विजय तेंदुलकर के सुप्रसिद्ध नाटक 'कन्यादान' का मंचन सिएटल की सांस्कृतिक संस्था प्रतिध्वनि द्वारा वॉशिंग्टन विश्वविद्यालय स्थित, जातीय सांस्कृतिक केंद्र के सभागार में किया गया। प्रतिभा सदैव नयी चुनौतियों की तलाश में रहती है. चुनौती जितनी कठिन हो उसे स्वीकार करने का आनंद भी उतना ही अधिक होता है. पिछले वर्ष प्रतिध्वनि की नाट्य मंडली शरद जोशी के नाटक "एक था गधा उर्फ़ अलादाद खां" का सफलतापूर्वक मंचन कर चुकी है. एक व्यंग्यात्मक नाटक की सफलता के बाद एक गंभीर विषय को उठाना बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य होता है. मुझे ऐसा लगता है कि इस चुनौती का सामना इस नाटक से जुड़े सभी कलाकारों नें डट कर किया है तथा इसमें सफलता भी प्राप्त की है.
नाटक की विषयवस्तु एक समाजवादी ब्राह्मण विधायक के परिवार तथा उसके दलित दामाद के आस पास घूमती है. यह एक ऐसा नाटक था जिसकी सफलता पूरी तरह से इसके पात्रों के अभिनय और संवाद अदायगी पर टिकी हुयी थी. अनेक कलाकारों नें अपने पात्र के साथ न्याय करते हुए दर्शकों को प्रभावित किया.
कन्या की मां का पात्र निभाने वाली नंदा नें मां के प्रेम और क्रोध दोनों को मंच पर जीवंत कर दिया. मंच पर एक दृश्य में अपनी पुत्री को समझाते हुए मां की आँखों में आंसू आ जाते हैं. ये दृश्य देख कर दर्शक भी भावुक हुए बिना नहीं रह सकते. मुझे मुनव्वर राना की दो पंक्तियाँ याद आती हैं, 'कुछ इस तरह से मेरे गुनाहों को वो धो देती है, मां जब बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है'. नंदा का अभिनय सहज था तथा वास्तविकता का पुट लिए हुआ था शायद इसी वजह से दर्शक उनके संवादों से सीधे सीधे जुड़ रहे थे.
अभिनय की दृष्टि से कन्या के विधायक पिता का पात्र निभाना सबसे अधिक टेढ़ी खीर था. जयंत का अभिनय शुरू शुरू में कुछ असहज सा लगता है पर जैसे जैसे दर्शक नाटक में डूबता जाता है उसके अभिनय का प्रभाव बढ़ता जाता है. नाटक के अंत तक आते आते जयंत दर्शकों की साहनभूति प्राप्त करने में भी सफल रहे. जयंत नें घर के मुखिया के पात्र को बखूबी निभाया है.
एक आदर्शवादी पिता की पुत्री तथा एक दलिक लेखक की पत्नी के रूप में अदिति का अभिनय प्रभावशाली रहा. नाटक के प्रारंभ में अंतर्मुखी सी दिखने वाली लड़की आगे चल कर अपनी हिम्मत के बल पर कठिन परिस्थितियों का सामना करने वाली तथा अपने पक्ष को दृढ़ता पूर्वक सामने रखने वाली कैसे बन जाती है, यह परिवर्तन अदिति नें अपने भावों के सम्प्रेषण से भली प्रकार दिखाया है.
अंकुर गुप्ता नें एक दलित लेखक तथा कन्या के पति की भूमिका निभाई. ज्ञातव्य है कि अंकुर नगरी के लोकप्रिय कलाकार हैं तथा इस नाटक से पहले, 'आठ घंटे' जैसे नाटक में गंभीर पात्र का सटीक अभिनय कर चुके हैं. इस नाटक में अंकुर को देख कर लग रहा था कि उन्होंने इस पात्र को निभाने के लिए काफी मेहनत करी है. कन्या के भाई के रूप में भूषण नें भी सहज अभिनय किया है. कभी साहनभूति, तो कभी दुःख, तो कभी गुस्सा, सभी भावों का समन्वय करने में भूषण को सफलता प्राप्त हुई. सीपी और रवि मंच पर बस छोटे से दृश्य के लिए आये तथा अपने हाव भाव के चलते अपनी उपस्तिथि दर्ज करने में सफल रहे. मंच सज्जा तथा प्रकाश की व्यवस्था सौम्य रही.
नाटक का निर्देशन सधा हुआ था. अगस्त्य के अनुभवी निर्देशन नें इस चुनौतीपूर्ण नाटक को सरलता से ताने बाने में बांध लिया था. विजय तेंदुलकर के इस नाटक के साथ न्याय करने में अगस्त्य के निर्देशन नें कोई कसर नहीं छोड़ी है.
हांलाकि नाटक अच्छा रहा पर यदि हम एक विश्लेषात्मक दृष्टि डालें तो कुछ सुधार कि गुंजाईश भी दिखाई पड़ी. नाटक में गालियों के प्रयोग से बचा भी जा सकता था. एक दृश्य से दुसरे दृश्य में प्रत्यावर्तन करते समय बजने वाला संगीत नाटक की विषय वस्तु से मेल नहीं खा रहा था. पार्श्व संगीत का प्रयोग अंतिम दृश्य के लिए किया गया था जो कि अच्छा बन पड़ा था. अन्य दृश्यों में भी पार्श्व संगीत का प्रयोग किया जा सकता था.
एक जटिल नाटक के सफलतापूर्वक मंचन के लिए इससे जुड़े सभी लोगों को अनेक बधाइयाँ तथा शुभकामनाएं। यह आशा की जा सकती है की आने वाले समय में हमें प्रतिध्वनि नाट्य मण्डली की अगली प्रस्तुति शीघ्र ही देखने को मिलेगी.
* कन्यादान कि वेबसाईट यहाँ देखें.