हुई गा प्रेम

Feb 14, 2017

'प्रेम लेऊ जी प्रेम लेऊ', मचल हौ चीख़ पुकार,
प्रेम सहज विस्तार है, प्रेम दिवस बाज़ार,
प्रेम दिवस बाज़ार, माँगती पत्नी छल्ला,
फूल लिए गलियन में घूमें लल्ली लल्ला,
कह अभिनव कविराय आज कल किस पे टेम,
कार्ड धरो, चकलेट चरो, बस हुई गा प्रेम।

वसंत आया

Feb 12, 2017

वसंत आया तो उसके आते ही फ़ेसबुक पर उसका ज़ोरदार स्वागत होने लगा। मेरे प्यारे प्यारे सहेले - सहेलियाँ अपनी अपनी वाल पर ऋतुराज की उपाधि को जस्टिफाई करने लगे। और इधर ट्रंप बाबू भी अपने द्वारा बनाई जाने वाली वॉल को बसंती रंग में रंगने पर सहमत हो गए। ट्रंप के विरोधी भी बसंती चोला धारण कर सड़कों पर उतर पड़े। टीवी चैनलों के ढपोरसंख पत्रकार चीख़ चिल्ला कर जब थक गए, तब बसंत पर होने वाले कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग कर वासंती अनुभव करने लगे। धार्मिक एकता के बचे खुचे पैरोकार अमीर खुसरो का नाम ले सबको बरगलाने में तत्पर हो गए कि बसंत हिंदू मुस्लिम एकता के लिए आया है। वामपंथ की फिसलौंध भरी गलियों के वासी, बसंत को मिली ऋतुराज की उपाधि को अन्य ऋतुओं का षड्यंत्र बताते हुए इसके विरोध में अपने पुरुस्कार लौटा कर कृतकृत्य होने लगे। कामदेव इस सोच में व्यस्त हो गए कि इस बसंत कौन से प्रोडक्ट द्वारा अपना प्रचार बढ़ाया जाए। चिड़िया सरसों के खेत में उड़ते हुए भोजन हेतु केंचुओं का शिकार करने लगी। माँ शारदा के भक्त पंचम स्वर में सरस्वती वंदना गाने लगे। ऐसे में अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया राज्य के मध्य बसे फोलसम नगर में वास करने वाले एक नितांत मासूम से भोले भाले प्रवासी भारतीय ने फ़ेसबुक पर बसंत के स्वागत में बनने वाले मीठे पीले ड्राई फ़्रूट एवं नरियर मिक्स चावलों का वर्णन पढ़ अपनी पत्नी से उन चावलों को पकाने हेतु आवेदन दिया। पत्नी ने भी तुरंत ऐसी किसी भी वस्तु के संसार में पकने की बात से अनभिज्ञता ज़ाहिर करते हुए उसकी रेसिपी न जानने की बात करते हुए आवेदन निरस्त कर दिया। इसके उपरांत बड़ी मेहनत और अनेक क्लिक के उपरांत वसंत के पीले चावलों की विधि अंतर्जाल पर ढूँढ कर पति ने स्वयं उन्हें बना कर अपना वसंत मनाया। ज्ञानीजन ठीक ही कह गए हैं कि वसंत आता नहीं उसे पकड़ के लाना पड़ता है। तभी एक नन्हें देवदूत को वाट्स अप पर निम्न कविता पढ़ते देखा तो लगा सचमुच बसंत आ गया।
ओढ़ दुसाला चंदा मामा, ठिठुर ठिठुर कर भए पजामा,
मौसम बदलावा जाई, बसंत का लावा जाई,
मामा का बचावा जाई, कविता रचावा जाई,
बढ़ियाँ से गावा जाई, नई नई दुल्हिन लावा जाई,
दुल्हिन का समुझावा जाई, चावल बनवावा जाई,
हम तुम खावा जाई, केहुक न खेवावा जाई।

वैलेंटाइन और भाईसाहब!



भाईसाहब सड़क किनारे के ढाबे पर बैठे बन बटर समोसा चबा रहे थे, हाथ में चाय का गिलास था, गिलास में उतनी ही चाय थी जिसके आधार पर ये कहा जा सके कि यह गिलास अभी खाली नहीं हुआ है और एक अंतिम चुस्की अभी और मारी जा सकती है। मुख के एक कोने में विल्स फ़िल्टर ब्रांड की सिगरेट भी शोभायमान हो रही थी। सिगरेट जल रही थी और उसके धुंए नें भाईसाब के चेहरे पर एक कोहरा सा मचा रखा था। भाईसाहब फोन पर किसी से बतिया भी रहे थे अथवा कोई फ़िल्मी गीत या अपने 'मन की बात' सुन रहे थे, क्योंकि काले काले चश्मे के पीछे से एक सफ़ेद सफ़ेद तार उनके कानों में जा रहा था। इन सभी गतिविधियों के साथ उनका चौकस ध्यान सड़क पर गुज़रने वाले प्रत्येक सजीव निर्जीव तत्व पर था। उनके चरण कमल किसी ड्रम बजाने बाले के पैरों की भांति एक लय में  धरती को ठकठका रहे थे। उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था मानो वैज्ञानिकों को मल्टी-प्रसेसिंग प्रणाली का विचार उनकी छवि निहार कर ही आया हो। तभी अचानक दूर से एक पीले सूट की झलक देख कर भाई साहब का पुर्जा पुर्जा टेस्ला मोटर हो गया, एक कौर में बचा हुआ बन मुंह में ठूंसा गया, एक घूँट में चाय गटकी गई, सिगरेट बुझी, कान से तार निकले, चरण थपथपावन बंद हुआ और झट से पैंट की जेब से कंघी निकाल कर उन्होंने अपनी ज़ुल्फ़ सँवारी। पीले सूट में व आ रही थीं जिन्हें भाई साहब पिछले वैलेंटाइन से अपने वैलेंटाइन के रूप में मान चुके थे। हांलाकि यह बात उनके कुछ घनिष्ठ मित्रों के अलावा किसी को पता नहीं थी। आज पुनः वैलेंटाइन डे था, भाईसाहब गुलाब का फूल भी लाये थे, करीने से अपनी टीशर्ट के ऊपर के बटन में फंसा रखा था, ताकि निकाल कर देने में आसानी हो।  वे निकट आ रही थीं, और भाईसाहब की हृदय गति, अच्छे दिनों में बनने वाली बुलेट ट्रेन की गति से भी ज़्यादा तेज़ हो चुकी थी। "यदि आज न हुआ तो कभी न हो पाई" वाली तर्ज पर उन्हें ये कदम उठाना ही था। और उन्होंने उठाया भी, वे कदम उठा कर देवीजी के सम्मुख पहुंचे और हड़बड़ाते हुए सीधे "आई लव यू" नामक मन्त्र जप दिया। देवी जी के हाव भाव से ऐसा लगा मानो उन्हें भी इस बात का अंदाजा था। उन्होंने बड़े परिष्कृत अंदाज़ में इस प्रेम प्रस्ताव को मित्रता प्रस्ताव में बदलते हुए पुष्प स्वीकार कर लिया। उस दिन के बाद से भाईसाहब कभी कार्ड के स्टोर में, कभी नकली गूची के शोरूम में, कभी टिकटों की लाइन में और कभी ग़ालिब की ग़ज़लों के साथ पाए जाते हैं। अब वे ढाबे पर चाय पीते नहीं दिखते। हमारे मंचों के प्रिय व्यंग्यकार माननीय संपत सरल जी ने ठीक ही कहा है कि, "वैलेंटाइन डे सोने का वो हिरन है जिसे तीर बेचने वाली कंपनी नें मार्किट में छोड़ रखा है'।

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