महा लिख्खाड़
-
चित्तर का ग्रामीण चिकित्सक1 day ago
-
होली है पर्याय प्रेम का!3 weeks ago
-
मतदाता जागरूकता गीत1 month ago
-
मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है5 months ago
-
पितृ पक्ष6 months ago
-
‘नाबाद’ के बहाने ‘बाद’ की बातें1 year ago
-
गीत संगीत की दुनिया1 year ago
-
-
व्यतीत4 years ago
-
Demonetization and Mobile Banking7 years ago
-
मछली का नाम मार्गरेटा..!!9 years ago
नाप तोल
1 Aug2022 - 240
1 Jul2022 - 246
1 Jun2022 - 242
1 Jan 2022 - 237
1 Jun 2021 - 230
1 Jan 2021 - 221
1 Jun 2020 - 256
ज़िन्दगी, तू मुझे सताना छोड़ दे
Oct 12, 2010ज़िन्दगी, तू मुझे सताना छोड़ दे,
जिन संकरी गलियों में बचपन बैठा है,
उन गलियों में आना जाना छोड़ दे.
मुझसे भूल हुयी, भूल पर भूल हुयी,
जो सोने की रेत संभाल के रखी थी,
जब बक्सा खोला तो वो सब धूल हुयी,
अब सोने का मोह पुराना छोड़ दे.
ज़िन्दगी, तू मुझे सताना छोड़ दे.
पीड़ा नें आभावों के संग ब्याह किया,
हुआ आंकलन जब पूरा तो ये पाया,
मैंने बस कोरे काग़ज़ को स्याह किया,
अब तो झूठा प्यार निभाना छोड़ दे.
उन गलियों में आना जाना छोड़ दे.
-अभिनव
प्रेषक: अभिनव @ 10/12/2010
Labels: कविताएं
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 प्रतिक्रियाएं:
बहुत अच्छी रचना . बधाई.
सच्चाई की राहों पर जीवन को ललकारती रचना।
ज़िन्दगी, तू मुझे सताना छोड़ दे,
जिन संकरी गलियों में बचपन बैठा है,
उन गलियों में आना जाना छोड़ दे.
अच्छे गीत की...
बहुत अच्छी लगी ये पंक्तियां.
Post a Comment