भारत के ऋषि मुनियों नें पाला था शान से,
जगमग थी ज्ञानियों पे दमकते गुमान से,
नानक से औ कबीर से तीरथ से धाम से,
पहचान जिसकी होती थी साधू के नाम से,
दे सकती थी जो श्राप ज़रा सी ही भूल पर,
सूरजमुखी की पंखुडी ज्यों आधे फूल पर,
मुखड़े पे जो होती थी बड़प्पन की निशानी,
केशों की सहेली खिले गालों की जवानी,
दिन रात लोग करते थे मेहनत बड़ी गाढ़ी,
तब जाके कहीं उगती थी इस चेहरे दाढ़ी,
दाढ़ी जो लहरती थी तो तलवार सी लगती,
हो शांत तो व्यक्तित्व के विस्तार सी लगती,
दाढ़ी तो दीन दुनिया से रहती थी बेख़बर,
करते सलाम लोग थे पर इसको देख कर,
दाढ़ी में हैं सिमटे हुए कुछ भेद भी गहरे,
सूरत पे लगा देती है ये रंग के पहरे,
दाढ़ी सफेद रंग की सम्मान पाएगी,
भूरी जो हुई घूर घूर घूरी जाएगी,
दाढ़ी जो हुई काली तो कमाल करेगी,
मेंहदी रची तो रंग लाल लाल करेगी,
दाढ़ी का रंग एक सा है छाँव धूप में,
सबको ही बांध लेती है ये अपने रूप में,
दाढ़ी के बिना चेहरा बियाबान सा लगे,
भूसी से बाहर आए हुए धान सा लगे,
दाढ़ी से रौब बढ़ता है ज़ुल्फों के फेर का,
दाढ़ी तो एक गहना है बबरीले शेर का,
चेहरे पे बाल दाढ़ी के जब आ के तने थे,
लिंकन भी तभी आदमी महान बने थे,
खामोश होके घुलती थी मौसम में खु़मारी,
शहनाई पे जब झूमती थी खान की दाढ़ी,
'सत श्री अकाल' बोल के चलती थी कटारी,
लाखों को बचा लेती थी इक सिंह की दाढ़ी,
मख़मल सरीख़ी थी गुरु रविन्द्र की दाढ़ी,
दर्शन में डूब खिली थी अरविंद की दाढ़ी,
दिल खोल हंसाती थी बहुत काका की दाढ़ी,
लगती थी खतरनाक बड़ी राका ही दाढ़ी,
गांधीजी हमारे भी यदि दाढ़ी उगाते,
तो राष्ट्रपिता की जगह जगदादा कहाते,
ख़बरें भी छपती रहती हैं दाढ़ी के शोर की,
तिनका छिपा है आज भी दाढ़ी में चोर की,
उगती है किसी किसी के ही पेट में दाढ़ी,
पर आज बिक रही बड़े कम रेट में दाढ़ी,
सदियों की मोहब्बत का ये अंजाम दिया है,
आतंकियों नें दाढ़ी को बदनाम किया है,
करने को हो जो बाद में वो सोच लीजिए,
पहले पकड़ के इनकी दाढ़ी नोच लीजिए,
स्पाइस ओल्ड बेच रही टीवी पे नारी,
दाढ़ी की प्रजाति हो है ख़तरा बड़ा भारी,
गुम्मे पे टिका के कहीं एसी में बिठा के,
तारों की मशीनों से या कैंची को उठा के,
पैसा कमा रहे हैं जो दाढ़ी की कटिंग में,
शामिल हैं वो संसार की मस्तिष्क शटिंग में,
ब्रश क्रीम फिटकरी की गाडी़ बढ़ाइए,
फिर शान से संसार में दाढ़ी बढ़ाइए,
मैं आज कह रहा हूँ कल ये दुनिया कहेगी,
दाढ़ी महान थी, महान है, और रहेगी।
महा लिख्खाड़
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एक हास्य कविता - दाढ़ी
Jun 4, 2007प्रेषक: अभिनव @ 6/04/2007
Labels: पाडकास्ट, हास्य कविता
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17 प्रतिक्रियाएं:
बहुत खूब!
आपने काका हथरसी की याद दिला दी आपने। आजकल की हास्य कविता और फूहड चुटकुलों में बारीक सी लकीर है, आपने लकीर का फकीर न बन कर बहुत सुन्दरता से लिखा है। कुछ पंक्तिया विशेष अच्छी लगीं:
सकती थी जो श्राप ज़रा सी ही भूल पर,
सूरजमुखी की पंखुडी ज्यों आधे फूल पर,
दाढ़ी में हैं सिमटे हुए कुछ भेद भी गहरे,
सूरत पे लगा देती है ये रंग के पहरे,
गांधीजी हमारे भी यदि दाढ़ी उगाते,
तो राष्ट्रपिता की जगह जगदादा कहाते,
उगती है किसी किसी के ही पेट में दाढ़ी,
पर आज बिक रही बड़े कम रेट में दाढ़ी,
बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत बढ़िया । मजा आ गया ।
घुघूती बासूती
दाढी महात्म इतना हो सकता है ये सोचा न था, पर है सत्य है हास्य मे व्यन्ग हो तो मजा तो आना ही है , धन्यवाद भाई दाढी को खुजाने के लिये . . .
सही है, इस रचना को पढ़ने के बाद तो दाढ़ी रखना ही पढ़ेगा लगता है।
आभार
हाय-हाय दाढ़ी पर इतनी लिक्खाड़ी
भईया अभिनव कुछ लिखो आन पेट की दाढ़ी
चिकने चेहरों की पथरीली करामातों पर लिखो
भईया बहूत अच्छी लगी
लगे रहो अभिनव भाई
आलोक पुराणिक
अच्छा बताया हम भी अब दाढ़ी बढ़ायेंगे
दाढ़ी पे हाथ फेर के कविता सुनायेंगे
कोई न जान पायेगा दिल में हमारे क्या
दाढ़ी के पसे हम जो कभी मुस्कुरायेंगे
दाढ़ी को रखेंगे घनी, बन जायेंगे स्वामी
चेलों के साथ चैन की वंसी बजायेंगे
इसीलिये हम भी आधी दाढ़ी (गो टी) रखे हैं, कम से कम आधा सम्मान मिल जाये. बेहतरीन रही रचना.
बहुत खूब रही कविता !
पर अब लिंकन को छोड़िए ये बताइए कि आप इसे कब उगा रहे हैं :p
काका हाथरसी अपनी दाढ़ी के लिये मशहूर थे. उन्होने लिखा:
काका दाढी राखिये बिन दाढी सब सून
ज्यों मंसूरी के बिना लागे देहरादून
इसी फुल्झडी का दूसरा अंश यों है:
कोई दाढी छीलते बुध शुक्र, इतवार
कोई कोई छीलते दिन मेँ दो दो बार
दिन मेँ दो दो बार ,ब्लेड की शामत आती
व्यर्थ होय इस्पात ,विदेशी मुद्रा जाती
कह काका कविराय और नही तब तक
दाढी रखलो राष्ट्रीय संकट है जब तक्
अरविन्द चतुर्वेदी
भारतीयम
http://bhaarateeyam.blogspot.com
वाह बड़ा अच्छा लगा दाढ़ी की कविता सुनकर...बधाई
बहुत सुन्दर हास्य रचना है,दाड़ी का महत्व क्या खूब बताया है,..मगर आज दाड़ी छोड़ीये लोगो को मूछें रखने पर ही आपत्ति होती है...आप की कविता शायद कुछ सीखा जाये...:)श्राप वाली बात पर विश्वामित्र की याद आती है..एक नाटक में देखा था दाड़ी पकड़ कर श्राप देते हुए....
शुक्रिया सुंदर कविता के लिये..वैसे ही हँसने के बहाने ढूँढने पड़ते है...
सुनीता(शानू)
दाढी वाली कविता को दढियल का सलाम.वैसे कविता सुनकर/पढकर लोग विश्वास नहीं करेंगे कि कवि महोदय हमें कई बार दाढी कटवाने की सलाह दे चुके हैं:)अब लगता है आपका ह्रदय-परिवर्तन हो चुका है!
परमजीत जी, घुघूती जी, संजीवा जी, संजीत जी, समीर भाईसाहब, रीतेश जी तथा सुनीताजी - आपको कविता अच्छी लगी यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई। बहुत धन्यवाद।
राजीव जी, अरविंदजीः काका का क्लास तो अलग ही था। वे सच्चे हास्य अवतार थे, उनके अंतिम संस्कार के समय उनकी इच्छानुसार हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया था। वो जाते जाते भी दुनिया को हसाँना चाहते थे, यहाँ लोगों को जीतेजी कभी अपनों को दुख देने से ही फुरसत नहीं मिलती।
आलोक जीः आपकी टिप्पणी देखकर उत्साहवर्धन हुआ है। धन्यवाद।
राकेश भाईसाहबः आपने बढ़िया कुण्डली बना दी।
मनीष जी, भारतभूषण जीः जमती है किसी किसी के ही फेस पे दाढ़ी, देखिए किस दिन आती है हमारी बारी। अभी तो यह रचना "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" वाली कहावत की ही श्रेणी में है
पढ़कर मजा आ गया, बधाई
डा. रमा द्विवेदी said...
हास्य से परिपूर्ण सुन्दर रचना.....'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' का जमाना अब नहीं रहा अब आप भी दाढ़ी कुछ तो बढ़ा ही लीजिए:)....जिस दाढ़ी का आपने इतना गुणगान किया है वो आप पर भी कुछ तो दिखे......? सुन्दर, सार्थक और ज्ञानवर्धक कविता के लिए बहुत बहुत्त बधाई...
डा. रमा द्विवेदी
हास्य से परिपूर्ण सुन्दर रचना.....'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' का जमाना अब नहीं रहा अब आप भी दाढ़ी कुछ तो बढ़ा ही लीजिए:)....जिस दाढ़ी का आपने इतना गुणगान किया है वो आप पर भी कुछ तो दिखे......? सुन्दर, सार्थक और ज्ञानवर्धक कविता के लिए बहुत बहुत्त बधाई...
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