लुटी फिर बस है पन्द्रह आठ सैंतालिस नम्बर की,
फटी सीटें हैं कुछ गायब हुए हैं पेंच पहियों के,
मैं सुनता हूँ कि जीडीपी बढ़ा सनसेक्स उछला है,
हमारे घर के अन्दर हाल हैं बेहाल कइयों के,
कोई कहता है बीमारू कोई पिछड़ा बताता है,
भला सुधरेंगे दिन कैसे मेरे भारत में भइयों के,
वो सूखा पेड़ मुझसे कह रहा था एक दिन प्यारे,
कभी मेरी भी शाखों पर घरौंदे थे चिर्इयों के,
महा लिख्खाड़
-
सियार6 days ago
-
मैं हूं इक लम्हा2 weeks ago
-
दिवाली भी शुभ है और दीवाली भी शुभ हो4 weeks ago
-
-
बाग में टपके आम बीनने का मजा4 months ago
-
मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है1 year ago
-
पितृ पक्ष1 year ago
-
-
व्यतीत4 years ago
-
Demonetization and Mobile Banking7 years ago
-
मछली का नाम मार्गरेटा..!!9 years ago
नाप तोल
1 Aug2022 - 240
1 Jul2022 - 246
1 Jun2022 - 242
1 Jan 2022 - 237
1 Jun 2021 - 230
1 Jan 2021 - 221
1 Jun 2020 - 256
बस है पन्द्रह आठ सैंतालिस नम्बर की
Dec 29, 2006प्रेषक: अभिनव @ 12/29/2006
Labels: गीतिका
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 प्रतिक्रियाएं:
वो सूखा पेड़ मुझसे कह रहा था एक दिन प्यारे,
कभी मेरी भी शाखों पर घरौंदे थे चिर्इयों के,
--वाह, बहुत खुब.यह शेर खुब पसंद आया.
वही अब कंस बन कर ताव देते मूँछ पर अपनी
जिन्हें समझा था रखवाले, बिरज में हमने गईयों के
एक सशक्त रचना के लिये बधाई अभिनव.
सस्नेह
Post a Comment