पत्थर और पानी के बीच का टकराव,
निरंतर जा़री है,
शायद चिर काल से,
पानी की ज़िद है,
कि वो पत्थर को,
अपनी जगह से,
हिला कर रख देगा,
अपने साथ बहा ले जाएगा,
पत्थर का प्रण है,
वो अपनी जगह से नहीं हिलेगा,
अचल अडिग रहेगा,
अपनी इन्हीं ज़िदों और प्रणों के चलते,
दोनो अपने काम में लीन हैं,
पत्थर चिकना हो जाता है,
गोल हो जाता है,
तब समय उस घिसे हुए सुंदर पत्थर को,
उठाकर मन्दिर में रख देता है,
फिर उसपर पानी चढ़या जाता है,
मानव और उसके संघर्षों के मध्य भी,
चलता रहता है,
एक,
पत्थर और पानी के बीच का टकराव।
पत्थर और पानी
May 11, 2007
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
6 प्रतिक्रियाएं:
बहुत गहरी रचना है. संपूर्ण दर्शन. साधुवाद इस रचना के लिये.
भाई आप जिस पत्थर के सुचिक्कन होने की बात कर रहे हैं वह तो मां सरस्वती का शृजन है - शांत-सतत-अद्भुत! आपको कभी-कभी अपने में भी वह शृजन प्रतीत होता होगा.
टकराव तो नियम है .... द्वंद तो चलता ही रहता है ..... यही जीवन है ....सुन्दर है ....और सुन्दर है रचना आपकी ...
टकराव तो नियम है .... द्वंद तो चलता ही रहता है ..... यही जीवन है ....सुन्दर है ....और सुन्दर है रचना आपकी ...
अच्छी अभिव्यक्ति है..
अच्छा लिखा है ...बधाई
Post a Comment