अब्बा, मेरी कापियाँ जल जाएँगी

Feb 25, 2007

मत चिरागों को हवा दो बस्तियाँ जल जाएँगी,
ये हवन ऐसा कि जिसमें उंगलियाँ जल जाएँगी,
उसके बस्ते में रखी जो मैंनें मज़हब की किताब,
वो ये बोला, "अब्बा, मेरी कापियाँ जल जाएँगी"।

-- सुरेन्द्र चतुर्वेदी

9 प्रतिक्रियाएं:

Anonymous said...

एकदम माकूल

Unknown said...

बहुत प्रभावशाली विचारों को कम परंतु शक्तिशाली शब्दों में व्यक्त किया है.सोचने पर मजबूर कर देते हैं आपके शब्द.

देख लो इतिहास को संदर्भ कुछ मिल जायेंगे
मज़हबी इक अम्ल में सारे रतन घुल जायेंगे
आदनियत को तराशा आयतों ने, मंत्र ने
तोड़ते दिल को न कोई और, बस दिल जायेंगे

देख लो इतिहास को संदर्भ कुछ मिल जायेंगे
मज़हबी इक अम्ल में सारे रतन घुल जायेंगे
आदनियत को तराशा आयतों ने, मंत्र ने
तोड़ते दिल को न कोई और, बस दिल जायेंगे

Udan Tashtari said...

वाह अभिनव, कम पंक्तियों में इतनी गहरी बात, वाह वाह, बहुत खुब और अदभुत के सिवा कुछ नहीं कहना!! बहुत सही जा रहे हो!! अनेकों बधाई!!

Anonymous said...

बहुत सटीक.
वाह!

अभिनव said...

धुर विरोधीजी आपका धन्यवाद।
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राकेश जी वाह वाह, बहुत सुन्दर।
--
सोनल जी, समीर भाईसाहबः सुरेन्द्रजी की ये पंक्तियाँ मुझे भी अति सुन्दर लगीं तभी ब्लाग पर पोस्ट किया है। काश हम भी कभी अपनी कहन में वो असर पैदा कर सकें जो कि उस्तादों के कलाम में होता है।
--
धन्यवाद संजय जी।

Anonymous said...

सब इतना कह चुके हैं की मैं क्या कहूं बस इतना खि कलम से बङा हथियार कोई नहीं .. इन पंक्तियों कॊ यहां प्रेषित करने क शुक्रिया..

चार लाईनों में सारी बहस को जवाब दिया कवि ने, लाजवाब!!
मन खुश कर दिया आपने