स्वीकार तुम कर लो यदि...

Jul 10, 2009


संसार की सारी दिशाएं नृत्य अनुपम कर उठें,
मन्दिर की बुझती दीपिकायें टिमटिमा कर जल उठें,
झरने से झरता गीत भी थम जाए पल भर के लिए,
स्वीकार तुम कर लो यदि प्रस्ताव मेरे प्रेम का,

यह कंटकों की सेज फूलों से बनी चादर लगे,
विशकुम्भ ये पीड़ाओं का अमृत भरी गागर लगे,
सूरज की तपती धूप शीतल चांदनी सा नेह दे,
बाहों में तुम भर लो यदि ये गाँव मेरे प्रेम का,
स्वीकार तुम कर लो यदि प्रस्ताव मेरे प्रेम का,

रेत के सागर में खिल जाएँ बगीचे पुष्प के,
अश्रुओं से भीग जाएँ अधर मेरे शुष्क से,
दुर्गम हिमालय जीतना विचरण लगे बस सांझ का,
बन जाए तीरथ पुण्य ये भटकाव मेरे प्रेम का,
स्वीकार तुम कर लो यदि प्रस्ताव मेरे प्रेम का.

कब भला संन्यास छूटेगा तुम्हारा

Jul 9, 2009


रेत मुट्ठी से फिसलती जा रही है,
लौटने को है लहर छूकर किनारा,
चन्द्रमा की सौम्य किरणें पूछती हैं,
कब भला संन्यास छूटेगा तुम्हारा.

मौन रहने का अनूठा प्रण लिए हो,
बंद खिड़की और दरवाज़े किये हो,
स्वयं से छिपते, स्वयं को खोजते हो,
सत्य, मिथ्या, प्रेम, निष्ठा सोचते हो,
घुल चुका जिसमें सृजन का गीत अनुपम,
कब भला वो बोल फूटेगा तुम्हारा.

स्वप्न  भी कितने अधूरे अधबने हैं,
मन की पूछो बात तो हम अनमने हैं,
दर्द नें अब दोस्ती कर ली दवा से,
छत पे जलता दीप कहता है हवा से,
कब मिटेंगी दूरियां, कब हम मिलेंगे,
कब भला ये धैर्य टूटेगा तुम्हारा,

तूलिका से रंग का अनुराग हो तुम,
कृष्ण की वंशी का मधुरिम राग हो तुम,
झुंड से भटके हिरण सी है चपलता,
नैन में नटखटपना मुख पर सरलता,
जो सकल व्यक्तित्व आकर्षण भरा है,
वो भला क्यों चैन लूटे न हमारा,

इस ह्रदय के गीत की तुम गायिका हो,
ज़िन्दगी के मंच की तुम नायिका हो,
कुछ कंटीली, कुछ सुनहरी रहगुज़र है,
कष्ट सह कर मुस्कुराने का हुनर है,
ईश्वर का अंश है तुममें समाहित,
चाहता हूँ भक्त बन जाऊं तुम्हारा.

रेत मुट्ठी से फिसलती जा रही है,
लौटने को है लहर छूकर किनारा,
चन्द्रमा की सौम्य किरणें पूछती हैं,
कब भला संन्यास छूटेगा तुम्हारा.


पारस जादू


शब्द तुम्हारे हैं या पारस जादू हैं,
रोम रोम से प्यार छलकने लगता है,
नाम मोहब्बत रख दूँ तुमको इश्क़ कहूँ,
पर इससे अधिकार छलकने लगता है।


तुमने अपने दम पर उड़ना सीखा है,
गिर कर सँभलीं टूट के जुड़ना सीखा है,
मरुथल में आँसू की झील बनाई है,
उसमें कमल खिला कर मुड़ना सीखा है,
मैं अयोग्य, तुमसे अनुरोध करूँ कैसे,
इससे शिष्टाचार छलकने लगता है।

साथ तुम्हारे देखूँ पर्वत तालों को,
सुलझाऊं कुछ उलझे हुए सवालों को,
हाथ में लेकर हाथ सुनाऊँ गीत कोई,
आँखों ही आँखों में पी लूँ प्यालों को,
बोल तो दूँ, क्या क्या करने के सपने हैं,
पर इससे संसार छलकने लगता है ।

लखनऊ से गुज़रे हैं लोग तो बहुत से मगर...

May 23, 2009

श्रद्धेय पंकज 'सुबीर' जी द्वारा आयोजित तरही मुशायरे हेतु यह ग़ज़ल नुमा रचना लिखी थी, आप भी पढिये. मिसरा था, "कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी".
 
रहगुज़र की खामोशी हमसफ़र की खामोशी
कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी,
 
हिंदी और उर्दू में सिर्फ़ फ़र्क इतना है,
ये नगर की खामोशी वो शहर की खामोशी,
 
और क्या कहूँगा मैं और क्या सुनोगे तुम,
सब तो बोल देती है इस नज़र की खामोशी,
 
हम करीब होकर भी दूर दूर रहते हैं,
जाने किस सफ़र पर है मेरे घर की खामोशी,

लखनऊ से गुज़रे हैं लोग तो बहुत से मगर,
साथ सिर्फ़ कुछ के है उस डगर की खामोशी.
 
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Abhinav Shukla
206-694-3353
P Please consider the environment.

एक और जन्मदिवस

May 17, 2009

एक और जन्मदिवस आ गया है द्वार पर,
 
सूर्य की परिक्रमाएं तीस कर चुका है तन,
व्योम में भटक भटक के लक्ष्य ढूंढता है मन,
ज़िम्मेदारियों की झील धीरे धीरे भर गई,
केशराशि कुछ जगह और खाली कर गई,

लो अधेड़ उम्र की तरफ चली नई नदी,
लग रहा है मानो कुछ बुढा गई नई सदी,
रंग कितने आये गए ज़िन्दगी के फूल में,
कितनी ग़लतियां हुई हैं हमसे भूल भूल में,

मित्र कितने खो गए हैं रस्ते के मोड़ पर,
कितनी बार दो को घटाया है एक जोड़ कर,
अंकगणित, बीजगणित, भौतिकी, त्रिकोणमति,
अभियांत्रिकी बनी काव्य की अजस्र गति,

अगले प्लेटफार्म की और चले कोच पर,
थोडी देर बैठते हैं आज यही सोच कर,
क्या ग़लत किया है हमनें और क्या सही किया,
क्या जो करना चाहिए था आज तक नहीं किया,

आस्था के आसमान उड़ रही पतंग की,
डोर थाम कर चलें संभल संभल के धार पर,
एक और जन्मदिवस आ गया है द्वार पर.

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Abhinav Shukla
206-694-3353
P Please consider the environment.

भाषा और मौन

May 3, 2009

मौन की भाषा को समझना,
फिर भी सरल है,
कठिन तो होता है,
शब्दों के वास्तविक अर्थ को जानना,
भाषा में छिपे मौन को पहचानना.

 

- अभिनव

एक हिंदी कवि का अंग्रेजी इंटरव्यू

Mar 17, 2009

आप निम्न लिंक पर जाकर पृष्ठ १५ पर पढ़ सकते हैं, 'एक हिंदी कवि का अंग्रेजी इंटरव्यू'.

 

http://www.thesouthasiantimes.info/epaper/47_vol1_epaper.pdf - Page 15