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छंद
Dec 23, 2012
शाख से परिंदे नें ये कह के उड़ान भरी,
देखो अब हमारा इंतज़ार नहीं करना,
चीख चीख युद्ध नें सुनाया युद्धभूमियों को,
फेंको अस्त्र-शस्त्र कभी वार नहीं करना,
घन घन घनन लगाई मेघ नें गुहार,
कभी भी हमारा ऐतबार नहीं करना,
अंखियों के मोती यह बोल के दुलक गए,
कुछ भी करो दुबारा प्यार नहीं करना.
सभ्यता का आवरण ओढ़े हुए आचरण,
बिखर बिखर चूक चूक रह जाते हैं,
धुंधलाता लक्ष्य देख कांपते धनुर्धर,
धरे के धरे सभी अचूक रह जाते हैं,
शब्द अर्थ भाव सुर गीत लय ताल सब,
मन में जगाते एक हूक रह जाते हैं,
कूकती है प्रेम वाली कोकिला जो अम्बुआ पे,
ज्ञान के पपीहे सब मूक रह जाते हैं.
प्रेषक: अभिनव @ 12/23/2012
Labels: कविताएं
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1 प्रतिक्रियाएं:
नमश्कार अभिनव जी! आपकी रचनाएँ काफ़ी सुंदर है| आप सचमुच तारीफ के पात्र है| आप बस ऐसे ही लिखते रहिए और हम पढ़ते रहेगे|
धन्यवाद!
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