झूठ,
जब भी बोलता हूँ,
थोड़ा सा गिर जाता हूँ,
अपनी ही नज़रों में,
इस गिरेपन के एहसास को लिए उठता हूँ,
और फिर,
एक और झूठ,
मेरा दमन पकड़ कर मुझे नीचे खींच लेता है,
सच बोलना चाहता हूँ,
पर घबरा जाता हूँ,
मन में अजीब सा भय,
कुछ किचकिचा सा डर,
जाता है ठहर,
अपने दोस्तों से,
घरवालों से,
सहकर्मियों से,
सबसे,
सीधा सपाट सच कहना,
मन को निर्मल कर के रहना,
इतना कठिन क्यों है,
कितना नीचे पहुँच गया हूँ मैं,
गिरते गिरते,
कैसे कह दूँ की जो कुछ लिख रहा हूँ,
या जो कुछ पढ़ रहा हूँ,
सच है,
या फिर,
झूठ.
जब भी बोलता हूँ,
थोड़ा सा गिर जाता हूँ,
अपनी ही नज़रों में,
इस गिरेपन के एहसास को लिए उठता हूँ,
और फिर,
एक और झूठ,
मेरा दमन पकड़ कर मुझे नीचे खींच लेता है,
सच बोलना चाहता हूँ,
पर घबरा जाता हूँ,
मन में अजीब सा भय,
कुछ किचकिचा सा डर,
जाता है ठहर,
अपने दोस्तों से,
घरवालों से,
सहकर्मियों से,
सबसे,
सीधा सपाट सच कहना,
मन को निर्मल कर के रहना,
इतना कठिन क्यों है,
कितना नीचे पहुँच गया हूँ मैं,
गिरते गिरते,
कैसे कह दूँ की जो कुछ लिख रहा हूँ,
या जो कुछ पढ़ रहा हूँ,
सच है,
या फिर,
झूठ.
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Abhinav Shukla
206-694-3353
Abhinav Shukla
206-694-3353
P Please consider the environment.
5 प्रतिक्रियाएं:
एक साहसी अभिव्यक्ति!! बधाई.
नववर्ष की मंगलकामनाऐं.
सुन्दर। नया कलेवर शानदार है।
बड़ा झकाझक लग रहा है ब्लॉग। कविता प्रस्तुति के सर्वथा अनुरूप। बधाई।
वाह अभिनव जी "सीधा सपाट सच कहना,
मन को निर्मल कर के रहना,
इतना कठिन क्यों है,"...
अच्छा है कह कर चल पड़ूं,फिर सोच कर ठिठक जाता हूं कि ये अन्याय होगा इस सच्ची कृति के लिये..
तो फिर से पढ़ लेता हूं..
Wonderful one,It looks like like not just yours but my voice too and probably everyone else around us.
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