सास बहू और टेबिल टेनिस
Sep 20, 2012प्रेषक: अभिनव @ 9/20/2012 0 प्रतिक्रियाएं
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चाय पिलाई जाए
Sep 19, 2012प्रेषक: अभिनव @ 9/19/2012 0 प्रतिक्रियाएं
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शतकीय पोस्ट - एक हास्य कविता - पतलम मंत्र
Apr 7, 2008ये लीजिये धीरे धीरे कर के हम भी शतकीय क्लब में शामिल हो रहे हैं. आज हमारी सौंवी पोस्ट के रूप में अपनी नई कविता 'पतलम मंत्र' प्रस्तुत कर रहे हैं. मुट्टम मंत्र पढ़ पढ़ कर हमारा वजन नित नई ऊँचाइयाँ तय करने लगा था. उसी को वापस अपनी सीमा में लाने का भाव मन में लिए हुए ये रचना लिखी है.
पतलम मंत्र
जाएँ जाकर देख लें धर्म ग्रन्थ और वेद,
कोई न बतलायेगा मोटापे का भेद,
मोटापे का भेद क्या साहब क्या चपरासी,
फूली तोंद, मुक्ख पर चर्बी, खूब उबासी,
सुधड़ देवियाँ देवों से जब ब्याह रचाएं,
दो दिन में मोपेड से ट्रेक्टर बन जाएँ.
कद्दू आलू गबदू थुलथुल गैंडे भैंसे,
संबोधन सुनने पड़ते हैं कैसे कैसे,
कैसे कैसे संबोधन ये मोटा मोटी
कहते सूख रही चादर जब धुले लंगोटी,
अपमानों को पहचानो अब मेरे दद्दू,
मन में ठानो कोई नहीं अब बोले कद्दू.
मोटे लोगों का सदा होता है उपहास,
दुबले होते ही डबल होता है विश्वास,
होता है विश्वास हृदय में अंतर्मन में,
आती है वो पैंट जिसे पहना बचपन में,
आयु में भी पाँच बरस लगते हैं छोटे,
रहते हैं खुश लोग वही जो न हैं मोटे.
मोटू लाला ब्याह में गए तो सीना तान,
जयमाला को भूल कर ढूंढ रहे पकवान,
ढूंढ रहे पकवान वो रबडी भरी कटोरी,
नाक कटा कर रख देती है जीभ चटोरी,
तभी कैमरा वाले आकर ले गए फोटू,
खड़े अकेले खाय रहे हैं लाला मोटू,
सोचो ये चर्बी नहीं बल्कि तुम्हारी सास,
दूर भगाने हेतु इसको करो प्रयोजन खास,
करो प्रयोजन खास लड़ाई की तैयारी,
सास बहू में एक ही है सुख की अधिकारी,
जीवन गाथा से आलस के पन्ने नोचो,
हट जायेगी चर्बी अपने मन में सोचो.
जाकर सुबह सवेरे श्री रवि को करो प्रणाम,
निस बासर जपते रहो राम देव का नाम,
राम देव का नाम बड़े ही प्यारे बाबा,
बिना स्वास्थ्य के आख़िर कैसा काशी काबा,
प्राणायाम करो हंसकर गाकर मुस्का कर,
रोज़ शाम को पति पत्नी संग टेह्लो जाकर.
आगे बढ़ती जाएँ ये प्रतिपल बोझ उठाये,
इनकी ऐसी स्तिथि अब देखी न जाए,
अब देखी न जाए न कुछ भी हमसे मांगें,
वजन घटाओ देंगी दुआएं अपनी टाँगें,
मान लो यदि कभी जो कुत्ता पीछे भागे,
हलके फुल्के रहे तो ये ही होंगी आगे.
हम दुबले हो जाएँ तो रिक्शा न घबराए,
ऑटो अपनी सीट पे दो की चार बिठाए,
दो की चार बिठाए कभी न आफत बोये,
सुंदर कन्या चित्र हमारा लेकर सोये,
यदि ऐसा हो जाए तो फिर काहे का ग़म,
मैराथन भी दौडेंगे चार दिनों में हम.
करेंगे अब क्या भला लल्लू लाल सुजान,
दुबले हैं हिर्तीक और दुबले शाहरुख़ खान,
दुबले शाहरुख़ खान पेट की मसल दिखायें,
उसी उमर के चच्चा अपना बदन फुलाएं,
वह भी दुबले होकर के रोमांस करेंगे,
शर्ट उतारेंगे फिर डिस्को डांस करेंगे.
आए फ़ोन से फ़ूड और बैठे बैठे काम,
टीवी आगे जीमना क्या होगा अंजाम,
क्या होगा अंजाम बात निज लाभ की जानो,
देता पतलम मंत्र तुम्हें इसको पहचानो,
कह अभिनव कविराय जो इसको मन से गाए,
चार दिनों में हेल्थी वेट लिमिट में आए.
प्रेषक: अभिनव @ 4/07/2008 9 प्रतिक्रियाएं
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एक हास्य कविता - दाढ़ी
Jun 4, 2007भारत के ऋषि मुनियों नें पाला था शान से,
जगमग थी ज्ञानियों पे दमकते गुमान से,
नानक से औ कबीर से तीरथ से धाम से,
पहचान जिसकी होती थी साधू के नाम से,
दे सकती थी जो श्राप ज़रा सी ही भूल पर,
सूरजमुखी की पंखुडी ज्यों आधे फूल पर,
मुखड़े पे जो होती थी बड़प्पन की निशानी,
केशों की सहेली खिले गालों की जवानी,
दिन रात लोग करते थे मेहनत बड़ी गाढ़ी,
तब जाके कहीं उगती थी इस चेहरे दाढ़ी,
दाढ़ी जो लहरती थी तो तलवार सी लगती,
हो शांत तो व्यक्तित्व के विस्तार सी लगती,
दाढ़ी तो दीन दुनिया से रहती थी बेख़बर,
करते सलाम लोग थे पर इसको देख कर,
दाढ़ी में हैं सिमटे हुए कुछ भेद भी गहरे,
सूरत पे लगा देती है ये रंग के पहरे,
दाढ़ी सफेद रंग की सम्मान पाएगी,
भूरी जो हुई घूर घूर घूरी जाएगी,
दाढ़ी जो हुई काली तो कमाल करेगी,
मेंहदी रची तो रंग लाल लाल करेगी,
दाढ़ी का रंग एक सा है छाँव धूप में,
सबको ही बांध लेती है ये अपने रूप में,
दाढ़ी के बिना चेहरा बियाबान सा लगे,
भूसी से बाहर आए हुए धान सा लगे,
दाढ़ी से रौब बढ़ता है ज़ुल्फों के फेर का,
दाढ़ी तो एक गहना है बबरीले शेर का,
चेहरे पे बाल दाढ़ी के जब आ के तने थे,
लिंकन भी तभी आदमी महान बने थे,
खामोश होके घुलती थी मौसम में खु़मारी,
शहनाई पे जब झूमती थी खान की दाढ़ी,
'सत श्री अकाल' बोल के चलती थी कटारी,
लाखों को बचा लेती थी इक सिंह की दाढ़ी,
मख़मल सरीख़ी थी गुरु रविन्द्र की दाढ़ी,
दर्शन में डूब खिली थी अरविंद की दाढ़ी,
दिल खोल हंसाती थी बहुत काका की दाढ़ी,
लगती थी खतरनाक बड़ी राका ही दाढ़ी,
गांधीजी हमारे भी यदि दाढ़ी उगाते,
तो राष्ट्रपिता की जगह जगदादा कहाते,
ख़बरें भी छपती रहती हैं दाढ़ी के शोर की,
तिनका छिपा है आज भी दाढ़ी में चोर की,
उगती है किसी किसी के ही पेट में दाढ़ी,
पर आज बिक रही बड़े कम रेट में दाढ़ी,
सदियों की मोहब्बत का ये अंजाम दिया है,
आतंकियों नें दाढ़ी को बदनाम किया है,
करने को हो जो बाद में वो सोच लीजिए,
पहले पकड़ के इनकी दाढ़ी नोच लीजिए,
स्पाइस ओल्ड बेच रही टीवी पे नारी,
दाढ़ी की प्रजाति हो है ख़तरा बड़ा भारी,
गुम्मे पे टिका के कहीं एसी में बिठा के,
तारों की मशीनों से या कैंची को उठा के,
पैसा कमा रहे हैं जो दाढ़ी की कटिंग में,
शामिल हैं वो संसार की मस्तिष्क शटिंग में,
ब्रश क्रीम फिटकरी की गाडी़ बढ़ाइए,
फिर शान से संसार में दाढ़ी बढ़ाइए,
मैं आज कह रहा हूँ कल ये दुनिया कहेगी,
दाढ़ी महान थी, महान है, और रहेगी।
प्रेषक: अभिनव @ 6/04/2007 17 प्रतिक्रियाएं
Labels: पाडकास्ट, हास्य कविता
शुऐब भाई के ज़ेब्रा क्रासिंग वाले चुटकुले का कविताकरण
Feb 16, 2007आज शुऐब भाई के ब्लाग पर एक चुटकुला पढ़ा, उसी का कविताकरण कर रहा हूँ।
तो हुआ यूँ कि एक बार हमने देखा कि हमारे एक मित्र सड़क पर ज़ेब्रा क्रासिंग पर काफी समय से इधर उधर कर रहे हैं, हम उनके पास गए और हमने उनसे पूछा, क्या पूछा ये सुनिएगा,
हमने पूछा जो अपने परम मित्र से,
भला रोड पे तुम करते हो क्यों ऐसे,
उसने बोला, "हूँ गुत्थी में उलझा हुआ,
मुझे चीज़ें समझ में आ जाती हैं वैसे,
कभी काले पे कूदा सफेद गया,
कभी दौड़ा मैं इसपे ओलम्पिक जैसे,
बड़ी देर से सोच रहा हूँ भला,
बजता है पियानो ये आखिर कैसे।
प्रेषक: अभिनव @ 2/16/2007 6 प्रतिक्रियाएं
Labels: हास्य कविता
कविता और पब्लिक ओपिनियन
Dec 22, 2006एक लम्बे समय तक चले,
घनघोर शीतयुद्ध के बाद,
जब घर पर पिताजी नें हमें,
नालायक शिरोमणी की उपाधि करते हुए,
हमारे कवि हो जाने का ऐलान किया,
तब हमें अपना भविष्य बिल्कुल क्लियर दिखाई दिया,
दूर दूर तक कुछ भी नहीं था,
और जो दिख रहा था वह बिल्कुल सही था,
खैर, युद्ध विराम कि स्तिथि के कारण,
एल ओ सी पर शांति व्यवस्था बहाल हो गई थी,
हम और पिताजी आपस के बैर भुला कर,
कभी कभार,
एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा लेते थे,
पिताजी मुस्कुराते हुए सोचते होंगे कि,
'बच्चू, अभी दो ही दिन में आटे दाल का भाव मालूम पड़ जाएगा,'
हम ये सोचते थे कि,
जब कविता करके आदमी प्रधानमंत्री बन सकता है,
नोबल पुरुस्कार की दौड़ में शामिल हो सकता है,
मंच पर बातें बना कर अच्छे अच्छों को धो सकता है,
तो अपना भी झंडा किसी ऊँची चोटी पर जाकर गड़ जाएगा,
लेकिन अपना भविष्य ऐसे कैसे दांव पर लगा दिया जाए,
कविता के बारे में पब्लिक ओपिनियन क्या है पता किया जाए,
पिताजी तो अपनी राय पहले ही दे चुके थे,
कविता मात्र अमीरों का सौंदर्य प्रसाधन है,
समय नष्ट करने का एक निकृष्ट साधन है,
तुम्हे आई आई टी में सेलेक्ट हुए अपने मामा से कुछ ज्ञान लेना चाहिए,
केवल पढ़ाई की ओर ध्यान देना चाहिए।
मां नें कहा,
बेटा, बचपन में हम लोग कवि सम्मेलन सुनने जाते थे,
अपनी डायरियों में भी कविताएँ नोट करके लाते थे,
कवि वही है जो ह्रदय से सच्चा हो,
वैसे तुम भी लिखते अच्छा हो,
पर अब कविता में कुछ बचा नहीं है,
नए लोगों को ये सब जंचा नहीं है,
छोटे भाई नें कहा,
अबे, मेरे आयल फ्री पापड़ पर चुपड़े हुए मक्खन,
मिट्टी के तेल के पीपे के अन्दर वाले ढक्कन,
तू बड़ा महान है, वीर हनुमान है,
हम जैसे लोगों का राबिनहुड है,
याद रख तेरा लक्ष्य बालीवुड है,
तू वहां पहुँच कर गीतकार बन जा,
फिर मेरे वहां पहुँचने की बात चला,
वैसे कविता में लेना चाहिए नए शब्दों का सहारा,
जैसे कठफोड़वा, फड़फड़ाहट, लक्कड़हारा,
इस मामले में पत्नी से हमारी अच्छी निभ जाती है,
उसे हमारी भाषा समझ ही नहीं आती है,
वो कुछ भी कहती है तो हम हाँ में सिर हिलाते हैं,
हम कुछ भी कहते हैं तो वो ना में सिर हिलाती है।
हम फिर घर के बाहर आए,
अन्य लोगों नें भी अपने विचार बताए,
एक नें कहा, कविता का अर्थ, भूख, गरीबी, कमज़ोरी, कड़की है,
दूसरा नें कहा कि, मेरे पड़ोस में रहने वाले डाक्टर साहब की लड़की है,
तीसरे नें कहा खूबसूरत नायिका है,
चौथा बोला, फिल्मों में गायिका है,
पाँचवा बोला, रिसर्च आब्जेक्ट है,
छठा बोला, एम ए का एक सब्जेक्ट है,
सातवां बोला, प्रश्न गहरा है,
आठवां बोला, हमसे मत पूछो, अपन तो जन्मजात बहरा है,
नवाँ बोला, कविता नदी पर बने सुंदर पुल सी है,
दसवाँ बोला, सूर, कबीर, मीरा, तुलसी है,
कोई बोला, कविता देवी माता के आगे जलती ज्योत है,
कोई बोला, हम क्या जानी क्या होत है,
कोई बोला, कविता चार लाईना सुना रिया हूँ है,
कोई बोला, पुराने ज़माने में ही हुआ करती थी रै,
जब यह सवाल हमनें किया मंचों पर धूम धड़ाके से चलने वाले एक कवि से,
जिसकी प्रसिद्धि की तुलना की जा सकती थी रवि से,
तो वह ज़रा देर तक तो रहा विचारों में खोया,
फिर उसने अपनी भावनाओं को ईमानदारी के शब्दों में पिरोया,
फिर बोला,
जब मैंने लिखना शुरू किया था,
तब कविता मानव मन का सम्मान थी,
सरस्वती माता का अनमोल वरदान थी,
पर जब से मंचों के बाज़ार में आया हूँ,
मेरी आत्मा में एक मलाल बो गई है,
कविता, दुकान पर बिकने वाला माल हो गई है,
इन सब महानुभावों की राय के बाद,
जब हमने अपने हृदय से पूछा,
कि कविता क्या होती है उस्ताद,
तो उसने उत्तर दिया कि,
कविता है बच्चे की किलकारी,
महके हुए फूलों की क्यारी,
चिड़ियों की चहचहाट,
शब्दों की तुतलाहट,
जहाँ कहीं भी भावना है, संवेदना है,
पीड़ा है, वेदना है,
प्रसन्नता है, उल्लास है,
जज़्बात हैं, एहसास है,
और जो वहाँ पर भी है,
जहाँ कुछ भी नहीं है,
कविता वही है।
प्रेषक: अभिनव @ 12/22/2006 7 प्रतिक्रियाएं
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मुट्टम मंत्र
Nov 16, 2006
मित्रों यह मंत्र यहाँ पढ़ भी सकते हैं।
प्रेषक: अभिनव @ 11/16/2006 3 प्रतिक्रियाएं
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पत्नी ये बोली एक बार अपने पति से,
Mar 23, 2006पत्नी ये बोली एक बार अपने पति से,
शादी योग्य हो गई है बिटिया तुम्हारी जी,
जल्दी से ब्याहो इसे और गंगा नहाओ,
पाप धो के करो चलने की तैयारी जी,
पति बोला जल्दी ना मचाओ मिलने तो देओ,
कोई अच्छा लड़का कोई योग्य अधिकारी जी,
पत्नी बोलीं,
सोचो मेरे पिताजी यदि कुछ ऐसा सोच लेते,
आज तक भी मैं बैठी होती रे कुँवारी जी।
प्रेषक: अभिनव @ 3/23/2006 2 प्रतिक्रियाएं
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आप सबको होली की अनेक शुभकामनाएँ
Mar 15, 2006चुटकुले का कविताकरण
पत्नी जी बोलीं एक बार मेरे प्राणप्रिय,
कोई चीज़ सोने की तो हमको दिलाइए,
वैलेंटाइन डे की कविता तो हैं सुनाते आप,
होली पर ही सही वैलेंटाइन तो मनाइए,
जब तक आप नहीं देते सोने वाली चीज़,
तब तक बात नहीं करूँगी मैं जाइए,
अगले ही दिन उन्हें गिफ्ट दिया एवं कहा,
सोने की ये गोलियाँ हैं खाइए सो जाइए।
अभिनव
बुरा ना मानो होली है।
प्रश्नः क्या पति डरपोक होते है?
उत्तरः नहीं जो डरपोक होते हैं, वो कुँवारे रहते हैं।
प्रेषक: अभिनव @ 3/15/2006 1 प्रतिक्रियाएं
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