कोई फर्क नहीं पड़ता है,
मेरे कुछ लिखने से,
या तुम्हारे कुछ पढ़ने से,
बातें बनाने से,
या गाने गाने से,
दोस्ती की कसमें खाने से,
या दुशमनी का ढोल बजाने से,
फर्क पड़ता है,
केवल कुछ कर दिखाने से,
सकल पदार्थ हैं जग मांही,
करमहीन नर पावत नाही.
जै महाराष्ट्र,
जै शिवाजी,
जै भी कितना खतरनाक शब्द है.
महा लिख्खाड़
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नाप तोल
खतरनाक जै
Oct 25, 2008प्रेषक: अभिनव @ 10/25/2008 4 प्रतिक्रियाएं
Labels: कविताएं
कविवर प्रवीण शुक्ल - एक अद्भुत बहुआयामी प्रतिभासंपन्न व्यंगकार
Oct 19, 2008
प्रवीण शुक्ल जी से पहली बार मिलने का सुअवसर मुझे १९९९ में बरेली के संजय गाँधी सभागार में हुए कवि सम्मलेन में प्राप्त हुआ था. पहली बार ही उनकी रचनायें सुनकर बहुत अच्छा लगा. इतनी सरल भाषा में सीधी सीधी बात जो सीधे दिल में उतर जाए. अगली मुलाक़ात हैदराबाद में दो वर्ष बाद हुयी तो उनको सुनने का आनंद दुगना आया. सामान्यतः कवि अपनी वही कविताएँ हर मंच से पढता है, पर प्रवीण जी की हर कविता नई थी. फिर दो वर्ष बाद उनसे बंगलोर में भेंट हुयी तो एक बार फिर सब नई कविताएँ सुनने को मिलीं. एक के बाद एक उनकी लेखनी अच्छी कविताएँ लिख रही है और सबको सुना रही है.
उनकी गांधीगिरी पर लिखी हुयी पुस्तक भी इधर काफ़ी लोकप्रिय हुयी है. अभिव्यक्ति पर इसपर लिखा हुआ लेख आप यहाँ क्लिक कर के पढ़ सकते हैं.
आइये सुनें इस बहुआयामी प्रतिभासंपन्न व्यंगकार की एक कविता;
प्रेषक: अभिनव @ 10/19/2008 0 प्रतिक्रियाएं
Labels: भई वाह
कवि शिव सागर शर्मा - मुहावरों का पानी और पानी के मुहावरे
Oct 12, 2008आज शिव सागर शर्मा जी की पानी और मुहावरों वाले छंद सुने. शिव सागर जी से मिलने का सुयोग अभी नहीं मिला है पर उनके छंद सुनकर कुछ अलग सा अनुभव हुआ.
मुहावरा: रस्सी जल गई पर बल नहीं गए
गागर है भारी, पानी खींचने से हारी,
तू अकेली पनिहारी, बोल कौन ग्राम जायेगी,
मैंने कहा, थक कर चूर है तू ला मैं,
रसरी की करूं धरी कुछ विराम तो तू पाएगी,
बोली जब खींच चुकी सोलह घट जीवन के,
आठ हाथ रसरी पे कैसे थक जायेगी,
मैंने कहा रसरी की सोहबत में पड़ चुकी तू,
जल चाहे जायेगी ते ऐंठ नहीं जायेगी.
मुहावरा: अधजल गगरी छलकत जाए
घाम के सताए हुए, दूर से हैं आए हुए,
घाट के बटोही को तू धीर तो बंधाएगी,
चातक सी प्यास लिए, जीवन की आस लिए,
आशा है तू एक लोटा पानी तो पिलाएगी,
बोली ऋतू पावस में स्वाति बूँद पीना,
ये पसीने की कमाई है, न यूँ लुटाई जायेगी,
मैंने कहा पानी वाली होती तो पिला ही देती
अधजल गागरी है छलकत जाएगी.
मुहावरा: चुल्लू भर पानी मैं डूब मरना
हारे थके राहगीर नें कहा नहाने के लिए,
क्या तेरे पास होगा एक डोल पानी है,
मार्ग की थकान से हुए हैं चूर चूर हमें,
दूर से बता दे कहाँ कहाँ मिले पानी है,
बोली घट में है पानी घूंघट में पानी,
भीगी लट में है पानी जहाँ देखो वहां पानी है,
पानी तो है लेकिन नहाने के लिए नहीं है
डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी है.
प्रेषक: अभिनव @ 10/12/2008 1 प्रतिक्रियाएं
Labels: भई वाह
लेओ, एक और दशहरा बीत गया.
Oct 9, 2008
न तो लंका जली,
न तो रावण मरा,
न ही अंगद नें पाँव,
धरा पर धरा,
न भलाई डटी,
न बुराई हटी,
पा गई दिव्यता,
एक नई तलहटी,
क्या पता,
कब कहाँ,
क्या फटे,
क्या कटे,
कर के सबको,
बहुत भयभीत गया,
लेओ.....,
एक और दशहरा बीत गया.
प्रेषक: अभिनव @ 10/09/2008 5 प्रतिक्रियाएं
Labels: कविताएं
"अँधेरी रात का सूरज" - राकेश खंडेलवाल
Oct 6, 2008भाषा के जादूगर, गीतों के राजकुमार, कविवर श्री राकेश खंडेलवाल जी का काव्य संग्रह "अँधेरी रात का सूरज" छप कर आ गया है. ११ अक्तूबर को सीहोर तथा वॉशिंगटन में उसका विमोचन होना निर्धारित हुआ है. इस संग्रह की एक कमाल की बात तो यह है की राकेशजी को भी नहीं पता है की इसमें कौन कौन सी कविताएं हैं. पंकज सुबीर जी नें चुन चुन कर गीत समेटे हैं और शिवना प्रकाशन द्वारा संकलन छप कर तैयार हुआ है.
ऐसे दौर में जब कवि अपनी पाण्डुलिपि के साथ रुपए के बण्डल लिए प्रकाशकों के द्वार द्वार भटकता है, की भाई मेरी किताब छाप दो, यह संकलन इस बात को पुनर्स्थापित करता है की अच्छे लेखकों और कवियों का सम्मान करना अभी हमारी भाषा और संस्कृति भूली नहीं है. पंकजजी इसके लिए बधाई के पात्र हैं. राकेश जी गीतों के एक ऐसे महासागर हैं जो सदा एक से बढ़ कर एक मोती काव्य संसार को देते रहे हैं.
कभी कभी लगता है मानो इस संकलन नाम कितना सार्थक है, "अँधेरी रात का सूरज". ठंडी पड़ती संवेदनाओं की अँधेरी रात में राकेश जी अपनी रचनाओं से प्रकाश और गर्माहट दोनों का एहसास लेकर आते हैं तथा एक सूरज की भांति अंधेरे की आँखें चौंधिया कर उसे दूर भगा देते हैं.
आज आपको राकेशजी के काव्य पाठ के कुछ अंश दिखाते हैं. ये गीत २००६ में नियाग्रा फाल के निकट हुए कवि सम्मलेन का अंश है.
मेरे भेजे हुए संदेसे
तुमने कहा न तुम तक पहुँचे मेरे भेजे हुए संदेसे
इसीलिये अबकी भेजा है मैंने पंजीकरण करा कर
बरखा की बूँदों में अक्षर पिरो पिरो कर पत्र लिखा है
कहा जलद से तुम्हें सुनाये द्वार तुम्हारे जाकर गा कर
अनजाने हरकारों से ही भेजे थे सन्देसे अब तक
सोचा तुम तक पहुँचायेंगे द्वार तुम्हारे देकर दस्तक
तुम्हें न मिले न ही वापिस लौटा कर वे मुझ तक लाये
और तुम्हारे सिवा नैन की भाषा कोई पढ़ न पाये
अम्बर के कागज़ पर तारे ले लेकरके शब्द रचे हैं
और निशा से कहा चितेरे पलक तुम्हारी स्वप्न सजाकर
मेघदूत की परिपाटी को मैने फिर जीवंत किया है
सावन की हर इक बदली से इक नूतन अनुबन्ध किया है
सन्देशों के समीकरण का पूरा है अनुपात बनाया
जाँच तोल कर माप नाप कर फिर सन्देसा तुम्हें पठाया
ॠतुगन्धी समीर के अधरों से चुम्बन ले छाप लगाई
ताकि न लाये आवारा सी कोई हवा उसको लौटाकर
गौरेय्या के पंख डायरी में जो तुमने संजो रखे हैं
उन पर मैने लिख कर भेजा था संदेसा नाम तुम्हारे
चंदन कलम डुबो गंधों में लिखीं शहद सी जो मनुहारें
उनको मलयज दुहराती है अँगनाई में साँझ सकारे
मेरे संदेशों को रूपसि, नित्य भोर की प्रथम रश्मि के
साथ सुनायेगा तुमको, यह आश्वासन दे गया दिवाकर
- कविवर राकेश खंडेलवाल
प्रेषक: अभिनव @ 10/06/2008 11 प्रतिक्रियाएं
देवल आशीष - एक सौम्य, प्रतिभावान और सशक्त कवि - देखिये, पढिये और सुनिए
Oct 2, 2008देवल आशीष की प्रशंसा शायद पहली बार मैंने डा उर्मिलेश से सुनी थी. लखनऊ में एक बार उनको सुनने का सौभाग्य भी मिला है, इधर यू ट्यूब पर उनको सुनने को मिला तो बड़ा अच्छा लगा. आप भी सुनिए.
विश्व को मोहमयी महिमा के असंख्य स्वरुप दिखा गया कान्हा,
सारथी तो कभी प्रेमी बना तो कभी गुरु धर्म निभा गया कान्हा,
रूप विराट धरा तो धरा तो धरा हर लोक पे छा गया कान्हा,
रूप किया लघु तो इतना के यशोदा की गोद में आ गया कान्हा,
चोरी छुपे चढ़ बैठा अटारी पे चोरी से माखन खा गया कान्हा,
गोपियों के कभी चीर चुराए कभी मटकी चटका गया कान्हा,
घाघ था घोर बड़ा चितचोर था चोरी में नाम कमा गया कान्हा,
मीरा के नैन की रैन की नींद और राधा का चैन चुरा गया कान्हा,
राधा नें त्याग का पंथ बुहारा तो पंथ पे फूल बिछा गया कान्हा,
राधा नें प्रेम की आन निभाई तो आन का मान बढ़ा गया कान्हा,
कान्हा के तेज को भा गई राधा के रूप को भा गया कान्हा,
कान्हा को कान्हा बना गई राधा तो राधा को राधा बना गया कान्हा,
गोपियाँ गोकुल में थी अनेक परन्तु गोपाल को भा गई राधा,
बाँध के पाश में नाग नथैया को काम विजेता बना गई राधा,
काम विजेता को प्रेम प्रणेता को प्रेम पियूष पिला गई राधा,
विश्व को नाच नाचता है जो उस श्याम को नाच नचा गई राधा,
त्यागियों में अनुरागियों में बडभागी थी नाम लिखा गई राधा,
रंग में कान्हा के ऐसी रंगी रंग कान्हा के रंग नहा गई राधा,
प्रेम है भक्ति से भी बढ़ के यह बात सभी को सिखा गई राधा,
संत महंत तो ध्याया किए माखन चोर को पा गई राधा,
ब्याही न श्याम के संग न द्वारिका मथुरा मिथिला गई राधा,
पायी न रुक्मिणी सा धन वैभव सम्पदा को ठुकरा गई राधा,
किंतु उपाधि औ मान गोपाल की रानियों से बढ़ पा गई राधा,
ज्ञानी बड़ी अभिमानी पटरानी को पानी पिला गई राधा,
हार के श्याम को जीत गई अनुराग का अर्थ बता गई राधा,
पीर पे पीर सही पर प्रेम को शाश्वत कीर्ति दिला गई राधा,
कान्हा को पा सकती थी प्रिया पर प्रीत की रीत निभा गई राधा,
कृष्ण नें लाख कहा पर संग में न गई तो फिर न गई राधा.
कवि: देवल आशीष
प्रेषक: अभिनव @ 10/02/2008 4 प्रतिक्रियाएं
Labels: भई वाह