कोई दरवाज़े पे देता नहीं दस्तक प्यारे,
अब कहाँ पाते हैं दिल खोल के हँस तक प्यारे,
ऐसा ईनाम मिला है ईमानदारी का,
एक कर्फ्यू है संभाले मेरा मस्तक प्यारे,
जब से आए हैं सफर इंतज़ार करता है,
कोई भी छोड़ने आएगा ना बस तक प्यारे,
कैसे बतलाएँ तुम्हें एक तुम्हारे जाने से,
मेरे भीतर कोई धरती गई धंस तक प्यारे,
पहले ये खून खौलता था कुछ सवालों पर,
अब फड़कती ही नहीं एक भी नस तक प्यारे।
महा लिख्खाड़
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प्यारे
May 14, 2006
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4 प्रतिक्रियाएं:
पहले ये खून खौलता था कुछ सवालों पर,
अब फड़कती ही नहीं एक भी नस तक प्यारे।
बढ़िया धंसा है ये दुख़!लेकिन निकलो इसे!
बहुत बढियां, अभिनव भाई.
समीर लाल
बधाई! अच्छा लिखा है
माणिक वर्मा की लिखी हुई इसकी हम-रदीफ(मगर छोटी बहर की) ग़ज़ल के कुछ शे'र याद आ रहे हैं.
साँस लेना अजाब है प्यारे
ये भी क्या इंकलाब है प्यारे
कुल्लु घाटी के सेब खा-खाकर
कल्लुओं पर शबाब है प्यारे
कौन कहता है आप अंधे हैं
आईना ही खराब है प्यारे
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