मत चिरागों को हवा दो बस्तियाँ जल जाएँगी,
ये हवन ऐसा कि जिसमें उंगलियाँ जल जाएँगी,
उसके बस्ते में रखी जो मैंनें मज़हब की किताब,
वो ये बोला, "अब्बा, मेरी कापियाँ जल जाएँगी"।
-- सुरेन्द्र चतुर्वेदी
संपर्क
किस्मवार
गड्ड-मड्ड
-
▼
07
(64)
-
▼
Feb
(13)
- कुछ सवालों के जवाब
- अब्बा, मेरी कापियाँ जल जाएँगी
- मिस्र में ब्लॉगर को जेल की सज़ा
- एक व्यंग्य - "ग्लोबल वार्मिंग - ए डिफरेंट पर्सपेक्...
- खून बहाया मासूमों का
- शिवरात्रि - रावण और तुलसीदास
- शुऐब भाई के ज़ेब्रा क्रासिंग वाले चुटकुले का कविताकरण
- राष्ट्रभाषा हिन्दी
- मैं जूठे ज़हर में ख़बर ढूँढता हूँ
- अशोक चक्रधर - अब हुए छप्पन
- हम भी वापस जाएँगे
- अयोध्या है हमारी और हम हैं अयोध्या के
- वह समाज मर जाता है जिसकी कविता डरती है
-
▼
Feb
(13)
अब्बा, मेरी कापियाँ जल जाएँगी
Feb 25, 2007प्रेषक: अभिनव @ 2/25/2007
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
9 प्रतिक्रियाएं:
एकदम माकूल
बहुत प्रभावशाली विचारों को कम परंतु शक्तिशाली शब्दों में व्यक्त किया है.सोचने पर मजबूर कर देते हैं आपके शब्द.
देख लो इतिहास को संदर्भ कुछ मिल जायेंगे
मज़हबी इक अम्ल में सारे रतन घुल जायेंगे
आदनियत को तराशा आयतों ने, मंत्र ने
तोड़ते दिल को न कोई और, बस दिल जायेंगे
देख लो इतिहास को संदर्भ कुछ मिल जायेंगे
मज़हबी इक अम्ल में सारे रतन घुल जायेंगे
आदनियत को तराशा आयतों ने, मंत्र ने
तोड़ते दिल को न कोई और, बस दिल जायेंगे
वाह अभिनव, कम पंक्तियों में इतनी गहरी बात, वाह वाह, बहुत खुब और अदभुत के सिवा कुछ नहीं कहना!! बहुत सही जा रहे हो!! अनेकों बधाई!!
बहुत सटीक.
वाह!
धुर विरोधीजी आपका धन्यवाद।
--
राकेश जी वाह वाह, बहुत सुन्दर।
--
सोनल जी, समीर भाईसाहबः सुरेन्द्रजी की ये पंक्तियाँ मुझे भी अति सुन्दर लगीं तभी ब्लाग पर पोस्ट किया है। काश हम भी कभी अपनी कहन में वो असर पैदा कर सकें जो कि उस्तादों के कलाम में होता है।
--
धन्यवाद संजय जी।
सब इतना कह चुके हैं की मैं क्या कहूं बस इतना खि कलम से बङा हथियार कोई नहीं .. इन पंक्तियों कॊ यहां प्रेषित करने क शुक्रिया..
चार लाईनों में सारी बहस को जवाब दिया कवि ने, लाजवाब!!
मन खुश कर दिया आपने
Post a Comment