कुछ सवालों के जवाब

Feb 25, 2007

१.आपकी सबसे प्रिय पिक्चर कौन सी है? क्यों?
-- शोले, क्या ठाकुर अब इसमें क्यों का जवाब देने की क्या बात है। शोले के संवाद और पात्र जीवन में समा चुके हैं तथा बातचीत में इधर उधर से झाँकते रहते हैं, अतः जाने अन्जाने शोले सबसे प्रिय ही होगी। वैसे अन्य फिल्में जो पसंद आईं उनमें रंग दे बसंती, द लेजेन्ड आफ भगत सिंह, सरफरोश, आनंद तथा एक अंग्रेज़ी की फिल्म है फाइंडिंग फारेस्टर।

२.आपके जीवन की सबसे उल्लेखनीय खुशनुमा घटना कौन सी है ?
-- अभी तक सबसे उल्लेखनीय खुशनुमा घटना का आस्कर अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति द्वारा आयोजित २००५ कवि सम्मेलन श्रंखला को मिलता है।

३.आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते/करती हैं?
-- हास्य, कविता, व्यंग्य तथा समसामयिक घटनाओं पर होने वाले चर्चात्मक चिट्ठे पसंद हैं।

४.क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तिव में कुछ परिवर्तन या निखार किया?
-- अभी तक बचा रखा है अपने आप को, चिट्ठे से इसमें सहायता मिली है। इस बहाने कुछ लोग मिले जिनके साथ ये बातें हो सकती हैं, अन्यथा आस पास के वातावरण में हिंदीमयता कम है।

५.यदि भगवान आपको भारतवर्ष की एक बात बदल देने का वरदान दें, तो आप क्या बदलना चाहेंगे/चाहेंगी?
-- मैं के बी सी में शाहरुख की जगह दुबारा अमिताभ को देखना चाहूँगा।

६.यदि आप किसी साथी चिट्ठाकार से प्रत्यक्ष में मिलना चाहते हैं तो वो कौन है?
-- अनूप कुमार शुक्ला (फुरसतिया)

७. आपकी पसँद की कोई दो पुस्तकें जो आप बार बार पढते हैं.
-- श्रीमद्भगवद्गीता, संस्कृति के चार अध्याय

लीजिए राकेश जी, अपके सवालों के जवाब

अब्बा, मेरी कापियाँ जल जाएँगी

मत चिरागों को हवा दो बस्तियाँ जल जाएँगी,
ये हवन ऐसा कि जिसमें उंगलियाँ जल जाएँगी,
उसके बस्ते में रखी जो मैंनें मज़हब की किताब,
वो ये बोला, "अब्बा, मेरी कापियाँ जल जाएँगी"।

-- सुरेन्द्र चतुर्वेदी

मिस्र में ब्लॉगर को जेल की सज़ा

Feb 22, 2007

संपूर्ण सामाचार पढ़ने के लिए इस कड़ी पर जाएँ।

या तो बदचलन हवाओं का रुख मोड़ देंगे हम,
या खुद को वाणी पुत्र कहना छोड़ देंगे हम,
जिस दिन भी हिचकिचाएँगे लिखने से हकीकत,
काग़ज को फाड़ देंगे कलम तोड़ देंगे हम।

-- शिव ओम 'अम्बर'

एक व्यंग्य - "ग्लोबल वार्मिंग - ए डिफरेंट पर्सपेक्टिव"

Feb 21, 2007

इधर 'हिंदी चेतना" के संपादक श्री श्याम त्रिपाठी जी से हमारी फोन पर बात हुई। उन्होंने पत्रिका के लिए एक व्यंग्य लिखने का अनुरोध किया तथा हमनें हाल फिलहाल की ज्वलंत समस्याओं में से एक का निवारण कर दिया। यह लेख अभी प्रकाशित नहीं हुआ है, यदि संपादक महोदय को अच्छा लगता है तो छपेगा, पर हमने सोचा कि अपने ब्लागर बन्धुओं को भी पढ़वाया जाए तथा उनकी प्रतिक्रिया प्राप्त की जाए। भाई हम ठहरे कवि आदमी ये लेख वेख लिखना ज़रा धीरे धीरे आता है।
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"ग्लोबल वार्मिंग - ए डिफरेंट पर्सपेक्टिव"

आज कल जिधर देखो लोग ग्लोबल वार्मिंग हाय हाय की रट लगाए रहते हैं। किसी भी बात की तह तक जाए बिना हंगामा करना हमारे मानव समाज की बड़ी पुरानी आदत है। चाहे ईराक युद्ध हो, चाहे यू एन ओ का गठन, चाहे पोलियो अभियान हो और चाहे पंचशील के सिद्धान्त हम जानते हैं कि ये सब बिना तह तक गए हंगामा करने के कारण ही अपनी छीछा लेदर करा अमृत्व को प्राप्त हो चुके हैं।

चाहे ईराक युद्ध हो, चाहे यू एन ओ का गठन, चाहे पोलियो अभियान हो और चाहे पंचशील के सिद्धान्त हम जानते हैं कि ये सब बिना तह तक गए हंगामा करने के कारण ही अपनी छीछा लेदर करा अमृत्व को प्राप्त हो चुके हैं।

परंतु जिस प्रकार पक्षियों में हंस है, पशुओं में सिंह है, कारों में रौल्स रायस है, नमक में टाटा है, कंप्यूटर में इंफोसिस है, इलेक्ट्रनिक्स में सोनी है, मैटल्स में प्लैटिनम है, अधोवस्त्रों में वी आई पी है, दवाओं में पुदीन हरा है तथा शीशियों में डिटौल है, ठीक उसी प्रकार मानव समाज में भी कुछ उत्कृष्ट जन हैं। ये उत्कृष्ट जन समाज की धारा की परवाह किए बिना अपनी बात रखना अपना फर्ज़ समझते हैं। मैं भी उन्हीं में से एक हूँ अतः अपनी बात आपके सामने रख रहा हूँ।

ना जाने हमारे बुद्धिजीवी 'ग्लोबल वार्मिंग' को लेकर अपने आपको इतना चिंतित दिखाने की फिराक में क्यों हैं। यह तो हम सभी जानते हैं और अपने तुलसीदास बाबा भी कह गए हैं कि,

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा।।

अब जब होना वही है जो पहले से तय है तो उनके आपके या हमारे टेंशन लेने से क्या कुछ बदल जाएगा? दूसरी बात ये कि टेंशन तो तब लिया जाए जब टेंशन वाली कोई बात हो, 'गलोबल वार्मिंग' तो हमारे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होने वाली है। सबसे पहली खुशी की बात तो यह होगी कि हमें दिन में दफ्तर नहीं जाना पड़ेगा क्योंकि दफ्तर रात को खुला करेंगे। बच्चे भी रोज़ सुबह सुबह स्कूल जाने की चिकचिक से बच जाएँगे। इससे भारत वाले अमेरिका के टाईम ज़ोन का आनंद घर बैठे उठा सकेंगे तथा अमेरिका वाले भारत की समय सारणी के अनुसार अपने कार्य करने पर बाध्य हो जाएँगे।

इससे नए नए उद्योगों को पनपने में भी सहायता मिलेगी, जैसे मोबाइल कूलिंग चैंबर उद्योग, गर्मी बचाओ सूट उद्योग आदि इत्यादि। इससे कुछ उद्योगों का विकास भी बड़ी तेज़ी से होगा, जैसे नीबू बंटा उद्योग, फ्रिज उद्योग, कूलर एण्ड एसी उद्योग, जल उद्योग आदि। गली गली में स्वीमिंग पूल खुल जाएँगे जिसमें हम सुबह से शाम तक भैंसों की तरह नहा सकेंगे, इस प्रकार यह मानव और पशु के मध्य की जो कृत्रिम दूरी है वह भी दूर हो जाएगी। ऐसा सुनते हैं कि समुद्र भी अपनी बाउँड्री बढ़ा लेगा तथा अनेक शहर पानी में डूब जाएँगे जिससे नौका उद्योग के भी बढ़ने के बड़े आसार हैं।
लोग आजकर अपने सूर्यदेव की महत्ता को कम आंकने लगे हैं। भारत में तो इधर बाबा रामदेव के सूर्य नमस्कार पर भी प्रतिबंध लगाने की बात चल रही हैं। एक बार ग्लोबल वार्मिंग हो जाए तो सारा संसार मिल कर सूर्य देव को नमस्कार करने पर विचार करने लगेगा।
एक बार ग्लोबल वार्मिंग हो जाए तो सारा संसार मिल कर सूर्य देव को नमस्कार करने पर विचार करने लगेगा।
हार्वड और कैम्ब्रिज में सूर्य नमस्कार पर डिग्री दी जाने लगेगी तथा इससे भारतीय संस्कृति का वैश्विक स्वरूप भी उभर कर सामने आ जाएगा।
आम आदमी के जीवन में तो 'ग्लोबल वार्मिंग' एक क्रान्ति की तरह आएगी तथा उसके जीवन को बदल कर चली जाएगी।

'ग्लोबल वार्मिंग' के विरोधी आपको डराने के लिए भाँति भाँति के प्रपंच तथा टोटके करेंगे। ये कहानी तो वे सामान्यतः खूब सुनाते हैं कि,
"एक बार दो मेंढकों पर एक प्रयोग किया गया। एक मेंढक को सीधे सीधे गर्म पानी के भगोने में छोड़ा गया तो वह फटाक से उस भगोने से कूद कर बाहर आ गया। दूसरे मेंढक को सामान्य तापमान के जल से भरे भगोने में रखा गया तथा उस भगोने को गैस पर चढ़ा दिया गया। यह मेंढक वहीं जल में पड़ा पड़ा अपने अगले शरीर की ओर प्रयाण कर गया। आज हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है, धरती का तापमान धीरे धीरे उसी भगोने की तरह बढ़ रहा है और हम उसी मेंढक की तरह धीरे धीरे एक अवश्यंभावी विनाश की ओर अग्रसर हो रहे हैं।"

मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसी हर गाथा का विरोध करता हूँ जिसमें आपको या मुझको मेंढक कहा जाए। यह तो हमारा सामूहिक अपमान है। तथा दूसरी बात ये कि यदि हमारे नीचे कोई गैस जलाएगा तो भगोने के तले पर लगे हमारे पैरों को तो पहले ही पता चल जाएगा। अतः आप इनकी बातों से भ्रमित मत होइएगा। मौसम बदल रहा है, ठीक बात है पर इसमें नया क्या है, परिवर्तन तो युग का नियम है। धरती का तापमान बढ़ रहा है, यह अच्छी बात है तथा हमको इसको सकारात्मक रूप में लेना चाहिए।

यदि ऐसा ही चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब हमारी पत्नी हमसे चाय बनाने को कहेगी और हम बस दूध, पत्ती डाल कर पतीला बाहर रख देंगे तथा दस मिनट में लाजवाब चाय तैयार हो जाएगी। इससे गैस अथवा बिजली का बिल में भी कटौती होगी तथा उस पैसे से हम नए फैशन वाला गर्मी बचाओ सूट भी खरीद सकेंगे। इस लेख को पढ़ने वाले सभी आदरणीय देवियों और सज्जनों से मेरा अनुरोध है कि वे तुरंत अपना फोन उठा के १-८००-ग्लोबल-वार्मिंग डायल करें तथा एल गोर साहब से कह दें कि अब हम किसी 'इनकन्विनियंट टरुथ' के जाल में फंसने वाले नहीं हैं। हम जान गए हैं कि संसार का भविष्य 'गलोबल वार्मिंग' में ही है।

सूर्य नमस्कार सहित,

आपका
अभिनव
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नोटः लेख में जो स्पेशल एफेक्ट बीच में नीली लाईन के ऊपर लिखी कुछ पंक्तियों से आ रहा है, उसके लिए लेखक याहू चैट बनाने वाले के प्रति तथा श्रीमान फुरसतिया महाराज उर्फ अनूप शुक्ला जी के प्रति अपना आभार व्यक्त करता है।

खून बहाया मासूमों का

Feb 20, 2007


खून बहाया मासूमों का फूलों और बहारों का,
देखा नहीं गया क्या तुमसे खुश रहना बेचारों का,

बात खु़दा तक पहुँच गई है जलने वाली बस्ती की,
आज इबादतगाहों में भी चर्चा है हथियारों का,

छोटे बच्चों को भी राम कहानी का अंदाज़ा है,
ताजपोशियाँ खेल सियासत धंधा है मक्कारों का,

इन खबरों की सच्चाई पर ऐतबार कैसे कर लें,
रोम रोम तो बिका हुआ है अब सारे अखबारों का,

एक कयामत नाज़िल होने वाली है जाने क्यूँ लगता है,
आज समन्दर तोड़ रहा दिल साहिल की दीवारों का,

ये मत सोचो उम्र बिताएगा कोई इस डेरे में,
आते जाना जाते जाना मज़हब है बंजारों का,

बालों की चांदी भी कैसे कैसे खेल दिखाती है,
हाल नहीं अब कोई पूछता हमसे इश्क के मारों का,

मेरे पीछे हंसने वाला मुझसे आकर कहता है,
कमज़ोरों की हंसी उड़ाना शौक है इज्जतदारों का,

तलवे चाट रहे थे अब तक जो बदनाम हुकूमत के,
वो फरमान सुनाएँगे अब लुटे हुए दरबारों का,

दफ्तर, बिजली, सड़कें, टीवी, चाय, फोन, चप्पल, जूता,
बच्चे, रोटी, पानी, कपड़ा किस्सा है घर बारों का,

आग मुहब्बत की जिसकी हर गाम हिफाज़त करती हो,
डर दिखलाता है उस 'अभिनव' को कैसे अंगारों का।

शिवरात्रि - रावण और तुलसीदास

Feb 16, 2007

आज शिवरात्रि को पावन पर्व पर देखिए और सुनिए रावण और तुलसीदास द्वारा रचित स्तोत्रों के कुछ अंश।



जय हो भोलेनाथ की

शुऐब भाई के ज़ेब्रा क्रासिंग वाले चुटकुले का कविताकरण

आज शुऐब भाई के ब्लाग पर एक चुटकुला पढ़ा, उसी का कविताकरण कर रहा हूँ।

तो हुआ यूँ कि एक बार हमने देखा कि हमारे एक मित्र सड़क पर ज़ेब्रा क्रासिंग पर काफी समय से इधर उधर कर रहे हैं, हम उनके पास गए और हमने उनसे पूछा, क्या पूछा ये सुनिएगा,

हमने पूछा जो अपने परम मित्र से,
भला रोड पे तुम करते हो क्यों ऐसे,
उसने बोला, "हूँ गुत्थी में उलझा हुआ,
मुझे चीज़ें समझ में आ जाती हैं वैसे,
कभी काले पे कूदा सफेद गया,
कभी दौड़ा मैं इसपे ओलम्पिक जैसे,
बड़ी देर से सोच रहा हूँ भला,
बजता है पियानो ये आखिर कैसे।

राष्ट्रभाषा हिन्दी

Feb 13, 2007

मित्रों, इधर 'हिंदी चेतना' का नया अंक पढ़ने को मिला। 'हिंदी चेतना', हिन्दी प्रचारणी सभा, कैनेडा की त्रैमासिक पत्रिका है। इसके संपादक श्याम त्रिपाठी जी हैं तथा इसमें प्रवासी लेखकों तथा कवियों के साथ भारत के लेखकों तथा कवियों की सामग्री भी पढ़ने को मिलती है।
इसमें लखनऊ के आलोक सिंह चौहान जी की राष्ट्रभाषा हिंदी नामक कविता नें ध्यान आकृष्ट किया है। आलोक जी की तस्वीर के अनुसार वे अभी काफी युवा तथा संभावनाशील लग रहे हैं। हिंदी भाषा पर इस भाव की अनेक रचनाएँ लिखी गई हैं परंतु आलोक जी की जो कविता में नीचे टाईप कर रहा हूँ उसका प्रवाह मुझे अच्छा लगा। यदि आप इसे बोल कर पढ़ने की कोशिश करें तो कविता बहती चली जाती है।

राष्ट्रभाषा हिन्दी

मैं राष्ट्रगान के मस्तक पर,
सदियों से अंकित बिंदी हूँ,
मैं सबकी जानी पहचानी,
भारत माता की हिंदी हूँ,

मेरी बोली को मीरा नें,
मनमोहक काव्य सुनाया है,
और सूरदास के गीतों में,
मैंनें कम मान ना पाया है,

वह तुलसी की रामायण भी,
मेरे मुख से चरितार्थ हुई,
सन्तों विद्वानों की वाणी,
गुंजरित हुई साकार हुई,

भूषण रसखान जायसी भी,
मेरे ही स्वर में गाते हैं,
औ पंत निराला प्रेमचन्द,
मेरी महिमा दोहराते हैं,

भारत में जितनी भाषाएँ,
सब मेरी पूज्य सहेली हैं,
हम सबमें अनुपम प्यार भरा,
हम बहनें हैं हमजोली हैं,

हर एक देश में निज भाषा,
माँ जैसा गौरव पाती है,
हिन्दी अपने ही बेटों में,
दूजी माँ समझी जाती है,

जो बेटों में आदर पाए,
वो माता किस्मत वाली है,
जो मुखर राष्ट्र के जनगण में,
वो भाषा गौरवशाली है।

कवि: आलोक सिंह चौहान


- 'हिंदी चेतना' - हिन्दी प्रचारणी सभा, कैनेडा की त्रैमासिक पत्रिका, वर्ष ९, अंक ३३, जनवरी २००७ से साभार

मैं जूठे ज़हर में ख़बर ढूँढता हूँ

Feb 12, 2007

इधर मोहल्ले में मीडीया पर बढ़िया आलेख पढ़ने को मिला। उसी पर की हुई अपनी टिप्पणी यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ, साथ में एक ग़ज़लनुमा रचना भी है।
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आपका आलेख पढ़ा, अच्छा लगा ये देखकर की रोशनी की लौ पूरी तरह बुझी नहीं है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। संभव है कि आपके द्वारा हमें कुछ सच्ची तथा अच्छी खबरें सुनने को मिलें। कहीं एक इतिहासकार की कहानी सुनी थी, एक बार उसके घर के बाहर कोई घटना घटी, जब वो बाहर आया तो उसने देखा कि बड़ी भीड़ लगी हुई है। उसने सोचा कि ज़रा पता किया जाए कि माज़रा क्या है तथा भीड़ के बाहरी घेरे पर खड़े एक सज्जन से पूछा कि भाई क्या हुआ है। पहले व्यक्ति नें उसे बताया कि दो लोग आपस में लड़ रहे हैं, वो भीड़ को चीर कर ज़रा अंदर पहुँचा और किसी दूसरे से यही प्रश्न किया, इस बार जवाब मिला कि किसी का कत्ल हो गया है, ज़रा और अन्दर पहुँचने पर उसे पता चला कि हत्यारे गोली मार कर मोटर सायकिल पर फरार हो गए हैं। जब वह आखिरकार घटनास्थल पर पहुँचा तो उसने देखा कि एक गाय नें एक बछड़े को जन्म दिया है और वो बछड़ा लड़खड़ा कर खड़ा होने की कोशिश कर रहा है। वापस आकर उन इतिहासकार महोदय नें अपनी लिखी सारी किताबें जला दीं और कहा कि जब मैं अपने घर के सामने २० मिनट पहले हुई घटना कि सत्यता नहीं प्रमाणित कर सकता तो सदियों पहले क्या हुआ था यह कैसे समाज पर थोप सकता हूँ। खैर, यह तो मात्र एक कथा थी, कौन जाने कितना सच, कितना झूठ किन्तु यह परम सत्य है कि खबर को गहराई से निकालना तथा यह पता लगाना कि गाय किस जाति की है तथा बछड़ा बड़ा होकर किस पार्टी को सपोर्ट करेगा बड़ा मुश्किल काम है। आपका लेख पढ़कर कुछ पंक्तिया बन पड़ी हैं नीचे प्रेषित कर रहा हूँ।

सुबह की ख़बर में ख़बर ढूँढता हूँ,
कभी दोपहर में ख़बर ढूँढता हूँ,

पचासों हैं चैनल हज़ारों रिसाले,
मगर मैं शहर में ख़बर ढूँढता हूँ,

नदी का तो चर्चा सभी कर रहे हैं,
मैं सूखी नहर में ख़बर ढूँढता हूँ,

कई साल पहले तबाही मची थी,
अभी तक लहर में ख़बर ढूँढता हूँ,

मेरे साथ आए भला कोई कैसे,
मैं जूठे ज़हर में ख़बर ढूँढता हूँ।

अशोक चक्रधर - अब हुए छप्पन

Feb 8, 2007


दूसरे के मन की बात जान लेने वाले यंत्र के संग्रहक, "वाह वाह" को वाह वाह बनाने वाले, अपने अनोखे स्टाइल में कविता पाठ करने वाले, भारत के लाडले एवं प्रतिभावान कवि, लेखक, फिल्मकार, संचालक, अध्यापक श्री अशोक चक्रधर ८ फरवरी को छप्पन वर्ष के हो गए हैं।

अपने तुलसी बाबा रामचरितमानस में लिख गए हैं कि,
सुनहि बिनय मम बिटप आसोका।
सत्य नाम करु हरु मम सोका।।

अपने नाम को सत्य करते हुए, अपने अशोक चक्रधरजी भी संसार का शोक हरने में लगे हैं।

उनकी एक बात याद आ रही है, आपको सुनाते हैं। जब अमेरिका नें ईराक पर हमला किया तो हमारे मोबाइल पर भारत की गुटनिर्पेक्षता का प्रदर्शन करता हुआ यह संदेसा आया,
"सद्दाम मरे या बुश, हम दोनों में खुश।"
एक कवि सम्मेलन में अशोक जी को सुना तो वे बोले कि आज कल यह संदेश बहुत प्रसारित हो रहा है, पर इसमें एक त्रुटि है, सही बात कुछ ऐसी होनी चाहिए,
"सद्दाम मरे ना बुश, हो दोनो पर अंकुश।"
अंकुश ज़रूरी है, और यह अंकुश प्रेम का भी हो सकता है। आवश्यक नहीं है कि अंकुश हाथी की पीठ पर चढ़कर ही लगाया जाए। यही भारत की संस्कृति है, जो हम संसार तक पहुँचा सकते हैं।

भाई वाह, क्या बात कही है।

आज अपने काका हाथरसी होते तो शायद कुछ ऐसा कहते,
कुंटल भर शुभकामना टन भर आशीर्वाद,
अब के छप्पन हो गया है मेरा दामाद,
है मेरा दामाद करे बढिया कविताई,
फिल्म बनावे खूब, सहेजे अक्षर ढाई,
लल्ला शाम सवेरे बागेश्री को ध्यावे,
सत्तावन से पहले पद्मश्री मिल जावे।


हमारी ओर से अशोक जी को ढेर सारा "हैप्पी बर्थडे टू यू।"

आप भी यदि चाहें तो अपने बधाई संदेश उनकी साईट पर यहाँ प्रेषित कर सकते हैं,
चित्र सौजन्यःअनुभूति एवं अभिव्यक्ति

हम भी वापस जाएँगे

Feb 6, 2007

आबादी से दूर,
घने सन्नाटे में,
निर्जन वन के पीछे वाली,
ऊँची एक पहाड़ी पर,
एक सुनहरी सी गौरैया,
अपने पंखों को फैलाकर,
गुमसुम बैठी सोच रही थी,
कल फिर मैं उड़ जाऊँगी,
पार करूँगी इस जंगल को.
वहाँ दूर जो महके जल की,
शीतल एक तलैया है,
उसका थोड़ा पानी पीकर,
पश्चिम को मुड़ जाऊँगी,
फिर वापस ना आऊँगी,
लेकिन पर्वत यहीं रहेगा,
मेरे सारे संगी साथी,
पत्ते शाखें और गिलहरी,
मिट्टी की यह सोंधी खुशबू,
छोड़ जाऊँगी अपने पीछे ....,

क्यों न इस ऊँचे पर्वत को,
अपने साथ उड़ा ले जाऊँ,
और चोंच में मिट्टी भरकर,
थोड़ी दूर उड़ी फिर वापस,
आ टीले पर बैठ गई .....।

हम भी उड़ने की चाहत में,
कितना कुछ तज आए हैं,
यादों की मिट्टी से आखिर,
कब तक दिल बहलाएँगे,
वह दिन आएगा जब वापस,
फिर पर्वत को जाएँगे,
आबादी से दूर,
घने सन्नाटे में।

अयोध्या है हमारी और हम हैं अयोध्या के

Feb 5, 2007

दोस्तों इधर जमुना प्रसाद उपाध्याय जी की कुछ पंक्तियाँ सुनने को मिलीं, अच्छी लगीं। उपाध्याय जी के दर्शन का लाभ मुझे अभी प्राप्त नहीं हुआ है परंतु यह पता है कि वे फैज़ाबाद में रहते हैं। बड़ी सरलता से रचना पढ़ते हैं और कम शब्दों में बड़े बड़े मुद्दों के साथ न्याय करने का प्रयास करते हैं।
देखिए अपने राम जन्मभूमि मामले पर उनकी यह पंक्तियाँ,

नमाज़ी भी नहीं हैं जो, पुजारी भी नहीं हैं जो,
वो मन्दिर और मस्जिद को लिए ग़मग़ीन रहते हैं,
अयोध्या है हमारी और हम हैं अयोध्या के,
मगर सुर्खी में सिंहल और शहाबुद्दीन रहते हैं।


जब यह पंक्तियाँ लिख रहे हैं तभी अपने सांसद कवि उदय प्रताप सिंह जी का छन्द भी याद आ रहा है वह भी पढ़ लीजिए,
इस मसले पर वो कहते हैं,

सारी धरा धाम राम जन्म से हुई है धन्य,
निर्विवाद सत्य को विवाद से निकालिए,
रोम रोम में रमे हुए हैं विश्वव्यापि राम,
उनका महत्व एक वृत्त में ना डालिए,
वसुधा कुटुम्ब के समान देखते रहे जो,
ये घृणा के सर्प आस्तीन में ना पालिए,
राम जन्म भूमि को तो राम ही संभाल लेंगे,
हो सके तो आप मातृभूमि को संभालिए।


जमुना प्रसाद उपाध्याय जी की संवेदनाओं को स्पर्श करती इन पंक्तियों को भी देखिए,

पाँच उंगली से उठा लेता है अपने दस गिलास,
छह बरस का इस शहर में ऐसा जादूगर तो है,
तन पे कपड़ा पेट में रोटी नहीं तो क्या हुआ,
शहर के सबसे बड़े ढ़ाबे में वो नौकर तो है।


बाल मज़दूरी पर इससे पहले जो कुछ भी पढ़ा था वो ऐसा लगता था मानो सरकार द्वारा ठेके पर लिखवाया गया हो पर ऊपर लिखी पंक्तियाँ जब सुनीं तो ऐसा लगा मानो कवि के हृदय से शब्द फूटे हों। भाई वाह।

वह समाज मर जाता है जिसकी कविता डरती है

Feb 2, 2007

डा वागीश दिनकर, पिलखुआ (गाज़ियाबाद) में रहते हैं। हिन्दी भाषा पर उनका अधिपत्य है तथा बहुत सुंदर कविताएँ लिखते हैं। उनकी एक प्रसिद्ध रचना नीचे टाईप कर रहा हूँ। "युग की सुप्त शिराओं में कविता शोणित भरती है, वह समाज मर जाता है जिसकी कविता डरती है," यह पंक्तियाँ हरि ओम पवार जी के एलबम 'अग्नि सागर' के संचालन में सुनी हैं। पंक्तियों में अपने महाकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' जी का तेवर झलकता है। वागीश जी के नाम में भी दिनकर का समावेश है अतः दिनकर की आभा भी उनकी रचनाओं को दीप्यमान कर रही है।

सुनते हैं कवि अपने युग का सच्चा प्रतिनिधि होता,
युग के हंसने पर कवि हंसता युग रोता कवि रोता,

कविता कवि के भाव जगत का चित्र हुआ करती है,
सच्चे कवि की कविता सच्चा मित्र हुआ करती है,

कविता वैभव के विलास में संयम सिखलाती है,
घोर निराशा में भी कविता आशा बन जाती है,

युग की सुप्त शिराओं में कविता शोणित भरती है,
वह समाज मर जाता है जिसकी कविता डरती है,

हृदय सुहाते गीत सुनाना कवि का धर्म नहीं है,
शासक को भी दिशा दिखाए कवि का कर्म यही है,

अपने घर में रहने वाला जब आतंक मचाए,
घर का मालिक ही घर में जब शरणार्थी बन जाए,

बहन बेटियों अबलाओं की लाज ना जब बच पाए,
मज़हब का उन्माद भाईचारे में आग लगाए,

जब सच को सच कहने का साहस समाप्त हो जाए,
दूभर हो जाए जीना विष पीकर मरना भाए,

तब कविता नूतन युग का निर्माण किया करती है,
निर्बल को बल प्राणहीन को त्राण दिया करती है,

कविता जन जन को विवेक की तुला दिया करती है,
कविता मन मन के भेदों को भुला दिया करती है,

'दिनकर' की है चाह कि हम सब भेदभाव को भूलें,
मात भारती की गरिमा भी उच्च शिखर को छू ले।

कविः डा वागीश दिनकर