'ऐ रिक्शा!,
बड़े बाज़ार चलोगे'
'हाँ बाबूजी चलेंगे,
क्यों नहीं चलेंगे.'
'कितने पैसे.'
'दो सवारी के बीस रुपए.'
'स्टेशन से बड़े बाज़ार तक के बीस रुपए,
लूटोगे क्या भाई,
अभी पिछले महीने तक तो पन्द्रह रुपए पड़ते थे,
शहर में नया समझा है क्या.'
'नया काहे समझेंगे,
इधर दाम बढ़ गए हैं,
आटा, दाल, चीनी, तेल, सब्जी सबके दाम डबल हो गए हैं,
देखिये हर चीज़ में आग लग गई है.'
'अरे! तो क्या हमसे निकालोगे सारा पैसा.'
'अजी सुनिए, आप क्यों बहस करते हैं,
मैं कहती हूँ कि,
ऑटो कर लेते हैं,
तीस रुपए लेगा लेकिन जल्दी तो पहुँचा देगा.'
'अरे ऑटो!
इधर आना.'
'बैठिये बाबूजी पन्द्रह ही दे दीजियेगा.'
'बड़ा ख़राब ज़माना आ गया है.'
'मैं कहती थी न, ये लोग ऐसे नही मानते हैं.'
'चलो बैठो.'
रिक्शा चल पड़ता है,
और तभी सड़क पर लगा भोंपू गाना बजाता है,
'बाकी कुछ बचा तो,
महंगाई मार गई,
महंगाई मार गई.'
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महंगाई मार गई
Apr 8, 2008प्रेषक: अभिनव @ 4/08/2008
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5 प्रतिक्रियाएं:
यथार्थ का चित्रण बहुत सुन्दरता से किया है-यह हर जगह देखने मिल जाता है.
कमाल है united- स्टेट मे बैठे हुए आपने रिक्शा वाले के बारे मे सोचा ओर महंगाई पर गुफ्तगू भी कई ....दिल को बड़ा भला सा लगा
इतनी दूर से भी आपको महंगाई मार गयी तो फिर यहा का क्या हाल होगा.. बहुत ही बढ़िया अभिनव जी
रिक्शेवाले से इस स्तर की संवेदना? आप निश्चय ही बहुत भावुक और सहृदय हैं।
अच्छा लगा पढ़ कर।
क्या बात है !!! बहुत सुंदर अभिनव भाई ...ह्रदय को छू लिया आपकी कविता ने
एक रिक्शे वाले की पीड़ा को बखूभी कहा है आपने
इस कविता पर बधाई नहीं धन्यवाद देना चाहुँगा
रीतेश
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