आबादी से दूर,
घने सन्नाटे में,
निर्जन वन के पीछे वाली,
ऊँची एक पहाड़ी पर,
एक सुनहरी सी गौरैया,
अपने पंखों को फैलाकर,
गुमसुम बैठी सोच रही थी,
कल फिर मैं उड़ जाऊँगी,
पार करूँगी इस जंगल को.
वहाँ दूर जो महके जल की,
शीतल एक तलैया है,
उसका थोड़ा पानी पीकर,
पश्चिम को मुड़ जाऊँगी,
फिर वापस ना आऊँगी,
लेकिन पर्वत यहीं रहेगा,
मेरे सारे संगी साथी,
पत्ते शाखें और गिलहरी,
मिट्टी की यह सोंधी खुशबू,
छोड़ जाऊँगी अपने पीछे ....,
क्यों न इस ऊँचे पर्वत को,
अपने साथ उड़ा ले जाऊँ,
और चोंच में मिट्टी भरकर,
थोड़ी दूर उड़ी फिर वापस,
आ टीले पर बैठ गई .....।
हम भी उड़ने की चाहत में,
कितना कुछ तज आए हैं,
यादों की मिट्टी से आखिर,
कब तक दिल बहलाएँगे,
वह दिन आएगा जब वापस,
फिर पर्वत को जाएँगे,
आबादी से दूर,
घने सन्नाटे में।
सुनिए और पढ़िए - हम भी वापस जाएँगे
Jun 18, 2007
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6 प्रतिक्रियाएं:
वाह,
मज़ा आ गया सुनकर!
चाहतें हैं बहुत एक परवाज़ की और आकाश भी है खुला सामने
किन्तु ज़ंज़ीर से पांव जकड़े हुए, शक्ति सौंपी नहीं, तोड़ दें, राम ने
एक भ्रम में फ़ँसे फ़ड़फ़ड़ाते रहे, चाह कर भी उन्हें अनसुना कर रहे
जानते हैं कि उल्लास औ’ स्नेह से हमको आवाज़ दीं सैंकड़ों गाँव ने
भाई मैं तो नारद मुनी पर हो रहे बार को देखते-2 यहाँ आया क्योंकि आपका शीर्षक ऐसा ही है…पर यह देखा की कविता की धुन कुछ सुना रही है…बहुत सुंदर लय में लिखी गई है यह रचना…।बधाई!!!
यह रचना मेरी प्रिय रचनाओं में से एक है.
बहुत सुंदर रचना…।बधाई!!!
बहुत सुंदर रचना…।बधाई!!!
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