श्रद्धेय पंकज 'सुबीर' जी द्वारा आयोजित तरही मुशायरे हेतु यह ग़ज़ल नुमा रचना लिखी थी, आप भी पढिये. मिसरा था, "कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी".
रहगुज़र की खामोशी हमसफ़र की खामोशी
कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी,
कितनी जानलेवा है दोपहर की खामोशी,
हिंदी और उर्दू में सिर्फ़ फ़र्क इतना है,
ये नगर की खामोशी वो शहर की खामोशी,
ये नगर की खामोशी वो शहर की खामोशी,
और क्या कहूँगा मैं और क्या सुनोगे तुम,
सब तो बोल देती है इस नज़र की खामोशी,
सब तो बोल देती है इस नज़र की खामोशी,
हम करीब होकर भी दूर दूर रहते हैं,
जाने किस सफ़र पर है मेरे घर की खामोशी,
जाने किस सफ़र पर है मेरे घर की खामोशी,
लखनऊ से गुज़रे हैं लोग तो बहुत से मगर,
साथ सिर्फ़ कुछ के है उस डगर की खामोशी.
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Abhinav Shukla
206-694-3353
Abhinav Shukla
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P Please consider the environment.
7 प्रतिक्रियाएं:
अभिनव भाई आपकी गजल मुझे बहुत पसंद आई
ये शेर कास कर अच्छा लगा
हिंदी और उर्दू में सिर्फ़ फ़र्क इतना है,
ये नगर की खामोशी वो शहर की खामोशी
नियमित लिखिए और ब्लॉग को अपडेट करिए कम से कम समर्थक लिंक तो लगा दीजिये
वीनस केसरी
और क्या कहूँगा मैं और क्या सुनोगे तुम,
सब तो बोल देती है इस नज़र की खामोशी,
--बहुत बेहतरीन, अभिनव!! नियमित लिखो!!
बहुत सुन्दर! नगर और शहर की खामोशी! मैं सोचता था कि केवल गांव देहात ही खामोश रहता है। शहर/नगर तो शोर/नगाड़े के स्थल हैं।
बहुत अच्छे , बहुत बोलती है ये नजर की खामोशी
काफिया बदल कर कहता हूं ।
इस बहाने टूटी तो, शुक्ल जी की खामोशी
हा हा हा...
गुरू जी की टिप्पणी पढ़ी देव ?
सुन्दर!
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