इधर हमको भगवान् श्री कृष्ण की नगरी वृन्दावन जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, बांके बिहारी जी के मन्दिर के बाहर कुछ भजन पुस्तिकाएं प्राप्त हुयीं. उनमें मेरे प्रिय गीत 'सावन का महीना' की तर्ज पर एक भजन भी मिला. वैसे तो फिल्मी गीतों की तर्ज़ पर भजनों में भक्ति भाव का आभाव और प्रदर्शन का आधिक्य होता है, पर ये अच्छा लगा.
मूल गीत आप यहाँ पढ़ सकते हैं.
ये रहा वो भजन,
फागुन का महीना केसरिया रंग घोर,
होरी खेलें राधा संग नटवर नन्द किशोर,
ओढ़ के आई कान्हा नई रे चुन्दरिया,
भर पिचकारी मोहे मारो न सांवरिया,
भर पिचकारी मारी कर दीन्हीं सरवोर,
होरी खेलें राधा संग नटवर नन्द किशोर,
उड़त गुलाल श्याम लाल भये बदरा,
राधा की आंखन को बिगडो है कजरा,
ननद देय मोय तानो घर सास करे शोर,
होरी खेलें राधा संग नटवर नन्द किशोर.
इसको मूल गीत की तर्ज पर गा कर देखिये..
पुस्तक में इसके रचयिता का नाम नही है, ये लिखा है की "आभार उन सभी भक्तों का जिनके लिखे गीत इसमें शामिल किए गए हैं." अतः हमारी और से भी आभार.
चित्र सौजन्य: ISKCON
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'सावन का महीना' - "होरी खेलें राधा संग नटवर नन्द किशोर"
Apr 17, 2008प्रेषक: अभिनव @ 4/17/2008 2 प्रतिक्रियाएं
निंदा के दम पर जिंदा
Apr 14, 2008'ये कविराज न जाने अपने आप को क्या समझता है,
कविता एक भी नही है, बस लाफ्फज़ी कर लो,
ऊट पटांग घिसे पिटे चुटकुले,
*&%^^ *&^&* ^%$%^$%^ &^%&^%'
'ठीक कहते हैं और ये *&^*&$* राधेश्याम भी उसके जाल में फँस गया है,
सुनते हैं की इस होली पर पूरा टूर बना रहे हैं,
बस इनके लोग ही जायेंगे.'
'इनके लोग सब फ्राड हैं,
&^%&^%&(%^,
मेरा तो खून खौल उठता है,
तुमने देखा कैसे साजिश कर के मुझे नीचा दिखाते हुए बुलाया,
बस जो अपनी जी हुज़ूरी करे उसको जमाओ बाकी को उखाड़ दो,
मैं देखता हूँ की अब मेरे कार्यक्रमों में ये कैसे आता है,'
'वैसे एक और बात बताएं, इन लोगों का जाल इधर बाहर भी फ़ैल रहा है,
कम्पूटर पर भी बड़ी मार्केटिंग हो रही है,
चोर कहीं के, ख़ुद से एक कविता तो लिखी नहीं जाती और हरकतें,
मुर्गा, शराब, और भी न जाने क्या क्या,
&^%&^%&(^%^& हवाई जहाज से आते जाते हैं,
हुंह *^&*^&)*^&^%.'
(कविराज का प्रवेश...)
'आइये कविराज आइये,
चरणों में प्रणाम स्वीकारिये,
अभी अभी आप ही की प्रशंसा ही रही थी,'
'वाह भाई ये हुई न बात,
इधर मैं भी राधेश्याम जी से आपकी स्तुति कर के आ रहा हूँ.'
'आज तो आपको सुनकर बहुत बढ़िया लगा, क्या अंदाज़ है आपका,
सुन रहे हैं इधर टूर लग रहा है,
भूल मत जाइयेगा अपने इस भक्त को.'
'अरे कैसी बात करते हैं, आप तो हमारे भाई हैं,
आपको कहाँ भूल कर जायेंगे,
वैसे टूर तो राधेश्याम करवा रहे हैं उनसे भी बात कर लीजियेगा.'
(...कुछ देर तक सन्नाटा, अब कोई बोले भी तो क्या. तभी राधेश्याम जी मंच से संचालन करते हुए कहते हैं,)
'माँ वीणावादिनी के चरणों में प्रणाम करते हुए,
अब हम कवि सम्मेलन के दूसरे सत्र का प्रारम्भ करते हैं,
माँ शारदा के सभी वरद पुत्रों से अनुरोध है की एक बार पुनः,
मंच की शोभा बढ़ाने के लिए यहाँ आ जाएँ.'
और मंच की शोभा बढ़ा दी जाती है.
प्रेषक: अभिनव @ 4/14/2008 2 प्रतिक्रियाएं
वंदे मातरम कविता - युवा कवि सौरभ सुमन
Apr 13, 2008मित्रों इधर एक युवा कवि की कवितायेँ सुनने का अवसर मिला. कवि सौरभ सुमन मेरठ में रहते हैं और वीर रस की रचनायें मंच पर पढ़ते हैं. इधर उनकी कविता 'वंदे मातरम' यू ट्यूब पर सुनने को मिली. उस कविता को आप इस पोस्ट के साथ लगे विडियो में सुन सकते हैं.
ये रहे कविता के शब्द,
मजहबी कागजो पे नया शोध देखिये।
वन्दे मातरम का होता विरोध देखिये।
देखिये जरा ये नई भाषाओ का व्याकरण।
भारती के अपने ही बेटो का ये आचरण।
वन्दे-मातरम नाही विषय है विवाद का।
मजहबी द्वेष का न ओछे उन्माद का।
वन्दे-मातरम पे ये कैसा प्रश्न-चिन्ह है।
माँ को मान देने मे औलाद कैसे खिन्न है।
मात भारती की वंदना है वन्दे-मातरम।
बंकिम का स्वप्न कल्पना है वन्दे-मातरम।
वन्दे-मातरम एक जलती मशाल है।
सारे देश के ही स्वभीमान का सवाल है।
आवाहन मंत्र है ये काल के कराल का।
आइना है क्रांतिकारी लहरों के उछाल का।
वन्दे-मातरम उठा आजादी के साज से।
इसीलिए बडा है ये पूजा से नमाज से।
भारत की आन-बान-शान वन्दे-मातरम।
शहीदों के रक्त की जुबान वन्दे-मातरम।
वन्दे-मातरम शोर्य गाथा है भगत की।
मात भारती पे मिटने वाली शपथ की।
अल्फ्रेड बाग़ की वो खूनी होली देखिये।
शेखर के तन पे चली जो गोली देखिये।
चीख-चीख रक्त की वो बूंदे हैं पुकारती।
वन्दे-मातरम है मा भारती की आरती।
वन्दे-मातरम के जो गाने के विरुद्ध हैं।
पैदा होने वाली ऐसी नसले अशुद्ध हैं।
आबरू वतन की जो आंकते हैं ख़ाक की।
कैसे मान लें के वो हैं पीढ़ी अशफाक की।
गीता ओ कुरान से न उनको है वास्ता।
सत्ता के शिखर का वो गढ़ते हैं रास्ता।
हिन्दू धर्म के ना अनुयायी इस्लाम के।
बन सके हितैषी वो रहीम के ना राम के।
गैरत हुज़ूर कही जाके सो गई है क्या।
सत्ता मा की वंदना से बड़ी हो गई है क्या।
देश ताज मजहबो के जो वशीभूत हैं।
अपराधी हैं वो लोग ओछे हैं कपूत हैं।
माथे पे लगा के मा के चरणों की ख़ाक जी।
चढ़ गए हैं फंसियो पे लाखो अशफाक जी।
वन्दे-मातरम कुर्बानियो का ज्वार है।
वन्दे-मातरम जो ना गए वो गद्दार है।
इस आशा के साथ की आने वाले समय में उनसे अनेक सार्थक विषयों पर बढ़िया कवितायेँ सुनने को मिलेंगी सौरभ को अनेक शुभकामनाएं.
नोट:
१. कवि सौरभ सुमन का ब्लॉग यहाँ क्लिक कर के देखा जा सकता है.
२. मुझसे वीर रस के कवियों में, डा हरि ओम पंवार और डा वागीश दिनकर की कवितायेँ विशेष रूप से अच्छी लगती हैं. कमाल की बात है की दोनों मेरठ के ही आस पास के रहने वाले हैं. ऐसा लगता है की मेरठ की भूमि वीर रस के कवियों के लिए काफ़ी उर्वरक है. मेरा जन्म भी मेरठ में हुआ है अतः लगता है की अब कलम को कुछ वीर रस की उत्साहपूर्ण रचनाओं को लिखने के लिए प्रेरित करना चाहिए.
प्रेषक: अभिनव @ 4/13/2008 1 प्रतिक्रियाएं
देखिये मज़ेदार चित्रावली और करिये सिएटल की यात्रा
Apr 12, 2008इधर कुछ दिनों पहले गीत सम्राट श्री राकेश खंडेलवाल हमारे अनुरोध पर सिएटल पधारे थे. उनके सम्मान में सिएटल में एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया था. उनकी यात्रा को एक चित्रावली के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास नीचे किया है. आप चाहें तो आप भी सिएटल भ्रमण का आनंद इन चित्रों के मध्यम से उठा सकते हैं.
चित्रावली देखने हेतु यहाँ क्लिक करें.
ये बताइयेगा की चित्रों के नीचे लिखे हुए काप्श्न्स कैसे लगे और यदि इनको देखकर सिएटल घूमने का मन बने तो भी सूचित कीजियेगा :)
प्रेषक: अभिनव @ 4/12/2008 5 प्रतिक्रियाएं
कायस्थ है न
Apr 11, 2008'हे भगवान्, ये लो गई भैंस पानी में,
अब आई आई टी और आई आई एम् में भी आरक्षण होगा.'
'हाँ, तो क्या, वहां पहले से ही आरक्षण है,
केवल जो पढ़ लिख पाता है उसी को प्रवेश मिलता है,
और एस सी, एस टी भी है.'
'वो भी ग़लत है, पढ़ाई में कैसा आरक्षण,
और अगर देना भी है तो आर्थिक आधार होना चाहिए,
जाति के आधार पर आरक्षण, राम राम,
एक तरफ़ तो दावा की सब समान हैं और दूसरी ओर ये सब.'
'भारत को जानते भी हैं आप,
लोहिया को पढिये जाकर,
बैठ कर बातें बनाते हैं.'
'क्यों लोहिया को पढ़ लूंगा,
तो क्या कॉल सेंटर वाले मेरे लड़के को नौकरी दे देंगे,
फालतू बात करते हैं,
अच्छा ये बताइए की अभी ही कितने आरक्षण वाले पास होकर निकल रहे हैं इनसे,
ब्रांड इंडिया की ऐसी तैसी हो जायेगी,
ये मुद्दा अबकी चुनाव में उठेगा ज़रूर,
तब देखेंगे की आप क्या दलील देते हैं.'
'चुनाव में उठायेंगे,
हा हा हा हा आपको टिकट कौन पार्टी देने जा रही है,
मैडमजी, अटलजी, लालूजी या बहनजी,
भाई हमारे देस में जो पिछडे हैं दलित हैं जनजाति वर्ग है,
सबको आगे बढ़ने का बराबर हक मिलना चाहिए,
ये नही की सब सवर्ण ही कुंडली मार कर बैठ गए.'
'ठीक है ठीक है,
अब आपसे बहस में थोड़े ही न जीतेंगे,
अच्छा छोडिये अपना एक लड़का कल इंटरव्यू दे रहा है,
आप ही के कालेज में,
ज़रा देख लीजियेगा.'
'क्या नाम है,
कायस्थ है न.'
इस प्रकार एक बार फिर हमारे देश का एक ज्वलंत मुद्दा अपनी परिणति तक,
पहुँचता पहुँचता रह गया.
प्रेषक: अभिनव @ 4/11/2008 9 प्रतिक्रियाएं
साक्षात्कार - हिंद युग्म के मित्र
Apr 10, 2008इधर हमको दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में जाने का अवसर प्राप्त हुआ. वहां हिंद युग्म के मित्रों से मिलने का सुअवसर मिला. हमने 'पहला सुर' खरीदा तथा अपने ऍम पी ३ रिकॉर्डर में उनमें से कुछ महानुभावों के साक्षात्कार भी रेकॉर्ड कर लिए. हम तो औरों के भी करना चाहते थे पर दुकान बंद करने का समय हो चुका था और सुरक्षा विभाग के लोग अपनी सीटी बजाते हुए, डंडा फटकारते हुए 'हिंद युग्म' के स्टाल पर धरना प्रदर्शन करने लगे थे. आवाज़ कुछ बहुत बढ़िया नहीं आई है, कुछ रिकॉर्डर की कमी के कारण और कुछ मेरी अल्पज्ञता के कारण. अतः जो भी जैसा रेकॉर्ड हो सका है उसको आप तक अपने ब्लॉग द्वारा पहुँचने का प्रयास कर रहा हूँ. ये साक्षात्कार तथा कवितायेँ रेडियो सलाम नमस्ते के कवितांजलि कार्यक्रम में प्रसारित हो चुके हैं तथा इनको काफ़ी पसंद भी किया गया है.
पहली प्रस्तुति में आप रंजना रंजू जी, निखिल आनंद गिरी जी, सुनीता चोटिया जी, मनीष वंदेमातरम जी तथा शैलेश जी की कवितायेँ सुन सकते हैं.
और इस दूसरी प्रस्तुति में सुनते हैं की शैलेश भारतवासी जी अपने बारे में क्या क्या रहस्य की बातें बता रहे हैं.
पुस्तक मेले में सब लोगों से मिलना एक बड़ा अच्छा अनुभव रहा. बड़ी दूर तक स्मृतियों में अंकित रहेगा.
प्रेषक: अभिनव @ 4/10/2008 2 प्रतिक्रियाएं
कमाल हो गया - एक तिब्बतीय संवेदना
Apr 9, 2008
'ज़रा देखो तो,
ये तिब्बत वाले कितना उछल रहे हैं,
ज़रा ऊँगली पकडाओ तो पहुँचा पकड़ने के लिए जम्प करने लगते हैं.'
'क्यों भाई! तुम्हें पता भी है की चीन नें क्या किया है,
या बस यूं ही सुबह सुबह मसाला मुंह में दबाया और चालू हो गए.'
'अरे कुछ किया हो चीन नें,
हम तो ये जानते हैं की चीन से पंगा लेने का नहीं,
वैसे भी कौन सा तिब्बत पर हमारा कब्ज़ा होने जा रहा है,
बिना मतलब के बवाल में काहे टांग अटकानी.'
'कैसी बात करते हो,
ग़लत चीज़ तो ग़लत ही होती है चाहे कोई भी करे.'
'हाँ यही तो मैं भी कह रहा हूँ,
जैसे तसलीमा को भगाया है,
लगता है वैसे ही अब दलाई लामा के जाने का नम्बर आ रहा है,
अमाँ ये सब छोडो,
ये बताओ पे कमीशन कब लागू करवा रहे हो,
पीक बहुत बनती है मसाले में,
पुच्च, पुच्च, थू, थू, थू, थू.'
और इस प्रकार हमारी पुण्य पावन भारत भूमि का एक और टुकडा लाल हो गया,
कमाल हो गया.
प्रेषक: अभिनव @ 4/09/2008 3 प्रतिक्रियाएं
महंगाई मार गई
Apr 8, 2008
'ऐ रिक्शा!,
बड़े बाज़ार चलोगे'
'हाँ बाबूजी चलेंगे,
क्यों नहीं चलेंगे.'
'कितने पैसे.'
'दो सवारी के बीस रुपए.'
'स्टेशन से बड़े बाज़ार तक के बीस रुपए,
लूटोगे क्या भाई,
अभी पिछले महीने तक तो पन्द्रह रुपए पड़ते थे,
शहर में नया समझा है क्या.'
'नया काहे समझेंगे,
इधर दाम बढ़ गए हैं,
आटा, दाल, चीनी, तेल, सब्जी सबके दाम डबल हो गए हैं,
देखिये हर चीज़ में आग लग गई है.'
'अरे! तो क्या हमसे निकालोगे सारा पैसा.'
'अजी सुनिए, आप क्यों बहस करते हैं,
मैं कहती हूँ कि,
ऑटो कर लेते हैं,
तीस रुपए लेगा लेकिन जल्दी तो पहुँचा देगा.'
'अरे ऑटो!
इधर आना.'
'बैठिये बाबूजी पन्द्रह ही दे दीजियेगा.'
'बड़ा ख़राब ज़माना आ गया है.'
'मैं कहती थी न, ये लोग ऐसे नही मानते हैं.'
'चलो बैठो.'
रिक्शा चल पड़ता है,
और तभी सड़क पर लगा भोंपू गाना बजाता है,
'बाकी कुछ बचा तो,
महंगाई मार गई,
महंगाई मार गई.'
प्रेषक: अभिनव @ 4/08/2008 5 प्रतिक्रियाएं
शतकीय पोस्ट - एक हास्य कविता - पतलम मंत्र
Apr 7, 2008ये लीजिये धीरे धीरे कर के हम भी शतकीय क्लब में शामिल हो रहे हैं. आज हमारी सौंवी पोस्ट के रूप में अपनी नई कविता 'पतलम मंत्र' प्रस्तुत कर रहे हैं. मुट्टम मंत्र पढ़ पढ़ कर हमारा वजन नित नई ऊँचाइयाँ तय करने लगा था. उसी को वापस अपनी सीमा में लाने का भाव मन में लिए हुए ये रचना लिखी है.
पतलम मंत्र
जाएँ जाकर देख लें धर्म ग्रन्थ और वेद,
कोई न बतलायेगा मोटापे का भेद,
मोटापे का भेद क्या साहब क्या चपरासी,
फूली तोंद, मुक्ख पर चर्बी, खूब उबासी,
सुधड़ देवियाँ देवों से जब ब्याह रचाएं,
दो दिन में मोपेड से ट्रेक्टर बन जाएँ.
कद्दू आलू गबदू थुलथुल गैंडे भैंसे,
संबोधन सुनने पड़ते हैं कैसे कैसे,
कैसे कैसे संबोधन ये मोटा मोटी
कहते सूख रही चादर जब धुले लंगोटी,
अपमानों को पहचानो अब मेरे दद्दू,
मन में ठानो कोई नहीं अब बोले कद्दू.
मोटे लोगों का सदा होता है उपहास,
दुबले होते ही डबल होता है विश्वास,
होता है विश्वास हृदय में अंतर्मन में,
आती है वो पैंट जिसे पहना बचपन में,
आयु में भी पाँच बरस लगते हैं छोटे,
रहते हैं खुश लोग वही जो न हैं मोटे.
मोटू लाला ब्याह में गए तो सीना तान,
जयमाला को भूल कर ढूंढ रहे पकवान,
ढूंढ रहे पकवान वो रबडी भरी कटोरी,
नाक कटा कर रख देती है जीभ चटोरी,
तभी कैमरा वाले आकर ले गए फोटू,
खड़े अकेले खाय रहे हैं लाला मोटू,
सोचो ये चर्बी नहीं बल्कि तुम्हारी सास,
दूर भगाने हेतु इसको करो प्रयोजन खास,
करो प्रयोजन खास लड़ाई की तैयारी,
सास बहू में एक ही है सुख की अधिकारी,
जीवन गाथा से आलस के पन्ने नोचो,
हट जायेगी चर्बी अपने मन में सोचो.
जाकर सुबह सवेरे श्री रवि को करो प्रणाम,
निस बासर जपते रहो राम देव का नाम,
राम देव का नाम बड़े ही प्यारे बाबा,
बिना स्वास्थ्य के आख़िर कैसा काशी काबा,
प्राणायाम करो हंसकर गाकर मुस्का कर,
रोज़ शाम को पति पत्नी संग टेह्लो जाकर.
आगे बढ़ती जाएँ ये प्रतिपल बोझ उठाये,
इनकी ऐसी स्तिथि अब देखी न जाए,
अब देखी न जाए न कुछ भी हमसे मांगें,
वजन घटाओ देंगी दुआएं अपनी टाँगें,
मान लो यदि कभी जो कुत्ता पीछे भागे,
हलके फुल्के रहे तो ये ही होंगी आगे.
हम दुबले हो जाएँ तो रिक्शा न घबराए,
ऑटो अपनी सीट पे दो की चार बिठाए,
दो की चार बिठाए कभी न आफत बोये,
सुंदर कन्या चित्र हमारा लेकर सोये,
यदि ऐसा हो जाए तो फिर काहे का ग़म,
मैराथन भी दौडेंगे चार दिनों में हम.
करेंगे अब क्या भला लल्लू लाल सुजान,
दुबले हैं हिर्तीक और दुबले शाहरुख़ खान,
दुबले शाहरुख़ खान पेट की मसल दिखायें,
उसी उमर के चच्चा अपना बदन फुलाएं,
वह भी दुबले होकर के रोमांस करेंगे,
शर्ट उतारेंगे फिर डिस्को डांस करेंगे.
आए फ़ोन से फ़ूड और बैठे बैठे काम,
टीवी आगे जीमना क्या होगा अंजाम,
क्या होगा अंजाम बात निज लाभ की जानो,
देता पतलम मंत्र तुम्हें इसको पहचानो,
कह अभिनव कविराय जो इसको मन से गाए,
चार दिनों में हेल्थी वेट लिमिट में आए.
प्रेषक: अभिनव @ 4/07/2008 9 प्रतिक्रियाएं
Labels: हास्य कविता