एक कविता - सूर्य, ग्रहण और मानव

Jul 23, 2009

मिहिर, भानु, आदित्य, दिवाकर,
दिनकर, रवि, मार्तंड, प्रभाकर,
पद्मिनिकांत, दिव्यांशु, नभश्चर,
अरणी, द्युम्न, अवनीश, विभाकर

आदिदेव, ग्रहराज, दिवामणि,
छायानाथ, अरुण, कालेश,
ध्वान्तशत्रु, भूताक्ष, त्रयीतन,
वेदोदय, तिमिरहर, दिनेश,

पुष्कर, अंशुमाली, प्रत्यूष,
सूर्य देव के नाम अनेक,
सघन ऊष्मा है शब्दों में,
अनुभव कर देखो प्रत्येक,

निस बासर रहता है मानव,
इसके आगे घुटने टेक,
ग्रहण लग रहा आज जगत में,
दुनिया आज रही है देख.

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Abhinav Shukla
206-694-3353
www.kaviabhinav.com

मसखरा कवि से अधिक प्रणम्य है

Jul 21, 2009


अमिताभ जी बहुत बढ़िया लिखते हैं. इसका एक बड़ा प्रमाण ये है  कि आज सुबह जब मैंने उनकी ग़ज़ल 'माना मंचों का सेवन...' पढ़ी तो अपने मन के भावों को उतारे बिना नहीं रह पाया. ये मेरे नितांत निजी भाव हैं, किसी का इनसे सहमत या असहमत होना स्वाभाविक है. पर मुझे लगता है की जब तक हम कविता हो सरलता और संप्रेषण की दृष्टि से सुगम नहीं बनायेंगे तब तक बात बनेगी नहीं. क्या कारण है की राजू श्रीवास्तव की बात सारा ज़माना समझ जाता है ?

 

क्या केवल मन की पीड़ा बोझिल शब्दों में,
काग़ज़ पर बिखरा देना कविता होती है,
या कोई सन्देश बड़े आदर्शों वाला,
ज़ोर ज़ोर से गा देना कविता होती है,

 

वैसे भी भाषाओं पर संकट भारी है,
इस पर बोझ व्यंजनाओं का लक्षणाओं का,
अभिधा की गलियों से भी होकर जाता है,
मिटटी से जुड़ने वाला इक गीत गाँव का,

 

मंचों पर जो होता है वो नया नहीं है,
बड़े बड़े ताली की धुन पर नाच रहे हैं,
और लिफाफे का सम्बन्ध है अट्टहास से,
हम ही क्यों धूमिल की कापी जांच रहे हैं,

 

बात ठीक है इसमें कुछ संदेह नहीं है,
कवि में और विदूषक में होता है अंतर,
किन्तु वह मसखरा कवि से अधिक प्रणम्य है,
जिसकी झोली में है मुस्कानों का मंतर.

 

- (कवि या विदूषक) अभिनव

अमेरिका की सिएटल नगरी में हुई हिंदी कवियों की श्रद्धांजलि सभा


संयुक्त राज्य अमेरिका की सिएटल नगरी में आचार्य विष्णु प्रभाकर, आचार्य रामनाथ सुमन, पंडित छैल बिहारी वाजपेयी 'बाण', कविवर ओमप्रकाश आदित्य, कविवर अल्हड़ बीकानेरी, कविवर लाड़ सिंह गुज्जर, कविवर ओम व्यास ओम एवं कविवर नीरज पुरी की स्मृति में एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया. कार्यक्रम के प्रारंभ में सभी रचनाकारों के नाम के दीप प्रज्ज्वलित किये गए. तदुपरांत सभा में उपस्थित लोगों नें अपने संस्मरण सुनाये. जयपुर से पधारे साहित्य के मूर्धन्य आलोचक डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल नें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए इन सभी रचनाकारों के जाने को एक अपूरणीय क्षति बताया. उन्होंने विष्णु प्रभाकर के कृतित्व पर प्रकाश डाला और अल्हड़ बीकानेरी के साथ गुजारे हुए समय को भी याद किया. कानपुर से पधारे कवि डॉ कमल शंकर दवे नें अपने कवि सम्मेलनीय संस्मरण सुने हुए इन रचनाकारों को अपने श्रद्धासुमन अर्पित किये. सिएटल नगरी के सुप्रसिद्ध कवि राहुल उपाध्याय नें इन रचनाकारों को श्रद्धांजलि देते हुए इनके जाने को दुर्भाग्यपूर्ण बतलाया. अभिनव शुक्ल नें भी इन रचनाकारों को नमन किया तथा अपने संस्मरण सुनाये. भारतीय साहित्य के इन नए पुराने लेखकों और कवियों को याद करते हुए सभी नें दो मिनट का मौन रखा.
कार्यक्रम के अंत में एक काव्य गोष्ठी हुई जिसमें संतोष कुमार पाल, राहुल उपाध्याय, सलिल दवे, अभिनव शुक्ल एवं डॉ कमल शंकर दवे नें अपनी रचनाओं का पाठ किया. कार्यक्रम का संचालन अभिनव शुक्ल नें किया.



स्मृति शेष - कलम के सिपाही - सिएटल - रविवार १९ जुलाई २००९

Jul 15, 2009

भारतीय साहित्य जगत को पिछले कुछ महीनों में जो आघात पहुंचे हैं वे बड़े गहरे हैं. साहित्य ऋषि विष्णु प्रभाकर के देहवसान के एक सप्ताह के भीतर संस्कृत के परम विद्वान आचार्य रामनाथ सुमन के जाने का समाचार आया. अभी साहित्य संसार प्रातः स्मरणीय सायं वन्दनीय आचार्य रामनाथ सुमन जी के परमधाम गमन के शोक से उबारा ही नहीं था कि वीर रस के प्रख्यात कवि छैल बिहारी वाजपेयी 'बाण' के जाने की सूचना प्राप्त हुई. जब तक काव्य मंचों पर पड़ी ये काली छाया टलती, भोपाल के पास एक कार दुर्घटना हुई जिसमें हास्य सम्राट ओमप्रकाश आदित्य, लाड़ सिंह गुर्जर और नीरज पुरी भी माता सरस्वती की गोद में चले गए. फिर अल्हड़ बीकानेरी जी के देहवसान की सूचना प्राप्त हुई और अभी कुछ देर पहले फ़ोन पर बजने वाली दुर्दांत रिंगटोन नें ओम व्यास ओम के जाने का समाचार सुनाया है. ओम व्यास एक महीने तक मृत्यु से साथ संघर्ष करते रहे और अंततः हम सबको छोड़ कर चले गए. जीवन की नश्वरता और क्षणभंगुरता का भान किसे नहीं होता. पर यह भान सदा कहीं छिपा सा रहता है. हमको ऐसा लगता है कि जो हमारे परिचित हैं हमारे प्रिय हैं उनका कुछ बुरा नहीं हो सकता और जब एक के बाद एक इस प्रकार की सूचनाएं आती हैं तो हृदय आघात सहने का अभ्यस्त सा होने का प्रयास करने लगता है. इन महानुभावों के गमन ने हिंदी साहित्य जगत में एक ऐसी रिक्तता भर दी है जिसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकेगी.

हिंदी साहित्य की इन विभूतियों को श्रद्धांजलि देते हुए अमेरिका की सिएटल नगरी में एक छोटा सा कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है. आप सादर आमंत्रित हैं.

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दिनांक: १९ जुलाई २००९, रविवार
समय: दोपहर २:०० बजे
स्थान: अभिनव शुक्ल का निवास
पता: ११०० यूनिवर्सिटी स्ट्रीट, अपार्टमेन्ट ८ ई, सिएटल, वॉशिंग्टन, यु एस ए ९८१०१
फ़ोन: २०६-६९४-३३५३ (अभिनव), ४२५-८९८-९३२५ (राहुल)
ई-मेल: shukla_abhinav@yahoo.com
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कार्यक्रम:
१. श्रद्धांजलि: स्मृति शेष - कलम के सिपाही (२:०० - ३:००)
- आचार्य विष्णु प्रभाकर
- आचार्य रामनाथ सुमन
- पंडित छैल बिहारी वाजपेयी 'बाण'
- कविवर ओमप्रकाश आदित्य
- कविवर अल्हड़ बीकानेरी
- कविवर लाड़ सिंह गुज्जर
- कविवर ओम व्यास ओम
- कविवर नीरज पुरी
२. डाक्टर दुर्गाप्रसाद अग्रवाल (जयपुर) के संस्मरण. (३:०० - ४:००)
३. डाक्टर कमल शंकर दवे (कानपुर) के संस्मरण (४:०० - ५:००)
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आचार्य रामनाथ सुमन

Jul 12, 2009

नश्वर है यह देह अनश्वर अपने आत्माराम हैं,
जिनकी इच्छा बिना न जग में पूरे होते काम हैं,

हमको प्रभु नें भेजा देखो हमनें जीवन खूब जिया,
अच्छा पहना अच्छा गहना अच्छा खाया और पिया,
हम जग में रोते आये थे हंसते अपनी कटी उमर,
हमने राह गही जो अपनी वह औरों को बनी डगर,
हम उपवन के वही सुमन जो खिलते आठों याम हैं,

नश्वर है यह देह अनश्वर अपने आत्माराम हैं,
जिनकी इच्छा बिना न जग में पूरे होते काम हैं,

हम वाणी के अमृत पुत्र हैं, स्वाभिमान के वंशज हैं,
दिनकर अपने घर जन्मा है, हम देवों के अंशज हैं,
किसमें हिम्मत है हमसे जो आँख मिलाये धरती पर,
हम युग के इश्वर हैं बोलो कौन जिया जमकर जी भर,
मुट्ठी में आकाश हमारे हम वसुधा के शाम हैं,

नश्वर है यह देह अनश्वर अपने आत्माराम हैं,
जिनकी इच्छा बिना न जग में पूरे होते काम हैं,

अंतिम चाह यही है पीढी आने वाली खूब फले,
संस्कृति संस्कारों में पलकर चिरजीवी हो बढ़ी चले,
इससे हो सम्मान राष्ट्र का भारत मां का मान बढे,
इसे समर्पित यश है पताका अब हम तो हैं पके ढले,
शायद अब आ गया बुलावा जाना प्रभु के धाम है,

नश्वर है यह देह अनश्वर अपने आत्माराम हैं,
जिनकी इच्छा बिना न जग में पूरे होते काम हैं.

- आचार्य रामनाथ सुमन

दिल में जो समंदर है

Jul 10, 2009


धरती को ये पता है चाँद उससे दूर है,
दिल में जो समंदर है उफनता ज़रूर है,

होते ही रात दूर से आती है चांदनी,
हर राह पे, हर मोड़ पे, छाती है चांदनी,
यूँ तो बड़ी मासूम कहती है चांदनी,
शीतल है मगर आग लगाती है चांदनी,
तुम भी कभी देखो ज़रा सा इसमें नहा कर,
ये चांदनी है या ये खुदाई का नूर है,
दिल में जो समंदर है उफनता ज़रूर है.

दूरी ये जिस्म की कोई दूरी तो नहीं है,
पर अपनी कहानी अभी पूरी तो नहीं है,
हो सामने तस्वीर ज़रूरी तो नहीं है,
है बात अधूरी सी, अधूरी तो नहीं है,
चंदा की खूबसूरती ही बेमिसाल है,
धरती को प्यार हो गया किसका कसूर है,
दिल में जो समंदर है उफनता ज़रूर है.

स्वीकार तुम कर लो यदि...


संसार की सारी दिशाएं नृत्य अनुपम कर उठें,
मन्दिर की बुझती दीपिकायें टिमटिमा कर जल उठें,
झरने से झरता गीत भी थम जाए पल भर के लिए,
स्वीकार तुम कर लो यदि प्रस्ताव मेरे प्रेम का,

यह कंटकों की सेज फूलों से बनी चादर लगे,
विशकुम्भ ये पीड़ाओं का अमृत भरी गागर लगे,
सूरज की तपती धूप शीतल चांदनी सा नेह दे,
बाहों में तुम भर लो यदि ये गाँव मेरे प्रेम का,
स्वीकार तुम कर लो यदि प्रस्ताव मेरे प्रेम का,

रेत के सागर में खिल जाएँ बगीचे पुष्प के,
अश्रुओं से भीग जाएँ अधर मेरे शुष्क से,
दुर्गम हिमालय जीतना विचरण लगे बस सांझ का,
बन जाए तीरथ पुण्य ये भटकाव मेरे प्रेम का,
स्वीकार तुम कर लो यदि प्रस्ताव मेरे प्रेम का.

कब भला संन्यास छूटेगा तुम्हारा

Jul 9, 2009


रेत मुट्ठी से फिसलती जा रही है,
लौटने को है लहर छूकर किनारा,
चन्द्रमा की सौम्य किरणें पूछती हैं,
कब भला संन्यास छूटेगा तुम्हारा.

मौन रहने का अनूठा प्रण लिए हो,
बंद खिड़की और दरवाज़े किये हो,
स्वयं से छिपते, स्वयं को खोजते हो,
सत्य, मिथ्या, प्रेम, निष्ठा सोचते हो,
घुल चुका जिसमें सृजन का गीत अनुपम,
कब भला वो बोल फूटेगा तुम्हारा.

स्वप्न  भी कितने अधूरे अधबने हैं,
मन की पूछो बात तो हम अनमने हैं,
दर्द नें अब दोस्ती कर ली दवा से,
छत पे जलता दीप कहता है हवा से,
कब मिटेंगी दूरियां, कब हम मिलेंगे,
कब भला ये धैर्य टूटेगा तुम्हारा,

तूलिका से रंग का अनुराग हो तुम,
कृष्ण की वंशी का मधुरिम राग हो तुम,
झुंड से भटके हिरण सी है चपलता,
नैन में नटखटपना मुख पर सरलता,
जो सकल व्यक्तित्व आकर्षण भरा है,
वो भला क्यों चैन लूटे न हमारा,

इस ह्रदय के गीत की तुम गायिका हो,
ज़िन्दगी के मंच की तुम नायिका हो,
कुछ कंटीली, कुछ सुनहरी रहगुज़र है,
कष्ट सह कर मुस्कुराने का हुनर है,
ईश्वर का अंश है तुममें समाहित,
चाहता हूँ भक्त बन जाऊं तुम्हारा.

रेत मुट्ठी से फिसलती जा रही है,
लौटने को है लहर छूकर किनारा,
चन्द्रमा की सौम्य किरणें पूछती हैं,
कब भला संन्यास छूटेगा तुम्हारा.


पारस जादू


शब्द तुम्हारे हैं या पारस जादू हैं,
रोम रोम से प्यार छलकने लगता है,
नाम मोहब्बत रख दूँ तुमको इश्क़ कहूँ,
पर इससे अधिकार छलकने लगता है।


तुमने अपने दम पर उड़ना सीखा है,
गिर कर सँभलीं टूट के जुड़ना सीखा है,
मरुथल में आँसू की झील बनाई है,
उसमें कमल खिला कर मुड़ना सीखा है,
मैं अयोग्य, तुमसे अनुरोध करूँ कैसे,
इससे शिष्टाचार छलकने लगता है।

साथ तुम्हारे देखूँ पर्वत तालों को,
सुलझाऊं कुछ उलझे हुए सवालों को,
हाथ में लेकर हाथ सुनाऊँ गीत कोई,
आँखों ही आँखों में पी लूँ प्यालों को,
बोल तो दूँ, क्या क्या करने के सपने हैं,
पर इससे संसार छलकने लगता है ।