इधर मोहल्ले में मीडीया पर बढ़िया आलेख पढ़ने को मिला। उसी पर की हुई अपनी टिप्पणी यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ, साथ में एक ग़ज़लनुमा रचना भी है।
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आपका आलेख पढ़ा, अच्छा लगा ये देखकर की रोशनी की लौ पूरी तरह बुझी नहीं है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। संभव है कि आपके द्वारा हमें कुछ सच्ची तथा अच्छी खबरें सुनने को मिलें। कहीं एक इतिहासकार की कहानी सुनी थी, एक बार उसके घर के बाहर कोई घटना घटी, जब वो बाहर आया तो उसने देखा कि बड़ी भीड़ लगी हुई है। उसने सोचा कि ज़रा पता किया जाए कि माज़रा क्या है तथा भीड़ के बाहरी घेरे पर खड़े एक सज्जन से पूछा कि भाई क्या हुआ है। पहले व्यक्ति नें उसे बताया कि दो लोग आपस में लड़ रहे हैं, वो भीड़ को चीर कर ज़रा अंदर पहुँचा और किसी दूसरे से यही प्रश्न किया, इस बार जवाब मिला कि किसी का कत्ल हो गया है, ज़रा और अन्दर पहुँचने पर उसे पता चला कि हत्यारे गोली मार कर मोटर सायकिल पर फरार हो गए हैं। जब वह आखिरकार घटनास्थल पर पहुँचा तो उसने देखा कि एक गाय नें एक बछड़े को जन्म दिया है और वो बछड़ा लड़खड़ा कर खड़ा होने की कोशिश कर रहा है। वापस आकर उन इतिहासकार महोदय नें अपनी लिखी सारी किताबें जला दीं और कहा कि जब मैं अपने घर के सामने २० मिनट पहले हुई घटना कि सत्यता नहीं प्रमाणित कर सकता तो सदियों पहले क्या हुआ था यह कैसे समाज पर थोप सकता हूँ। खैर, यह तो मात्र एक कथा थी, कौन जाने कितना सच, कितना झूठ किन्तु यह परम सत्य है कि खबर को गहराई से निकालना तथा यह पता लगाना कि गाय किस जाति की है तथा बछड़ा बड़ा होकर किस पार्टी को सपोर्ट करेगा बड़ा मुश्किल काम है। आपका लेख पढ़कर कुछ पंक्तिया बन पड़ी हैं नीचे प्रेषित कर रहा हूँ।
सुबह की ख़बर में ख़बर ढूँढता हूँ,
कभी दोपहर में ख़बर ढूँढता हूँ,
पचासों हैं चैनल हज़ारों रिसाले,
मगर मैं शहर में ख़बर ढूँढता हूँ,
नदी का तो चर्चा सभी कर रहे हैं,
मैं सूखी नहर में ख़बर ढूँढता हूँ,
कई साल पहले तबाही मची थी,
अभी तक लहर में ख़बर ढूँढता हूँ,
मेरे साथ आए भला कोई कैसे,
मैं जूठे ज़हर में ख़बर ढूँढता हूँ।
महा लिख्खाड़
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मैं जूठे ज़हर में ख़बर ढूँढता हूँ
Feb 12, 2007
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1 प्रतिक्रियाएं:
अभिनव भाई,
गाढ़ा सच है…बहुत सुंदर थी आपकी टिप्पणी…एक ज्वाला है आपके भीतर जो निकलता रहता है…नीचे की कविता ने तो निखार ही दिया…बधाई स्वीकार करें!!
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