिटिया ज्यों अपने मायके को छोड़ जाती है,
 
वही इन्सां वही झगड़े कहाँ का वक्त बदला है,
घड़ी भी देखो, ले दे कर वही टाइम बताती है,
 
कहीं भी हम रहें सब दूर से पहचान लेते हैं,
हमारे माथे पर अब तक ये मिट्टी जगमगाती है,
 
सरल लिखना बहुत मुश्किल हमें मालूम होता है,
न जाने कौन सी भाषा में कोयल गीत गाती है.
 
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Abhinav Shukla
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