नमस्कार मित्रों,
इधर काफी समय से कलम चलने से मना कर रही है, उँगलियाँ कीबोर्ड तक आकर रुक सी जा रही हैं। मन कह रहा है कि लिखने का कुछ उद्देश्य होना आवश्यक है। मित्र भारतभूषण कहते हैं कि अच्छे शब्दों में मीठे भावों को पिरो कर एक अच्छी कलाकृति तो बन सकती है पर वह साहित्य नहीं है, कविता नहीं है। इस परिपेक्ष में आस पास जो दिख रहा है सो लिख रहा हूँ। जगह जगह गज़ल के नियमों का उल्लंघन हुआ है, साधना में कमी के कारण। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।
ऊपर ऊपर से दुनिया को हंसता देख रहा हूँ मैं,
नित्य गले में कोई फन्दा कसता देख रहा हूँ मैं,
जैसे कोई नाव भँवर में घिर घिर घिरती जाती है,
वैसे खुद को इस जीवन में फँसता देख रहा हूँ मैं,
अगर नया कुछ करना है तो जल्दी ही करना होगा,
बैठे बैठे जाने किसका रस्ता देख रहा हूँ मैं,
दो कौड़ी में इज्ज़त, चार में ईमाँ, छह में बाकी सब,
माल आज भी बाज़ारों में सास्ता देख रहा हूँ मैं,
जाने कैसी देखभाल करती हैं वो अपने घर में,
अब भी अपने दिल की हालत खस्ता देख रहा हूँ मैं,
हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई गीत भले ही गाओ तुम,
नफरत की बस्ती को पल पल बसता देख रहा हूँ मैं,
लकड़ी से लकड़ी का नाता कितना गहरा होता है,
तेज़ कुल्हाड़ी का छोटा सा दस्ता देख रहा हूँ मैं,
वो सोने और चाँदी को अब प्लैटिनम् करते होंगे,
कैसे करते हैं हीरे को जस्ता देख रहा हूँ मैं,
मुरझाने वाले असली रंगों का दौर पुराना था,
नकली फूलों का 'अभिनव' गुलदस्ता देख रहा हूँ मैं.
महा लिख्खाड़
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ऊपर ऊपर से दुनिया को हंसता देख रहा हूँ मैं
Feb 16, 2006प्रेषक: अभिनव @ 2/16/2006 5 प्रतिक्रियाएं
Labels: गीतिका
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