पेड़ बरगद का कोई ढहने को बाकी न रहा,
बूढ़े घुटनों की कसक सहने को बाकी न रहा,
पीली गौरैया के घर के सारे बच्चे उड़ गए,
घोसलों में आदमी रहने को बाकी न रहा,
भयंकर सूखा पड़ा फिर भावना के खेत में,
एक मोती आंख से बहने को बाकी न रहा,
कल वो मेरे नाम को सुनकर ज़रा शरमाई थी,
अब ग़ज़ल में और कुछ कहने को बाकी न रहा।
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पेड़ बरगद का कोई ढहने को बाकी न रहा
May 5, 2007
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4 प्रतिक्रियाएं:
कल वो मेरे नाम को सुनकर ज़रा शरमाई थी,
अब ग़ज़ल में और कुछ कहने को बाकी न रहा।
---वाह, मगर यह क्या हुआ? इतनी भी क्या बात कि कुछ कहने को कुछ बचा ही नहीं. :)
वाह ! अच्छी कविता है ।
घुघूती बासूती
पीली गौरैया के घर के सारे बच्चे उड़ गए,
घोसलों में आदमी रहने को बाकी न रहा,
अपने खालीपन को बहुत खूबसूरती से अभिव्यक्त किया है।
अंतिम पंक्तियाँ पसंद आयी.
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