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ज़िन्दगी, तू मुझे सताना छोड़ दे
Oct 12, 2010ज़िन्दगी, तू मुझे सताना छोड़ दे,
जिन संकरी गलियों में बचपन बैठा है,
उन गलियों में आना जाना छोड़ दे.
मुझसे भूल हुयी, भूल पर भूल हुयी,
जो सोने की रेत संभाल के रखी थी,
जब बक्सा खोला तो वो सब धूल हुयी,
अब सोने का मोह पुराना छोड़ दे.
ज़िन्दगी, तू मुझे सताना छोड़ दे.
पीड़ा नें आभावों के संग ब्याह किया,
हुआ आंकलन जब पूरा तो ये पाया,
मैंने बस कोरे काग़ज़ को स्याह किया,
अब तो झूठा प्यार निभाना छोड़ दे.
उन गलियों में आना जाना छोड़ दे.
-अभिनव
प्रेषक: अभिनव @ 10/12/2010
Labels: कविताएं
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3 प्रतिक्रियाएं:
बहुत अच्छी रचना . बधाई.
सच्चाई की राहों पर जीवन को ललकारती रचना।
ज़िन्दगी, तू मुझे सताना छोड़ दे,
जिन संकरी गलियों में बचपन बैठा है,
उन गलियों में आना जाना छोड़ दे.
अच्छे गीत की...
बहुत अच्छी लगी ये पंक्तियां.
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