नफरत के बीज बो दिए खूनी फसल हुई,
समस्या अपने गाँव की कुछ ऐसे हल हुई,
दोनो तरफ के शातिर औ बदमाश बच गए,
इस बात में क्या रखा है किसकी पहल हुई,
पटना के प्लेटफार्म पे आ गई टाईम पे,
गाड़ी न हुई मुन्सीपाल्टी का नल हुई,
सबकी दुकानदारी है ले दे के एक सी,
पंजा हुई, हाथी हुई, सैकिल कमल हुई,
पापा की टीम में कभी मम्मी की टीम में,
मौके को देखकर यहाँ भी दलबदल हुई,
बेटा सेलेक्ट हो गया इंजीनियरिंग में,
ऐसा लगा माँ बाप की मेहनत सफल हुई,
न चाहते हुए भी तुम्हें देखता हूँ रोज़,
तू न हुई दैनिक का कोई राशिफल हुई,
जबसे तुम आई हो यहाँ पे बन के इक परी,
तबसे हमारी झोंपडी भी जलमहल हुई,
दिन उलझनों के बीच कटी करवटों में रात,
तब जा के कहीं शेर बने ये ग़ज़ल हुई,
महा लिख्खाड़
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पाडकास्ट - समस्या अपने गाँव की
Jun 1, 2007
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8 प्रतिक्रियाएं:
ज्यादातर शेर काफ़ी मजबूत हैं ।
achhee gajal hai jee....
अच्छी कविता लिखी है ।
घुगूती बासूती
बढिया है ...आपकी सीडी का इंतजार है :-)
अच्छा है। बधाई!
अभिनव जी बहुत सुन्दर कविता लिखी है।
मैं धन्यवाद् देता हूँ समीर जी का जिनके ब्लोग के मध्यम से आपके बारे मैं पता चला।
इसी तरह लिखते रहिए।
शुभ्कामनाओ सहित आपका मित्र
-अशोक
अच्छी आवाज के मालिक हैं आप !
पटना के प्लेटफार्म पे आ गई टाईम पे,
गाड़ी न हुई मुन्सीपाल्टी का नल हुई,
हा हा, बहुत खूब पर एक बात बताएं भाईसाहब ये पटना से आपको इतनी शिकायत क्यूँ ठहरी ।
badipyarirachna hai lekin matle me jo dusra misra he thoda sa lamba lag raha hai.....chahe to aise likh sakte hain...vipda humare gaanv ki kuchh aise hal hui ab ye lyrical ho gaya hai or gaya bhi ja sakta hai....
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