दोस्तों इधर जमुना प्रसाद उपाध्याय जी की कुछ पंक्तियाँ सुनने को मिलीं, अच्छी लगीं। उपाध्याय जी के दर्शन का लाभ मुझे अभी प्राप्त नहीं हुआ है परंतु यह पता है कि वे फैज़ाबाद में रहते हैं। बड़ी सरलता से रचना पढ़ते हैं और कम शब्दों में बड़े बड़े मुद्दों के साथ न्याय करने का प्रयास करते हैं।
देखिए अपने राम जन्मभूमि मामले पर उनकी यह पंक्तियाँ,
नमाज़ी भी नहीं हैं जो, पुजारी भी नहीं हैं जो,
वो मन्दिर और मस्जिद को लिए ग़मग़ीन रहते हैं,
अयोध्या है हमारी और हम हैं अयोध्या के,
मगर सुर्खी में सिंहल और शहाबुद्दीन रहते हैं।
जब यह पंक्तियाँ लिख रहे हैं तभी अपने सांसद कवि उदय प्रताप सिंह जी का छन्द भी याद आ रहा है वह भी पढ़ लीजिए,
इस मसले पर वो कहते हैं,
सारी धरा धाम राम जन्म से हुई है धन्य,
निर्विवाद सत्य को विवाद से निकालिए,
रोम रोम में रमे हुए हैं विश्वव्यापि राम,
उनका महत्व एक वृत्त में ना डालिए,
वसुधा कुटुम्ब के समान देखते रहे जो,
ये घृणा के सर्प आस्तीन में ना पालिए,
राम जन्म भूमि को तो राम ही संभाल लेंगे,
हो सके तो आप मातृभूमि को संभालिए।
जमुना प्रसाद उपाध्याय जी की संवेदनाओं को स्पर्श करती इन पंक्तियों को भी देखिए,
पाँच उंगली से उठा लेता है अपने दस गिलास,
छह बरस का इस शहर में ऐसा जादूगर तो है,
तन पे कपड़ा पेट में रोटी नहीं तो क्या हुआ,
शहर के सबसे बड़े ढ़ाबे में वो नौकर तो है।
बाल मज़दूरी पर इससे पहले जो कुछ भी पढ़ा था वो ऐसा लगता था मानो सरकार द्वारा ठेके पर लिखवाया गया हो पर ऊपर लिखी पंक्तियाँ जब सुनीं तो ऐसा लगा मानो कवि के हृदय से शब्द फूटे हों। भाई वाह।
महा लिख्खाड़
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नाप तोल
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अयोध्या है हमारी और हम हैं अयोध्या के
Feb 5, 2007
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3 प्रतिक्रियाएं:
अंतिम पंक्तिया दिल को छु गई.
मुझे नहीं पता था कि अयोध्या पर इतनी अच्छी और मार्मिक कविता ऐसे कवियों ने लिखी है, जो ज्यादा नहीं जाने जाते। यह इस देश का दुर्भाग्य भी है। कैफी आज़मी ने भी 1992 के बाद एक नज्म लिखी थी। मुझे उसकी पहली पंक्ति का आशय याद है: राम वनवास से जब लौट कर घर को आये। अयोध्या पर जितनी भी ऐसी कविताएं हो सकती हैं, उन्हें एक जगह संकलित करने की कोशिश करें।
बहुत खुब. इन्हें यहां हम सब से बांटने के लिये साधुवाद.
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