पिछले सप्ताहांत (२१ जुलाई २००७) हमें कैलीफोर्निया में आयोजित एक कवि सम्मेलन में जाने का अवसर मिला। भारतीय मूल के कुछ लोग मिल जुल कर कार्यक्रम कर रहे थे तथा कवि सम्मेलन द्वारा सात्विक आनंद की प्रप्ति करना चाहते थे। शनीवार की सुबह सुबह मैं और मेरी पत्नी सामान बांध कर सिएटल से सेंट फ्रांसिसको की ओर जाने वाला विमान पकड़ने चल पड़े। सुबह सुबह निकलने के कारण वह समय याद आ गया जब लखनऊ से दिल्ली जाने के लिए गोमती एक्सप्रेस पकड़ने भागते थे। सिएटल में गर्मियों के दिनों में सूर्य देव सुबह चार बजे करीब ही अपना जल्वा दिखाना प्रारंभ कर देते हैं तथा रात के नौ, सवा नौ बजे तक अपने होने का एहसास कराते रहते हैं। जब हम सोकर उठे तो सुबह हो चुकी थी और जब हम साढ़े छह बजे की फ्लाइट में बैठे तो धूप भी खिल आई थी।
कवि सम्मेलन अपने नियत समय से लगभग घंटा भर देरी से प्रारंभ हुआ। नगरी के प्रसिद्ध विद्वान श्याम नारायण शुक्ल जी नें श्रोताओं को हमारा परिचय दिया, उन्हीं के भाई श्री देवेन्द्र नारायण शुक्ल जो कि एक अच्छे कवि तथा कविता के मर्मज्ञ हैं, इस कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे। वहाँ पहली बार अर्चना पाँडा जी को सुनने का अवसर मिला। अपने भावों को शब्दों में ढाल कर बड़े सुंदर तरीके से अर्चनाजी नें प्रस्तुत किया। उनकी कविताएँ सुनकर बड़ा आनंद आया तथा यह देखकर भी अच्छा लगा की अपने आस पास होने वाली घटनाओं और गतिविधियों को उन्होंने अपनी कविताओं का विषय बनाया है। अर्चनाजी का विडियो आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं।
देवेन्द्र नारायण शुक्ल जी नें भी बढ़िया हास्य कविताएँ सुनाईं। सिएटल से चलते समय राहुल उपाध्यायजी नें हमसे कहा था कि देवेन्द्र जी से गेट्स वाली कविता अवश्य सुनना अतः हमने वह भी सुनी। कविता का मूल भाव था कि, गेट्स नाम होने के बावजूद बिल नें विन्डोज़ क्यों बनाई। नीलू गुप्ता जी नें भी बढ़िया रचनाएँ सुनाईं। उनकी कविताएँ हमनें विश्व हिंदी सम्मेलन में भी सुनी थीं तथा आनंदित हुए थे। यहाँ पुनः उनको सुनने का अवसर प्राप्त कर अच्छा लगा। उन्होंने अपनी कविताओं की पुस्तक, "जीवन फूलों की डाली" भी हमको भेंट करी।
यह हमारा पहला कवि सम्मेलन था जिसमें लोग गोल गोल टेबल्स के चारों ओर बैठे थे। हमनें टीवी पर बिज़नेस अवार्डस आदि में ऐसी कुर्सी मेज व्यवस्था देखी थी। पहले हमें लग रहा था कि कहीं किसी को रुचि न आई तो लोग कविताएँ सुनना छोड़ आपस में बतियाने लगेंगे। पर ऐसा नहीं हुआ और सबने बड़े मनोयोग से काव्य पाठ को सुना। कवि सम्मेलन के उपरांत स्टैंड अप कमेडी का कार्यक्रम हुआ जिसमें संस्था के एक कलाकार नें खूब चुटकुले सुनाए। यह तो अच्छा था कि कवियों में से किसी नें चुटकुलेबाज़ी नहीं करी अन्यथा कंपटीशन वाली बात हो जाती।
एक और आईटम पेश हुआ, कार्यक्रम के प्रारंभ में एक सज्जन नें हिंदी के लिए "डाईंग लैंग्वैज" संबोधन का प्रयोग किया था अतः उनसे मैंने कहा कि यदि किसी भाषा का हमारा ज्ञान कम हो रहा हो तो यह समझना चाहिए कि हमारी योग्यता में कमी आ रही है न कि भाषा की सांसे कम हो रही हैं। एक भाईसाहब बाद में मिले तो बोले कि वे अमेरिका के परिपेक्ष में बात कर रहे थे तो हमनें उन्हें समझाया कि आज से पचास वर्ष पहले क्या कोई अमेरिका में हिंदी कवि सम्मेलन सुनने की, फिल्में देखने की बात सोच सकता था। आज यह सब हो रहा है, अतः घबराएँ नहीं सकारात्मक सोच रखें और मस्त रहें। कुल मिला कर कार्यक्रम बढ़िया रहा तथा सब लोग हंसते हंसते अपने घर गए। कार्यक्रम के कुछ चित्र नीचे प्रेषित कर रहा हूँ।
काव्य पाठ करते हुए अभिनव तथा मंच पर उपस्थित नीलू गुप्ता, अर्चना पांडा एवं देवेन्द्र शुक्ल
कवि सम्मेलन के बाद की तस्वीर
हम पहली बार कैलीफोर्निया गए थे अतः अगले दिन सेंट फ्रांसिसको नगरी घूमने गए। घुमाई फिराई के कुछ चित्र नीचे प्रेषित कर रहा हूँ।
गोल्डेन ग्लोब का एक दृश्य (यह इमारत रोमन वास्तुकला के प्रभावित होकर बनाई गई लगती है।)
हम ज़रा ज़्यादा ही मुटा गए हैं, अब मुट्टम मंत्र की जगह पतलम मंत्र का पारायण करना चाहिए।
ये हैं हमारे मामाजी, मामीजी एवं उनकी पुत्री (फोटे देख कर वे बोले कि यह तो बिल्कुल जीवन बीमा के विज्ञापन की तस्वीर हो गई।)
ये मशीन चाकलेट बना रही है।
ढ़लान पर बनी टेढ़ी मेढ़ी सड़क पर कारों का कारवाँ।
महा लिख्खाड़
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नाप तोल
कैलीफोर्निया में कवि सम्मेलन - कुछ तस्वीरें तथा कुछ बातचीत
Jul 26, 2007प्रेषक: अभिनव @ 7/26/2007 7 प्रतिक्रियाएं
Labels: समाचार
हम, हिन्दी और सम्मेलन - कुछ तस्वीरें कुछ जज़्बात
Jul 19, 2007प्रः सुनते हैं आप भी विश्व हिंदी सम्मेलन में गए थे, क्या किया वहाँ जाकर?
उः कई काम किए, जैसे;
१ - वहाँ प्रकाशित होने वाले सम्मेलन समाचारों में एक संवादाता की हैसियत से काम किया।
२ - अभिव्यक्ति पर व्यंग्य समाचारों का संपादन किया।
३ - अंतिम दिन हुई काव्य गोष्ठी में कविताएँ सुनाईं।
४ - रेडियो सलाम नमस्ते पर हुए लाईव कवि सम्मेलन का संचालन किया।
५ - बहुत से महान लोगों के दर्शन का लाभ प्राप्त किया। बात किसी से कुछ खास नहीं हो सकी। बात तो वन आन वन ही हो पाती है, भीड़ में नहीं। (कुछ के साथ फोटो अवश्य खिंचवाई।)
६ - आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन की चित्र प्रदर्शनी में हमारे पाँच छह चित्र लगे थे। (डा अंजना संधीर और रानी सरिता जी की टीम नें इस प्रदर्शनी के लिए बड़ी तैयारी करी थी, पूरे अमेरिका में होने वाले भाषा संबंधी कार्यक्रमों के चित्र इसमें लगाए गए थे। )
७ - हमारी पुस्तक 'अभिनव अनुभूतियाँ' का पुनः विमोचन हुआ। (जिस प्रकार यह हुआ उससे तो ना ही होता तो अच्छा था। मंत्री महोदय को कहीं जाने की जल्दी थी तथा उन्हे बीस पुस्तकों का विमोचन करना था, अतः उन्होंने आयोजकों को डाँटते हुए, लेखकों पर धौंस जमाते हुए, एहसान जताते हुए विमोचन का ड्रामा किया। हम तो भाई तुरंत मंच से उतर गए। लेखक अपनी पुस्तक कभी मंत्रियों के लिए नहीं लिखता है, वह लिखता है उनके लिए जो किसी को भी मंत्री बना सकते हैं, अतः हम भला क्यों किसी की धौंस देखें। खैर, अंत में फोटे सेशन हुतु हमको दुबारा बुला लिया गया तथा हमनें यह सौभाग्य उन्हें प्रदान कर दिया।
८ - जो सबसे अच्छी बात रही इस बार न्यूयार्क जाने की वह ये कि हमें अपने मित्र भारतभूषण से मिलने का अवसर मिला, तथा उनसे बढ़िया चर्चाएँ हुईं। अपने भाई रिपुदमन की कविताएँ सुनने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। अनूप भार्गव जी, राकेश खण्डेलवाल जी, लावण्या दीदी, घनश्याम गुप्ता जी, लक्ष्मण ठाकुर जी, राकेश भार्गव जी, अशोक व्यास जी, बालेन्दु जी, विजय कुमार मलहोत्रा जी, डा विनोद तिवारी, डा निखिल कौशिक तथा अन्य अनेक महानुभावों से मिलना भी आनंददायी अनुभव रहा।
प्रः क्या आप सरकारी खर्च पर गए थे?
उः नहीं, हम अपने ही खर्च पर गए थे। (अगली बार जुगाड़ भिड़ाने की कोशिश करेंगे।)
प्रः आपको क्या लगता है, कुछ लाभ हुआ है भाषा को इस सम्मेलन से?
उः पता नहीं।
प्रः क्या आप अगले सम्मेलन में भी जाना चाहेंगे।
उः हाँ
प्रः अपने वहाँ जाकर क्या ग्रहण किया?
उः मुख्य बिन्दु निम्न रहे;
१ - सत्रों में सुनने की इच्छा मन में लेकर कम लोग बैठते हैं। (हर आदमी बोलना चाहता है।)
२ - एक दो सत्रों को छोड़ दें तो बाकी में अच्छा संवाद नहीं हो पाया।
३ - कुछ सत्रों में संचालक को पता नहीं था कि कौन बोलने वाला है, कुछ में बोलने वाले गायब थे तो कुछ में संचालक स्वयं नदारद थे। कई बार ऐसा लगा मानो कर्ज़ा अदायगी हो रही है।
४ - फूल माला शाल धन्यवाद स्वागत आदि में बहुत समय व्यर्थ हुआ, इसका प्रयोग भली प्रकार हो सकता था।
५ - अंत में प्रस्ताव पास हुआ पर ऐक्शन आईटम्स और फौलो अप की व्यवस्था नहीं दिखी।
६ - राजनीतिक रंग भी रहा, कांग्रेस का बोलबाला और बीजेपी का मुँह काला टाईप। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम अनेक बार सुनाई पड़े। उपस्थित मंत्रियों की चापलूसी भी भर भर के मंच और बेमंच दोनो से हुई।
७ - कई बार लड़ाई झगड़े और मन मुटाव की स्थिति पैदा हुई। हिंदी वालों में जो एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या का भाव है वह अनेक स्थलों पर शब्दों के रूप में फूटा। कोल्ड वार्स की तो गिनती ही नहीं है (मुख्य कवि सम्मेलन में जब हमको कवि सम्मेलन में कविता पढ़ने हेतु नहीं बुलाया गया तो हमनें सोचा की बस हो गया अशोक चक्रधर जी के समाचार पत्र में कोई काम नहीं करेंगे। हम हभी गुस्सा होने ही जा रहे थे कि सामने अपने से दिग्गज लोगों को गुस्सा होते देखा और फिर स्वयं पर लज्जित हुए तथा मन को समझ में आया कि डेढ़ घंटे में चालिस कवियों को पढ़वाना आसान काम नहीं है। वैसे बड़े से बड़ा आदमी क्रोध करता हुआ अजीब लगता है, अतः यह शिक्षा भी ग्रहण कर ली कि क्रोध से नहीं बोध से मन पर विजय पाओ।)
८ - अभी ब्लाग को बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा है।
९ - कुछ लोग जो दूर से बहुत बड़े दिखते थे, वे पास से खाली घड़े दिखते थे। (पर कुछ बड़े ऐसे थे जो सचमुच बड़े थे, दर्शन और अनुभव के सूत्र जिनके चरणों में पड़े थे।)
१० - अनूप भार्गव जी का उद्बोधन अच्छा लगा। आप इस लिंक पर जाकर इसे देख और सुन सकते हैं।
प्रः क्या हमारे पाठकों को आप और कुछ सुनाना चाहेंगे।
उः सम्मेलन से पहले साहित्य अमृत के संपादक नें हमसे इसी में विमोचित होने वाली पत्रिका के लिए व्यंग्य मंगवाया था। वही प्रस्तुत करेंगे, पर पहले ये चित्र देख लीजिए।
संयुक्त राष्ट्र संघ के बाहर
अनौपचारिक काव्य गोष्ठी (जो जो कवि मुख्य कवि सम्मेलन में नहीं पढ़ पाए उनको यहाँ अवसर मिला।)
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति की डेस्क
संयुक्त राष्ट्र संघ से फैशन इंस्टीट्यूट जाने वाली बस पर चढ़ने की तैयारी (एक अनार सौ बीमार)
अभिनव, राकेश पाण्डेय, बालेन्दु शर्मा 'दधीच' और पंकज दुबे
लाईव कवि सम्मेलन के बाद कवियों के संतुष्ट चेहरे
ज़बरदस्ती पकड़ कर खिंचवाई गई तस्वीरें
हम, हिन्दी और सम्मेलन (साभारः साहित्य अमृत)
जबसे हमें यह पता चला है कि यह लेख विश्व हिंदी सम्मेलन में विमोचित होने वाली पत्रिका के लिए लिखा जा रहा है, मन में एक विशेष प्रकार के उल्लास का संचार हो रहा है। सम्मेलन में जब संसार भर के ख्यात विख्यात जन हमारे लेख को पढ़ेगे तो पत्रिका का पन्ना फड़फड़ा-फड़फड़ा कर अपनी प्रसन्नता का इज़हार करेगा। मन में कहीं दबा छुपा यह भाव भी है कि, कोई हमें भी सम्मेलन में बुला ले, ये क्या कि बस पत्रिका का विमोचन होगा, बिना लेखकों का सम्मान किए, बिना शाल वाल पहनाए होने वाले विमोचन का क्या महत्व। फिर लगता है कि चलो लेख ही छप जाए, ये सम्मान वम्मान तो होता रहेगा, हम कहाँ भागे जा रहे हैं। सुनते हैं कि सम्मेलन में आने को लिए दिल्ली में साल भर पहले से लाईन लगनी शुरू हो गई थी। किसने लाईन लगाई तथा किसके सामने लगाई इसका कुछ पता नहीं चला। परंतु जिससे भी पूछते सब यही कहते कि हम कहाँ जा पाएँगे दिल्ली में तो साल भर से लाईन लग रही है।
वैसे मुझे सम्मेलनों का बहुत अधिक अनुभव नहीं है, मुझे कभी वक्ता के रूप में बुलाया नहीं गया और इससे कम में जाना अपने को जंचा नहीं। पर जो थोड़े बहुत सम्मेलन मैंने कवि के रूप में देखे हैं उनसे यही लगता है कि सब बड़ा मायाजाल है। ज्यादातर लोगों का सम्मेलन के मूल भाव से कोई सारोकार नहीं होता है तथा वे आम तौर पर घूमने फिरने तथा मंच पर बोलने तथा बैठने के लिए सम्मेलनों में जाते हैं। सुनने के लिए कम ही लोग जाते हैं। अब ये कोई ब्रिटनी स्पियर्स का नया पाप गीत तो है नहीं कि लोग सुनने जाएँ।
मान लीजिए मंच पर पाँच लोग बैठे हैं और एक सज्जन अपना आलेख पढ़ रहे हैं तो बाकी सबके मन में हलचल होती रहती है। पहले साहब अपने पड़ोसी से कहते हैं,
'महोदय पन्द्रह मिनट के लिए खड़े हुए थे, पच्चीस मिनट से बोले जा रहे हैं, यह नहीं सोच रहे हैं कि अगले को भी कुछ कहना है। सम्मेलन न हो मज़ाक हो।'
दूसरे साहब भी कम थोड़े ही हैं वे आनंदित होते हुए कहते हैं,
'अरे, पिछले कार्यक्रम में तो ये डेढ़ घंटे बाद बैठे थे, आज भी लगता है मूड में आ गए हैं।'
तीसरे साहब नेपथ्य में देख कर बड़बड़ाते हैं,
'अमाँ, मंच पर चाय पानी भिजवाओ। एक तो हिन्दी के कार्यक्रमों में सुंदर चेहरे भी नहीं आते हैं अब भला श्रोताओं में बैठे बुज़ुर्गों को कब तक कोई देखे।'
चौथे साहब पांचवे से कहते हैं,
"आपने सुना अपने हलधर साहब को पद्मश्री मिल रही है।"
पांचवे आह भरते हैं,
'हाँ भाई, हमें कौन पूछेगा। ये हलधर कल तक मेरे सामने हाथ जोड़े खड़ा रहता था, पर अब तो बड़ा आदमी बन गया है।'
बीच बीच में वक्ता विषेश रूप से मंच का ध्यान आकृष्ट करने हेतु दो चार पुछल्ले छोड़गा,
'मंच का विषेश ध्यान चाहूँगा', 'मेरे साथी जो मेरे साथ बैठे हैं वे सभी इससे सहमत होंगे कि हम समय बर्बाद कर रहे है' आदि इत्यादि। और सभी साथी हाँ हाँ में सिर हिलाते पाए जाएँगे। कवि जमात के हुए तो वाह वाह, बहुत बढ़िया भी बोल सकते हैं।
हम कोई सम्मेलनों के विरोधी नहीं हैं, परंतु मन में यह तो लगता ही है कि अनेक विषयों पर अनंत चर्चा के बाद भी कार्यक्रम के अंत में कार्य भी निर्धारित नहीं होते हैं, काम भी नहीं बाँटा जाता है, बस अचानक समाप्ति की घोषणा हो जाती है। अरे भाई, जब इतना बड़ा आयोजन किया है, इतने लोग एक जगह जुटाए हैं तो यह भी सोचना चाहिए कि विषय के परिपेक्ष में हम कहाँ हैं और आगे हमें कहाँ जाना है? कुछ 'ऐक्शन आईटम्स' भी निर्धारित होने चाहिए। उनकी ज़िम्मेदारी का भी विभाजन होना चाहिए तथा फिर यह भी देखना चाहिए कि जो निर्धारित हुआ था उस पर कुछ काम हुआ या नहीं। आम तौर पर सम्मेलनों का इन सबसे कोई मतलब नहीं होता है।
खैर, यह तो थी सम्मेलन की बात, पर शायद भाषा नदी की तरह होती है जो कि अपना रास्ता खुद बना लेती है। हम लोग कहीं बांध बनाते हैं तो कहीं फूल चढ़ाकर अपना रोल अदा करते हैं। हिन्दी की वृहदता के चलते इसके अनेक रूप भी प्रचलित हैं तथा हर रूप में एक विषेश प्रकार का आनंद समाहित है। विदेश में अच्छी हिंदी में बातचीत करने का अपना मज़ा है। कई बार तो लोग ऐसे घूर कर देखते हैं मानो किसी और गृह का प्राणी उनके बीच आ गया हो। जब हमसे कोई दक्षिण भारतीय मिलता है और कहता है कि, "आपका हिन्दी बहुत अच्छा है, कइसे।", तब हम उसे समझा देते हैं कि भाई लखनऊ में सब ऐसे ही बातचीत करते हैं। यह अच्छी नहीं साधारण भाषा है, अच्छी तो अज्ञेय जी की हिन्दी थी। वह समझ जाता है। पर जब हमसे कोई लखनऊ वाला अपने शब्दों में दया भाव भरता हुआ कहता है कि भाई, तुम्हारी लैंग्वेज बहुत बढि़या है, इट्स रियली नाईस, क्या यूपी बोर्ड से पढ़े हो। तब हम सोचते हैं कि इसे क्या समझाएँ। अगर भाषा का अच्छा होना किसी बोर्ड पर निर्भर होता तो ये जितने भी प्रवासी भारतीयों के बच्चे हैं, कोई भी हिन्दी न बोल पाता। भाषा का अच्छा या बुरा होना किसी भी व्यक्ति का अपना व्यक्तिगत चुनाव है।
वैसे अपनी भाषा का प्रसार भी नित नई सिंहगढ़ विजय कर रहा है, मेरे दफ्तर की टीम में इटली, आईरलैंड, इंगलैंड, कनाडा, चीन, भारत तथा अमेरिका के लोग हैं, हम सब एक जापानी मैनेजर को रिपोर्ट करते हैं। धीरे धीरे सबको हिन्दी फिल्मों का चस्का लगना प्रारंभ हो गया है। नमस्कार के चमत्कार से भी लगभग सब परिचित हो गए हैं। समय के साथ बात आगे ही बढ़नी चाहिए। हिंदी के साथ भी नित नए अभिव्यक्ति के माध्यम जुड़ते जा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में ब्लागजगत नें धूम मचा दी है। दुनिया भर के हिंदीभाषी अपनी कविताएँ, लेख तथा कहानियाँ ब्लाग के माध्यम से एक दूसरे को पढ़ा रहे हैं। आप में से जो लोग कभी नारद (ब्लाग पोर्टल - www.narad.akshargram.com) की गलियों से नहीं गुज़रे उन्हें बता दूँ कि बड़ी बहसबाजी चलती है वहाँ। राजनीति, झगड़े, झंझट, गीत, ग़ज़ल सबकी एक अलग दुनिया बसी हुई है। कोई बड़ी बात नहीं है कि कल ये ब्लाग वाले अपने आपको हिंदी का पैरोकार बताते हुए ऐसे सम्मेलनों पर कब्ज़ा करने का प्रयास करें। परंतु मुझे पूरा विश्वास है कि उनकी कोशिशों को नाकाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी।
इधर हम भी एक विशुद्ध अमेरिकन को हिंदी पढ़ा कर कृतकृत्य हो रहे हैं।
एक दिन हमारी शिष्या नें हमसे प्रश्न पूछा कि 'धन्यवाद' तथा 'शुक्रिया' में क्या फर्क है?,
हमनें उसे भाषा की प्रगाढ़ता और लोकतांत्रिकता समझाते हुए बतलाया कि, दोनो ठीक हैं कुछ लोग 'श' को 'स' बोलते हैं, अतः वे 'सुक्रिया' की जगह 'धन्यवाद' कहते हैं, तथा कुछ लोग 'व' को 'ब' उच्चारित करते हैं अतः वे 'धन्यबाद' की जगह 'शुक्रिया' कहते हैं।
इसपर उसने पूछा कि यदि कोई 'श' को 'स' तथा 'व' को 'ब' बोलता हो, डबल त्रुटियाँ हों, तो वो क्या कहता है।
हमने उसे बता दिया कि वो 'थैंक यू' बोल देता है।
वो बोली 'थैंक यू सर'।
प्रेषक: अभिनव @ 7/19/2007 21 प्रतिक्रियाएं