लेकिन असली जीवन भी क्या अब जीने के काबिल है,
प्रश्न बड़ा है, अड़ा पड़ा है, और खड़ा है रस्ते पर,
टंका हुआ है चाँद सितारा, क्यों मुजरिम के बस्ते पर,
भूख, गरीबी, मज़हब, बीबी, बदला खून खराबे का,
इन सब में ही छिपा है जंतर मंतर काशी काबे का,
बम्ब धमाके, चोरी डाके, खूब ठहाके, हमको क्या?
होली खेली, रंगी हथेली, जली बरेली, हमको क्या?
7 प्रतिक्रियाएं:
बहुत सुन्दर ,आस पास अपराध देखते है ..और कुछ ना कर पाने के कारण विवश हो जाए है ..धीरे धीरे संवेदना मरने लगती है तभी कवि ह्रदय से निकलता है "हमको क्या "
अच्छी रचना
जबरदस्त!! अपनी आवाज में भी सुना देते तो क्या कहना!!! कायल हो गये हम तो सरकार!
शानदार!!
नवसंवत २०६७ की हार्दिक शुभकामनाएं
बहुत खूब अभिनव जी...बहुत खूब।
"प्रश्न बड़ा है, अड़ा पड़ा है, और खड़ा है रस्ते पर,
टंका हुआ है चाँद सितारा, क्यों मुजरिम के बस्ते पर"
मन मोह लिया खास कर इन पंक्तियों ने...
abhinav bhaaee dard ko kya khub andaaz se sahlaa rahe ho .... pasand aayee rachanaa samay aur haalaat ko bayaan kar rahi hai ...
arsh
"भूख, गरीबी, मज़हब, बीबी, बदला खून खराबे का,
इन सब में ही छिपा है जंतर मंतर काशी काबे का"..
इसने तो खूब बाँधा ! आभार ।
Bahut Khoob!
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