ज्ञान के कारागृहों में दंभ के मुस्तैद ताले,
भवन की ऊँची छतों पर रूढ़ियों के सघन जाले,
देख कर विज्ञान की प्रगति विधि भी है अचंभित,
हो पुरातन या नवल जो व्यर्थ है, वो सब तिरोहित,
हम पताका हम ध्वजा हम स्वयं ही पहिये हैं रथ के,
दो दिशाओं में हैं गुंजित स्वर जगत में प्रगति पथ के,
पीढियां अक्षम हुयी हैं निधि नहीं जाती संभाले,
पीढियां सक्षम हुयी हैं नव निधि के हैं उजाले.
6 प्रतिक्रियाएं:
वाह क्या बात कही है।
bahut khub
पीढियां अक्षम हुयी हैं निधि नहीं जाती संभाले,
पीढियां सक्षम हुयी हैं नव निधि के हैं उजाले.
इन दो पंक्ति में हमारी संस्कृति को आगे ले जाने का सार छुपा है जिसे हम धीरे धीरे खोते जा रहे हैं
पहली पंक्ति पढ़ कर दुःख और खुद पर शर्म भी आ रही है
उम्दा रचना
अभिनव जी, सामयिकता को व्यक्त करती सुन्दर कविता ।
पीढियां अक्षम हुयी हैं निधि नहीं जाती संभाले,
पीढियां सक्षम हुयी हैं नव निधि के हैं उजाले...
Bahut hi urjaliye hai aapki rachna ... naye prakaash ke aagman jaisi ..
नकारात्मक विषय को सकारात्मक रूप से प्रस्तुत करने का अद्भुत कौशल है आपका.
साधुवाद
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